भगवत प्राप्ति
श्रीकृष्ण कहते हैं कि अर्जुन जो भक्त मेरा आश्रय लेकर आराधना को मुझ में अर्पण करके अनन्य भाव से चिंतन करते हुए मुझे भजते हैं, ऐसे केवल मुझ परमात्मा में चित्त लगाने वाले उन भक्तों का मैं जल्दी ही संसार बनना से मुक्ति दिला देता हूँ। इसलिए अर्जुन तू निरंतर मुझ परमात्मा में मन और बुद्धि लगा, जिससे तु मुझ अव्यक्त परमात्मा में ही निवास करेगा, इसमें थोड़ा भी संदेह नहीं है। परंतु अर्जुन ने तो पहले ही बता दिया था कि मन को रोकना मैं हवा को रोकने के समान कठिन समझता हूँ। इसीलिए श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि यदि तुम मुझ परमात्मा में मन और बुद्धि भी ना लगा सके तो योग के अभ्यास से मुझ परमात्मा को पाने की इच्छा कर। अभ्यास का अर्थ है - जहां भी मन जाए वहाँ से खींच कर मन को आराधना में लगाएं। जैसे जब आप छोटे बालक थे तो बैठ नहीं पाते थे ,तुम्हारी माता तुम्हें बैठातीं लेकिन तुम गिर जाते, अतः धीरे-धीरे अभ्यास से तुमने बैठना सिख लिया और फिर इसी प्रकार तुम्हें खड़ा होना और चलना नहीं आता था, तुम्हारी मां ने तुम्हें बहुत बार खड़ा किया लेकिन तुम बार-बार गिर जाते थे, अंत में धीरे-धीरे अभ्यास से खड़ा होना और चलना सीख लिया ठीक इसी प्रकार तुम्हारा मन जहां भी जाए वहां से खींच कर आराधना और चिंतन क्रिया में लगाएं। धीरे धीरे अभ्यास से तुम्हारा मन मुझ में अचल स्थापित हो जाएगा।
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श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि तु अभ्यास में भी असमर्थ है तो केवल मुझ परमात्मा के लिए आराधना और चिंतन करने में तत्पर हो जा, अभ्यास में असमर्थ हो तो साधना मार्ग में लगे भर रहो और यदि तू इसे भी करने में असमर्थ है तो तू हानि लाभ की चिंता को छोड़कर समर्पण के साथ आत्मज्ञानी महापुरुष की शरण में जा, उनसे प्रेरित होकर आराधना स्वयं ही होने लगेगी। श्रीकृष्ण कहते हैं कि अभ्यास से ज्ञान मार्ग श्रेष्ठ है और ज्ञान मार्ग की अपेक्षा ध्यान श्रेष्ठ है क्योंकि ध्यान में परमात्मा रहता ही है और ध्यान मार्ग से भी श्रेष्ठ है हानि लाभ की चिंता को छोड़कर समर्पण के साथ आराधना में लग जा।क्योंकि हानि लाभ की चिंता के त्याग से तत्काल परम शांति प्राप्त हो जाती है।
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