वेदांत का रहस्य
एक नास्तिक को छोड़कर, प्रायः हिन्दू, मुसलमान, ईसाई आदि सभी मज़हब वाले किसी-न-किसी रूप में ईश्वर को मानते हीं हैं और सभी का यह कथन है कि ईश्वर से प्रेम करो, उसी को पहचानो, उसी को प्राप्त करो, वही तुम्हें सुख देगा; उसके ही जानने पर तुम्हारे सम्पूर्ण दुःख दूर हो जायेंगे, और तुम परमानन्दपद को प्राप्त हो जाओगे इत्यादि । इनमें से एक वेदान्त- सम्प्रदाय भी है, वह अनादि काल से चला आ रहा है। उसका कथन है कि (यहाँ सम्प्रदाय से मतलब सिद्धान्त से है, क्योकि वेद अपने को परिच्छिन्न नहीं मानता, बल्कि वह अपने को सम्पूर्ण देश, समस्त समाज, सभी मजहब तथा हर एक व्यक्ति मे व्याप्त मानता है।) परमतत्व एक ब्रह्म ही है, उसके सिवा कोई भी पदार्थ सत्य नहीं है, अपितु सब कुछ ब्रह्मरूप ही है। जब तक जीव की भावना में परमात्मा के अतिरिक्त किसी और ही पदार्थ का अस्तित्व बना रहेगा, वह जगत अथवा अपने को ईश्वर से भिन्न समझता रहेगा; तब तक जन्म मरण के चक्कर से छूट ही न सकेगा, उसके दुःखों का - नाश भीं न हो सकेगा; इसलिये जन्म-मृत्यु, जरा व्याधि आदि दुःखों से छूटने और पूर्ण सत्य सुख को पाने के लिये अपने सहित जगत् को ब्रह्मरूप ही जानना होगा; जगत् के हर एक पदार्थ में अपने ही अखण्ड रूप का अनुभव करना होगा; भूत, वर्तमान, भविष्य, तथा इनसे भी परे अपने अविनाशी स्वरूप की ही एक सत्य सत्ता को समझना होगा । सृष्टि तीन प्रकार की मानी गयी है, एक आरम्भक, दूसरी परिणामी, और तीसरी विवर्त्तीय। इनमें से पहला सिद्धान्त 'आरम्भवाद' कहलाता, है जिसे नैयायिक मानते हैं; दूसरे को 'परिणामवाद' कहते हैं, इस पर सांख्या वाले अपना दावा रखते हैं और तीसरा 'विवर्त्तवाद' के नाम से प्रसिद्ध है, इसे वेदान्त ने अपनाया है ।
विवर्त्तवादी वेदान्त कहता है कि भाई ! जगत् की सृष्टि शून्य से तो हो ही नहीं सकती, क्योंकि कहीं भी शून्य, असत् या प्रभाव से सृष्टि नहीं देखी जाती। क्या आकाश में स्वतः सृष्टि होती है ? आज तक तो किसी ने भी बन्ध्या- पुत्र नहीं देखा। अजी, जहाँ मूल कारण ही न रहेगा, वहाँ कार्य कैसे होगा ? इसलिये जगत् का कुछ मूल कारण अवश्यमेव होना चाहिये; तो क्या इसका मूल कारण जड़ पदार्थ हो सकता है ? कदापि नहीं; क्योंकि यह बात तो एक बालक भी जानता है कि जड़ पदार्थ किसी चैतन्य के ही बनाने से बनता है। क्या घड़े को कुम्हार नहीं बनाता। जड़ रथ को एक चेतन बढ़ई ही तो बनाता है। इतना ही नहीं, वरन् जड़ का प्रवर्त्तक (प्रेरक) भी चैतन्य ही होता है, जैसे रथ को चलानेवाले सारथी और घोड़े होते हैं। अजी, सृष्टि पर ध्यान देने से तो यही पता चलता है कि यह किसी अलौकिक विचित्र कारीगर की बनाई हुई है। कहिये ! पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और आकाश, इन पंच तत्वों को क्या आपने बनाया हैं ? क्या चाँँद, सूर्य, तारे इत्यादि आपके रचे हुए हैं ? कभी नहीं, यह सब काम किसी सर्वज्ञ सामर्थ्यशाली के बिना हो ही नहीं सकता । नियत समय पर चन्द्रमा और सूर्य का उदय होना; पल, घड़ी, पहर,मास, वर्ष आदि के सिलसिले का न बिगड़ना; समय-समय पर ऋतुओं एवं मौसिमों का बदलना; यथा काल वृक्ष, लता, अन्न, पुष्प आदि में पत्ते, फूल, फलादि कों का लगना; यहाँ तक कि सृष्टि-प्रलय का भी नियुक्त समय पर ही होना, भला, किसी महान शासक के बिना कैसे हो सकता है। अजी ! सचमुच ही इसके लिये एक मात्र जड़ प्रकृति या केवल जड़ परमाणुओं को कारण बतलाना नितांत बालकपन है, अज्ञानता है, मूर्खता है इसके लिये तो अवश्यमेव कोई सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वान्तर्यामी एवं चैतन्य नियन्ता ही को होना चाहिये, आप कह सकते हैं कि ऐसा कौन हो सकता है। अजी, ऐसा तो एकमात्र वेदान्तियों का ईश्वर ही हो सकता है। इसपर आप कहेंगे कि वेदान्ती तो ईश्वर (ब्रह्म) को निर्गुण मानते हैं, उनके निर्गुण ईश्वर में ये सब गुण कैसे घट सकते हैं? तो सुनिये, इसी से तो वेदान्ती 'विवर्त्तवाद' को मानते हैं। इस विवर्त्तवाद के अनुसार चैतन्य ईश्वर में सब कुछ कल्पित माना गया है। विवर्त्त का अर्थ ही यह होता है कि किसी पदार्थ की प्रतीति दूसरे रूप में हो जाने पर भी उसको अभाव न हो, उसके स्वरूप में थोड़ा भी अन्तर न पड़े। जैसे, जब आकाश में नीलता, तम्बू या कराह दिखलाई देता है तब क्या आकाश सचमुच रूपवान अथवा विकारी हो जाता है, या उसकी असङ्गता में अन्तर पड़ जाता है? इस प्रकार वेदान्तियों के ईश्वर में कितने ही गुणों का आरोप कीजिये, उसमें अनेक ब्रह्मांडों की कल्पना कर डालिये, उसका कुछ भी नहीं बिगड़ने का वह तो निरवयव, असंग एवं अनन्त ही रहेगा। कई एक पदार्थों के परस्पर मिलने से सृष्टि होती है, इसे 'आरम्भवाद कहते है' और किसी पदार्थ का अपने पहले रूप को छोड़ कर दूसरे रूप में हो जाना ही 'परिणामवाद' का मर्म कहलाता है। अब विचार कीजिये कि वस्तुओं का पारस्परिक मेल अथवा एक रूप से दूसरे रूप में हो जाना, बिना सावयव पदार्थों के कैसे हो सकता है ? यह तो रूप तथा अंगवाले पदार्थों में ही हो सकता है। क्या निरवयव आकाश का किसी के साथ कभी संयोग हुआ है? अथवा उसमें रूपान्तर हुआ है? फिर ऐसे संयोगवान् तथा परिणामी पदार्थ तो जड़ तथा विनाशी होते हैं, और जड़ तथा विनाशी वस्तुओं को चेतनता एवं सत्ता देने के लिये किसी चैतन्य और सत्य पदार्थ की ही आवश्यकता पड़ती है, तब परिणामवाद और आरम्भवाद स्वतन्त्ररूप में कैसे चल सकते हैं? इसी से तो ये मूल-रहित और अधूरे ही रह जाते हैं ।
जिज्ञासुओं में यह शंका स्वाभाविक रूप में ही उठती होगी कि जब एक ही निरवयव, असंग तथा अपरिच्छिन्न परमात्मा है, तो उसमें से जगत आ कहाँ गया ? या वह जगत् रूप से क्यों दिखलायी देने लगा ? अच्छा इसे आप लोग ध्यान देकर सुनें । भाई ! यह विषय आध्यात्मिक है, बहुत गूढ़ है, अति गहन है; बिना शुद्ध हृदय के, बिना चित्त की एकाग्रता के, यह समझ में नहीं आता। यही कारण है कि बहिर्मुख वृत्तिवाले विषयी द्वैतवादी, विशेषकर पाश्चात्य लोग इससे लाखों कोस दूर रहते हैं, आध्यात्मिक चर्चा के सुनते ही उनका माथा ठनकने लगता है। अजी ! इसके रहस्य के समझ में न आने से ही वे इसका रसास्वादन नहीं कर सकते, और इसको शुष्कवाद, कोरा ज्ञान, नीरस या कल्पित कह डालते हैं, वे बेचारे करें तो क्या करें ? उनके सिद्धान्त और इस सिद्धान्त में बहुत अन्तर है। कहाँ तो यहाँ विषय त्याग और कहाँ च
वहाँ विलासिता, कहाँ तो यहाँ अन्तर्मुखी वृत्ति, कहाँ चहाँ बाह्यवृत्ति, यहाँ तो देहाभिमान को छोड़ना है, और वहाँ देहाभिमान को ही बढ़ाना है, यहाँ तो सुख को आत्मा में ढूँढ़ना है और वहाँ संसार में; यहाँ जीते जी मुक्त होना है, किन्तु वहाँ मरकर मोक्ष पाना है। अजी ! यहाँ तो मुक्ति किसी से उधार नहीं ली जाती, किसी भी लोक में, किसी का मुख नहीं ताकना पड़ता, वरन् यहाँ स्वतः सर्वस्वतन्त्र सम्राट् होना है, वहाँ उनका सिद्धान्त इससे विल्कुल विपरीत है। अरे ! मैं कहाँ बहक गया, यह सब क्या बकने लगा। यहाँ तो अन्य प्रसंग ही होने लगा, पहला विषय तो छूटने लगा। अच्छा, पाठक गण! अब आप पूर्व विषय पर ध्यान दे । ऐ मेरे प्रिय श्रोतागण ! अनन्त अविनाशी निराकार चैतन्यदेव के आश्रय में अनादिकाल से एक शक्ति रहती है, उस शक्ति को माया, अज्ञान अथवा अविद्या कहते हैं । उस शक्ति के विषय में यह नहीं कहा जा सकता कि वह क्या है ? कैसी है ? क्यों है ? कब से है – इत्यादि । इसलिये वह अचिन्त्य नाम से पुकारी जाती है। चूँकि ब्रह्म सर्वत्र है, अतएव उसकी शक्ति भी हर एक जगह भरी पड़ी है। वह तो जगत् की हर एक वस्तु में पाई जाती है । हम देखते हैं कि मिट्टी में घड़े के बनने की शक्ति, वृक्षों, वनस्पतियों तथा लताओं इत्यादि में अँकुरने, फूलने और फलने की शक्ति एवं आग में जलाने को शक्ति सन्निहित रहती है। तब क्या ये शक्तियाँ इन पदार्थों से भिन्न हैं ? जी नहीं, क्योंकि पदार्थ के आश्रय को छोड़कर किसी भी शक्ति को हमने आज तक स्वतन्त्र और पृथक् नहीं देखा। तो क्या शक्ति पदार्थ से भिन्न है ? अर्थात् क्या पदार्थ को ही हम शक्ति कह सकते हैं? जी नहीं। यह भी नहीं हो सकता क्योंकि आप ही न कहिये, आप में तो बहुत कुछ कार्य करने की शक्ति है न? जी हाँ, तब आपको पुरुष कहा जाय, या शक्ति? इस पर आप यही कह उठेंगे कि अजी ! मैं तो पुरुष हूँ; तब कहिये कि शक्ति पुरुष से भिन्न कहाँ रह गई?
मैं एक और दृष्टान्त अग्नि का देता हूँ; इससे आपको अचिन्त्य शक्ति का विषय ठीक-ठीक समझ में आ जायगा। जब तक अग्नि किसी पदार्थ को जलाती नहीं है, तब तक तो उसकी जलाने वाली शक्ति का पता ही नहीं रहता कि वह कहाँ है? तब तक तो वह अग्नि में मिल-जुलकर अग्नि रूप में ही रहती है, परन्तु जब उस अग्नि से किसी पदार्थ का संयोग हो जाता है और वह वस्तु जलने लगती है, तब तो यह मालूम ही हो जाता है कि इसमें जलाने की शक्ति है, परन्तु जब कोई उस अग्नि की शक्ति को मंत्र आदि से मार देता है, तब तो वह जला भी नहीं सकती। तो क्या शक्ति के भाव से उस अग्नि का भी अभाव हो जाता है ? नहीं, नहीं, वह तो ज्यों-की-त्यों ही लहलहाती हुई दिखाई देती रहती है, तब हम शक्ति का अग्नि से भिन्न क्यों न समझें ? यदि वह शक्ति अग्नि रूप ही होती तो उसके प्रभाव से अग्नि का भी अभाव हो जाता। इससे क्या वह शक्ति अभाव रूपा है? जी नहीं, वह अभाव रूपा कभी हो ही नहीं सकती, क्योंकि यदि उसका अभाव हो गया होता, तो मंत्रादि के प्रतिबन्धों के दूर होते ही वह फिर क्यों कर जलाने लगी। अतएव वह अभाव-रूप नहीं हो सकती ।
मेरे प्रिय आत्मन् ! आप लोगों के अन्तःकरणों में
कौतूहल मचा होगा, और हलचली मची होगी। अब तो यह शंका सहज ही में उठती होगी कि जब वह शक्ति शक्तिमान से भिन्न नहीं, और अभिन्न भी नहीं, तथा जब वह न तो भावरूपा है और न अभावरूपा, तब वह है कैसी ? इसके उत्तर-रूप में हम तो पहले ही कह चुके हैं कि वह शक्ति अनिर्वाच्य है। जब हम उसे याद करते हैं, या उसे ढूँढ़ने लगते हैं, तभी वह प्रतीत होने लगती है। उस में खूबी यह है कि उसे हम जिस रूप में ढूँढ़ते हैं, वह उसी रूप में हमें मिल जाती है। मान लीजिये कि इस समय हम अपनी चित्तवृत्ति को सब ओर से हटाकर एक पुस्तक की ही ओर लगाये हुए हैं; अर्थात् उस पुस्तक को ही बड़े ध्यान से देख रहे हैं, तो बताइये, इस समय हमारे लिये उस पुस्तक के सिवा और संसार रह ही कहाँ गया है ? जब हम अपने को मनुष्य के रूप में देखना चाहते हैं तब मनुष्य रूप में पाते हैं। जब हम स्वर्ग की खोज में चलते हैं, तब वह शक्ति हमारे लिये किसी-न-किसी दिन स्वर्ग के ही रूप में आ मिलती है। आप थोड़ी देर के लिये अपने चित्त में शक्ति (माया), जीव, जगत् या किसी भी चीज़ की कल्पना मत उठने दीजिये, तो आप देखेंगे कि अब आपके लिये कुछ भी नहीं रह गया, बल्कि एकदम प्रलय हो गया। क्या अब सचमुच कुछ नहीं है ? आप कहेंगे कि हाँ, अब तो कल्पना के अभाव से वस्तुतः कुछ भी नहीं रह गया। हम कहते हैं कि यह समझना आपकी बड़ी भारी भूल है। अभी एक तत्त्व ऐसा शेष रह गया है, जो कल्पनातीत है। अजी, सारे कल्पित पदार्थ मन की कल्पना से ही बने थे, कल्पना के शान्त होते ही वे भी वैसे ही शान्त हो गये, जैसे वायु के बन्द होते ही जल तरंग शान्त हो जाते हैं; जैसे वाणी के विराम लेते ही वक्ता का पता नहीं चलता, अथवा जैसे पुरुष के जागते ही स्वप्न के पदार्थ विलीन हो जाते हैं। परन्तु जो वस्तु कल्पना से परे है, उसका अभाव कब होने का है ? वह तो त्रिकालावाध्य है, अचल है, अविनाशी है, पूर्ण है, शान्त है, वह आपका आत्मा है, सच्चा स्वरूप है यदि आप पूछिये कि यह कैसे ! तो सुनिये। आपने ज्यों ही सम्पूर्ण कल्पनाओं को रोक दिया था, त्योंही यह मालूम हुआ था कि 'अब कुछ भी नहीं है। तब बताइये कि इस 'कुछ नहीं है' का ज्ञान किसने किया? यह किसने जाना कि 'अब कुछ नहीं है'। वह आत्म तल, जिसका वर्णन भी हुआ है, वही आप हैं। यदि वहाँ पर आप न रहे होते तो सब के अभाव का ज्ञान कौन करता। देखिये न ! सभी का अभाव के हो जाने पर भी आपका अभाव नहीं हुआ, इसीलिये तो आपका स्वरूप ही सत्य ठहरा तथा उस समय समस्त कल्पनाओं के अभाव के हो जाने से सूर्य चन्द्र आदि के प्रकाश भी न रह गये थे वहाँ तो ये चर्म नेत्र भी न थे, बल्कि आपने स्वयं अपने स्वरूप के प्रकाश में ही पदार्थों के प्रभाव को देखा और जाना था, अतः आप स्वयं प्रकाश चैतन्यस्वरूप हैं, और उस समय किसी भी पदार्थ के न रहने के कारण आपको सुख-दुःख देने वाला कोई भी दूसरा न था। अपितु उस समय वहाँ आप ही समस्त दुःखों से रहित हो आनन्द-रूप से विराजमान थे। अतएव आपका ही वह स्वरूप सच्चिदानन्द है। सचमुच कल्पनातीतता की अवस्था बड़ी ही निराली है। वह तो अलौकिक है, वही आत्यन्तिक सुख अथवा मुक्तावस्था है। उसकी तो प्राप्ति अनेक जन्मों के दृढ़ वैराग्य तथा अभ्यास से ही होती है। अब आप पूछेंगे कि कल्पना के शान्त होते ही जब सारे पदार्थों का अभाव हो गया था तब उस अवस्था में मेरी वह कल्पना-शक्ति कहाँ चली गई थी, जिसने यह प्रपंच रचा था। अजी! उस शक्ति ने तो उस समय में आप में ही लय होकर आप से अभिन्नता प्राप्त कर ली थी। अचिन्त्य शक्ति का जो कार्य होता है, वह तो व्यक्त कहलाता है, क्योंकि वह इन्द्रियों का विषय हो जाता है; और वह शक्ति इन्द्रियातीत होने से स्वयं व्यक्त है तथा इन दोनों - अव्यक्त और व्यक्त का अधिष्ठान रूप जो ब्रह्म है, वही आधार कहलाता है। यह नियम संसार के हर एक पदार्थ में पाया जाता है। एक घड़े को ही ले लीजिये, मिट्टी का कार्य जो घढ़ा है, वह तो व्यक्त है और मिट्टी में घड़े के बनने की जो शक्ति है, वह अव्यक्त - छिपी हुई है एवं मिट्टी के सहित - मिट्टी उपहित - मिट्टी में का व्याप्त - चेतन आधार है।
प्रिय जिज्ञासु ! पूर्वोक्त प्रकरण के अनुसार आपके अनन्त, अखंड, निर्वच्छिन्न एवं निर्विकार स्वरूप में ही यह अनिर्वाच्य शक्ति अखिल प्रपंच का भान करा डालती है। यह सुन कर शायद आप फिर भी घबड़ाने लगे होंगे, कि अरे ! मुझमें प्रपंच हो और मेरी निर्विकारिता भी बनी रहे, यह कैसा विरोधपूर्ण भाषण है। यह कैसीआश्चर्यमयी वार्ता है ! यह तो बिल्कुल असम्भव सा ही प्रतीत होता है। मेरे प्रिय आत्मन् ! आप घबड़ाइये नहीं, चित को सावधान करके सुनिये। यह विषय आश्चर्यरूप असम्भव नहीं है। अजी ! आप को विकारवान नहीं बनाया जा रहा है, आप इस बात पर तनिक ध्यान तो दें। आपसे कहा क्या गया, यही न, कि 'वह अचिन्त्य शक्ति आपके ही स्वरूप में अखिल प्रपंच का भान करा देती है, तो क्या प्रपञ्च का भान होने से आप विकारी हो गए? जी नहीं, कदापि नहीं । क्या आपने यह नहीं देखा कि जब दिन में दोपहर - मध्याह के समय रेतीली ज़मीन पर सूर्य की किरणें पड़ती हैं, तब वहाँ नद-नदी की प्रतीति होने लगती है, (भौतिक विज्ञान में मरिचिका कहते हैं) तो क्या वहाँ सचमुच ही जल रहता है? क्या वहाँ की पृथ्वी गीली हो जाती है?, कभी नहीं। अजी ! कहीं सूर्य की किरणों में जल होता है ? वहाँ आग सी उष्णता होती है। वहाँ नदी का दिखाई देना तो धूप से चौंधियाये हुए दूषित नेत्रों का ही प्रभाव मात्र है । गुञ्जा- पुञ्ज में भी दूर से अग्नि की कल्पना हो जाया करती है, किन्तु इससे वह गुञ्जे की ढेरी जल नहीं जाती। बस इसी को तो विवर्तवाद कहते हैं, जो पहले भी बताया जा चुका है। विवर्तवाद में यही तो विशेषता है कि कल्पित पदार्थ से अधिष्ठान का कुछ भी नहीं बिगड़ता। उसमें थोड़ा-सा भी अन्तर नहीं पड़ता। इस रीति से आपके अधिष्ठान में सब कुछ हुआ करे, आपको चिंता कैसी, घबड़ाहट कैसी? आप में तनिक भी विकार नहीं आने का। आप अपने आप में मस्त रहें, आप होने और न होने से परे हैं, बनने-बिगड़ने से निराले हैं, आप मुक्त हैं, शाश्वत हैं, शुद्ध हैं, बुद्ध हैं। अब समझ गये न वेदान्त का रहस्य? पाया न उत्तम सिद्धांत ? बस, अब हो गया।
कहना है : - ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः !!
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