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𝗟𝗮𝗻𝗴𝘂𝗮𝗴𝗲

वेदांत , उपनिषद और गीता प्रचारक

कर्मयोग का सिद्धांत

कर्मयोग: कर्म क्या है? अकर्म क्या है?

 कर्मयोग का सिद्धांत: कर्म क्या है? अकर्म क्या है?



इस संसार में लोग भजन को छोड़कर कुछ न कुछ करते हीं हैं। सब अपने हिसाब से पुरुषार्थ ही तो करते हैं। किसान रात दिन मेहनत करके खेत में पुरुषार्थ ही तो करता है। कोई व्यापार में पुरुषार्थ समझता है, तो कोई पद का दुरुपयोग करके पुरुषार्थी बनता है। जीवन भर पुरुषार्थ करने पर भी खाली हाथ जाना पड़ता है। सिद्ध है कि यह पुरुषार्थ नहीं है। शुद्ध पुरुषार्थ है- आत्म साक्षात्कार, जिसके पीछे जन्म मरण का बंधन नहीं है। मन बड़ा चंचल है। यह सब कुछ चाहता है ,केवल भजन नहीं चाहता। जो पुरुष हृदयस्त आत्मा को नहीं जानता, वह पुरुष होते हुए भी नपुंसक है। जीवन का परम लक्ष्य है- आत्म साक्षात्कार करना।
श्री कृष्ण निष्काम कर्म पर बल देते हैं। श्री कृष्ण कहते हैं कि कर्म करो लेकिन फल की चिंता मत करो। कोई देश सेवा को कर्म मानता है, कोई समाज सेवा को कर्म मानता है, और इसी में सकाम निष्काम का भाव रखते हैं। लेकिन श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह कर्ण नहीं हैं। बल्कि इसी लोग का बंधनकारी कर्म है। कर्म तो मोक्ष दिलाता है। कर्म एक ही है- नियत कर्म । नियत कर्म क्या है? नियत आराधना की विधि विशेष है। आराधना भौतिक नहीं बल्कि आंतरिक विधि है। इंद्रियों से ईश्वर आराधना नहीं हो सकती है। मन से , अंतः करण से ईश्वर की आराधना हो सकती है। 
श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्म वो है जो मुक्ति और के जाए। इस निर्धारित कर्म के अलावा जो कुछ भी किया जाता है, वह किसी लोक का बंधनकारी कर्म है।
मुक्ति प्राप्त करने के लिए अनेक अनेक सोपान बताए गए हैं। जिसमें ज्ञान, भक्ति, कर्म ,योग, कुछ महत्वपूर्ण सोपान है, जो मोक्ष दिलाता है। 
आपको ज्ञानमार्ग अच्छा लगे या निष्काम कर्मयोग मार्ग। दोनों मार्गो में तो कर्म करना ही पड़ता है। कर्म ना करने की अपेक्षा कर्म करना ही श्रेष्ठ है। इसलिए कि करते रहोगे तो जन्म और मरण के बंधन से मुक्त हो जाओगे। और कर्म ना करने से आपकी शरीर यात्रा भी सिद्ध नहीं होगी। शरीर यात्रा लोग शरीर निर्वाह करते हैं। कैसा शरीर निर्वाह? क्या आप शरीर हैं? यह पुरुष जन्म जन्मांतर से शरीरों की यात्रा ही तो कर रहा था। अतः कर्म कोई ऐसी वस्तु है जो शरीर यात्रा को सिद्ध कर दे , पूर्ण कर दे। आप शरीर नहीं हैं। शरीर तो आवरण है, रहने का मकान है। इसमें रहने वाला अनुरागपूरित चेतना (आत्मा) है। 
एक धन तो बाहरी है जिससे शरीर निर्वाह की यात्रा सिद्ध होती है। आत्मिक संपत्ति स्थिर संपत्ति है। यदि आप आत्मा को तत्व से नहीं जानते तो आपका अभी सनातन धर्म में प्रवेश नहीं हुआ है। 
यदि आप ऐसा कर्म कर रहे हैं जिससे आप मुक्ति की ओर, सत्य की ओर जा रहे हैं , तो बात सराहनीय है और प्रशंसनीय है। और आप यदि ऐसा कर्म कर रहे जिसे आप बंधन की ओर जा रहे हैं ,अधर्म की ओर जा रहे हैं। तो ऐसे कर्म और जीवन पर धिक्कार है।

1 टिप्पणी

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