बकरा ईद का विरोध क्यों नहीं करते
ऐसा कौन सा खुदा है जो मूक जीवो की हत्या पर बहुत खुश होता है? तुम्हें क्या लगता है, किसी मूक जीव की हत्या करके उसका मांस खा गए इससे क्या आसमानों से फूलों की बरसात होगी? जब पशुबलि की बात की जाती है, तब वास्तव में कहां जाता है, अपने भीतर की पशुता को मारो? अन्यथा बाहर किसी मूक जीव को मारने से कौन सी परम सत्ता , कौन सा ईश्वर खुश होता है? थोड़ा तो बुद्धि का इस्तमाल कीजिए। ऐसे तो स्वर्ग में वही लोग भरे होंगे जिन्होंने रात दिन मच्छर मारे हैं।
बात केवल बकरा ईद की नहीं है, यहां तो प्रतिदिन दूसरे मूक जीवों पर क्रुरता किया जा रहा है। बकरा ईद की कहानी हम भी जानते हैं और उसका मर्म भी अच्छी तरह से समझते हैं। कहानी है कि हजरत इब्राहिम अल्लाह के नेक बंदे थे। अल्लाह ने एक बार उनकी परीक्षा लेनी चाही। अल्लाह ने हजरत इब्राहीम को सपने में बताया कि उनकी सबसे प्यारी चीज उन्हें कुर्बान कर दें। चूँकि हजरत इब्राहीम आर्थिक रुप से गरीब आदमी थे, इसलिए उन्होंने कहा कि मेरे लिए सबसे प्यारी चीज मेरा इकलौता बेटा हजरत इस्माइल है। अतः उन्होंने निश्चय किया कि वह अल्लाह की राह में अपने इकलौते बेटे हजरत इस्माइल को कुर्बान करेंगे। हजरत इब्राहीम अपने बेटे हजरत इस्माइल की कुर्बानी देने ही वाले थे कि तभी अल्लाह के फरिश्ते आकर के बेटे को हटाकर एक बकरे की कुर्बानी दे दिया। तब से बकरा ईद मनाया जाता है।इस पूरी कहानी का मर्म समझिए। जब अल्लाह ने हजरत इब्राहिम से कहा कि तू अपनी सबसे प्यारी चीज मुझे कुर्बान कर दे। इस कथन से अल्लाह ये कहना चाहते थे कि इब्राहिम! तुझे जिस-जिस वस्तु से आशक्ति है। जिस जिस वस्तु से तुझे लगाव है। जिस-जिस वस्तु से तुझे मोह है, उस उस वस्तु से अपनी आशक्ति , लगाव, मोह को त्याग दें। और जब अल्लाह ने हजरत इस्माइल की जगह पर बकरे की कुर्बानी करी तो उनका मतलब था कि अल्लाह के सभी बंदो को अपने अंदर की पशुता को मारना है। लेकिन जाहिलों ने इसका अलग ही अर्थ निकाला। इन जाहिलों ने तो दूसरे मूक जीवों की हत्या करके अल्लाह को कुर्बान करने की बेवकूफी की।
जिस अल्लाह ने तुम्हें बनाया है और समस्त संसार को बनाया है, उसने उस मूक जीव को भी बनाया है जिसको तुम मारकर खा गए। और कौन सा ऐसा खुदा है, जो दूसरों की हत्या पर ,दूसरों पर हिंसा पर, दूसरों पर क्रुरता करने पर खुश होता है।
जो भी मनुष्य माँस ,मदिरा, इत्यादि का सेवन करता है, उसे आप राक्षस ही जानो। फिर वो चाहे से स्वयं को पंडित, मौलाना ,हिंदू ,मुस्लिम, सिख इसाई, कुछ भी कहे। उसे तुम राक्षस ही मानो।
माँसाहार पर इन जाहिलों का तर्क भी आता है कि शेर भी तो मांस खाता है। मैं उन जाहिलों से पूछता हूं कि क्या तुम शेर हो? यदि तुम स्वयं को शेर से तुलना कर रहे हो, तो तुमको और शेर को आमने-सामने खड़ा कर दिया जाए। जो बचेगा वही शेर।शेर तो शादी नहीं करता, जंगल में रहता है, शेर कपड़ें नहीं पहनता, शेर पानी को जीभ से चाट कर पीता है, तुम तो ऐसा नहीं करते।
शेर तो आदमी को भी कच्चा खा जाता है ,तुम क्यों नहीं करते?
शेर को बोध नहीं होता, उसके अंदर कोई भावना नहीं है। उसे यदि मुक्ति नहीं मिली , तो उसके लिए बहुत बड़ी बात नहीं हो गई। लेकिन तुम शेर नहीं हो, तुम्हारे अंदर विवेक है, बुद्धि है, भावनाएं हैं।
इन जाहिलों का तर्क आता है, कि पेड़ में भी तो जान होती है, उसे भी तो दर्द होता है। तुम भी तो पेड़ को मारकर खाते हो। मैं उन जाहिलों को बताना चाहता हूं कि पेड़ में वह ग्रंथि नहीं पाई जाती जो दर्द की सूचना देती है। इसलिए पेड़ को दर्द नहीं होता। पेड़ में चेतना का स्तर बहुत कम होता है। पेड़ को खाने में हिंसा बहुत कम है। इसलिए जब पेड़ की पत्तियों अथवा फल को आप तोड़ते हो, तब उनको दर्द की अनुभूति नहीं होती है क्योंकि उनमें वह ग्रंथि पाई ही नहीं जाती जो दर्द की सूचना को पहुंचाती हो।
मेरा उन जाहिलों से अनुरोध है कि ऐसे मूर्खतापूर्ण तर्क देना बंद करो।
बकरा ईद की वास्तविक मर्म को समझिए। निर्दोष मूक जीवो पर क्रुरता करना बंद करें। पशुबलि का वास्तविक अर्थ समझिए। माँसाहार बंद कीजिए।