प्रस्तावना- नमस्कार! इस लेख के माध्यम से हम जानेंगे कि कैसे एक भोगी राजा योगी बन गया। जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ भृतहरि की। उन्हें भी एक समय स्त्री में बड़ा सुख दिखता था जैसा कि आज कल के हर एक युवाओं में स्वभाविक होता है। हम आज जानेंगे कि कैसे कामवासना से ग्रस्त राजा योगी संयासी हो गया? और ये भी बात करेंगे कि आप भी अपने जीवन में कामवासना से कैसे मुक्ति पा सकते हैं? हम सबकी दशा राजा भृतहरि जैसी ही है कामनावासनाग्रस्त।
प्रश्न्न- वासना क्या है?
समाधान- अंधेपन का नाम है वासना। बेहोशी का नाम है वासना। वासना का अर्थ है विवेक खो देना। बेहोशी में जीने का नाम है वासना। वासना आंखों पर पर्दा डाल देती है, पता ही नहीं चलता कि क्या सही है क्या गलत है? आप कोई चीज खरीदते हो, जो आपको वास्तव में बहुत जरूरी है, तो यह वासना नहीं, ये आवश्यकता है, शारिरिक आवश्यकता है , भौतिक आवश्यकता है। लेकिन जब आप कोई चीज इसलिए खरीदते हो क्योंकि आपके पास पैसा है, आपको उस वस्तु की आवश्यकता नहीं है, परंतु आपके पास पैसा है इसलिए आप खरीदते हो तो ये वासना है।
आपकी शारीरिक तल की जरूरतें हैं खाना, सोना, आराम करना। विषय गलत नहीं है विषयों में आसक्ति गलत है। यदि आप शरीर को खाना नहीं खिलाते तो शरीर स्वयं को खाना शुरु कर देता है, तो खाना गलत कैसे हो गया, खाना गलत नहीं है पर खाने में आसक्ति गलत है। वासना और कुछ होता नहीं आवश्यकताओं को जब आप ज्यादा महत्व दे देते हैं तो वही वासना का रूप ले लेती है। शरीर की अपनी कुछ आवश्यकताएँ हैं खाना , कपड़ा, घर ,सेक्स, आदि। खाना गलत नहीं है पर खाने में आसक्त होना गलत है, आपको क्या लगता है कि भोगी 56 प्रकार के भोग विलास करता है और योगी भूखा रहता है? परंतु भोगी खाने को बहुत ज्यादा महत्व दे देता है इसलिए वह भोगी कहलाता है, योगी भी खाना खाता है पर उसको एक आवश्यकता के रूप में। ठीक इसी प्रकार कपड़े भी हैं कि शरीर को ठंड लगती है, गर्मी लगती है, अन्य ऋतुओं का प्रभाव होता है भौतिक शरीर पर। इसीलिए योगी शारीरिक तल पर भौतिक आवश्यकता के रूप में वस्त्र धारण करता है। परंतु भोगी उसमें आसक्त होकर प्रवृत्त होता है इसलिए वो गलत है। ठीक इसी प्रकार भोगी शरीर का उपयोग करके शरीर में आसक्त होकर आनंद खोजता है। वासना ना गलत है, ना सही है। जब आप अपनी आवश्यकताओं को बहुत ज्यादा महत्व दे देते हैं , तो वही आवश्यकताएँ वासना का रूप ले लेती हैं।
प्रश्न्न- क्या वासना मुक्त जीवन संभव है?
समाधान - अपनी आवश्यकताओं को अधिक महत्व देकर तुमने उसे वासना का रूप दे दिया और अब पूछते हो कि वासना से मुक्ति संभव है कि नहीं है? वासना मुक्त जीवन बिल्कुल संभव है किंतु आवश्यकता मुक्त जीवन कभी संभव नहीं है। शरीर एक वाहन उस वाहन का उपयोग करो मंजिल तक पहुँचने के लिए , परंतु वाहन में ही आसक्त हो जाओ, वाहन को ही घूरते रहो, ये कहाँ की समझदारी है? साँस योगी भी लेता है और भोगी भी लेता है, खाना भोगी भी खाता है और योगी भी खाता है , कपड़ा योगी भी पहनता है और वह भोगी भी पहनता है, परंतु भोगी के पहनने में और योगी के पहनने में अंतर है? योगी कपड़े पहनता है क्योंकि उसके शरीर में ठंड लगती है, परंतु भोगी पहनता है क्योंकि उसे लोगों को दिखाना है उसे लोगों में इज्जत तो सम्मान चाहिए। भोगी आसक्त है वस्त्र में, स्त्री में , धन में।
जिन्हें कामवासना से मुक्ति चाहिए वह अपनी वासना को दबाने की कोशिश न करें। क्योंकि वासनाओं को दबाने से वे और भड़क जाती हैं। वासना को समझ लो, तो वासना से आजाद हो जाओगे और नहीं समझोगे तो बार-बार उसी में अटके रहोगे।
वही हाल होगा तुम्हारा धोबी के कुत्ते जैसा, जो ना घर का है न घाट का है। कामवासना का पूरा विषय समझ लो मुक्त हो जाओगे, नहीं समझोगे तो पिपासा बनी रहेगी , बार-बार उसी गढ्ढे में गिरोगे। भृतहरि भी कभी तुम्हारी तरह ही कहते थे कि सुंदर सुंदर स्त्री , आकर्षक रेशमी बाल, और ना जाने क्या-क्या कल्पनाएँ कर रहे थे। और सच्चाई जानने के बाद दिल ऐसा टूटा, नींद ऐसी खुली कि जाकर सीधे वैराग्य में आ कर रुके। हमारे मन की कल्पनाएँ हमें बेचैन करती हैं। कल्पना में कष्ट है ,दुख है, पीड़ा है , जबकि वास्तविकता में ,सच्चाई में, अक्षय सुख है , आनंद है।
ध्यान रहे समाज में स्त्री उसको कहा जाता है जो लैंगिक रूप से स्त्री है। लेकिन अध्यात्म में स्त्री मनुष्य के स्वभाव को कहा जाता है। शरीर तो केवल वस्त्र है , रहने का मकान है। शरीर की आकार में भिन्नता से चेतना में कोई फर्क नहीं पड़ता। चेतना तो सब में एक जैसा ही है।
प्रश्न्न- ब्रह्मचर्य को लेकर बड़ा भ्रम है कि जनन इंद्रियों के संयम से ही ब्रहमचर्य होता है।
समाधान - ब्रह्मचर्य का अर्थ जननांगों के संयम से बिल्कुल नहीं होता है। ब्रह्म आचरति सा ब्रह्मचर्य। अर्थात ब्रह्म में आचरण ही ब्रह्मचर्य है। सच्चाई में , यथार्थ में, जीने का नाम है ब्रह्मचर्य। होशपूर्वक जीवन का नाम है ब्रह्मचर्य जीवन। एक काम संसारी झूठाई में ही जीता है, भ्रम में ही जीता है।
संसारियों को सबसे बड़ा भ्रम यही रहता है कि विषयों को भोगने से आनंद प्राप्त होता है। जबकि सच्चाई ये है कि विषयों को हम नहीं भोगते , विषय हमें भोगते हैं, हम समय व्यतीत नहीं कर रहे हैं समय हमें व्यतीत कर रहा हैं। हम सुख की लालच में जीवन खराब कर देते हैं, जीवन खत्म हो जाता है, शरीर बूढ़ा हो जाता है, मरते मरते भी हमारा लालच नहीं छूटता। चेहरे पर झुर्रियां पड़ जाती हैं, बाल सफेद हो जाते हैं, हाथ पैर कँपने लगते हैं, किंतु अभी भी लालच और इच्छा नहीं मिटती। ना तो अधिक समय तक विषय भोग ही स्थिर रहेंगे, और ना ही इंद्रियों में क्षमता ही रहेगी उन्हें भोग ने की, लेकिन फिर भी मनुष्य अज्ञानतावश चेतता नहीं है। जो सुख धन, स्त्री, पुत्र, आदि में दिखते हैं वे भी सारहीन हो गये क्योंकि अंत में वह भी दुख का कारण बन जाते हैं। संसार के विषय भोग कितने ही दिन तक भोगते रहोगे, एक दिन वैसे ही छूट जाएँगे, इसलिए अच्छा तो यही है कि स्वयं से इन सबको छोड़ दो, इससे मन हल्का होगा, गहन शांति मिलेगी।
और जो स्वयं से नहीं छोड़ते ,उसे उस दिन बहुत दुख होता जिस दिन ये सब छूटते हैं।
इसीलिए जब पत्नी मरती है , तो पति रोता है और जब पति मरता है तो पत्नी रोती है। जब पुत्र मरता है तो पिता रोता है, और पिता मरता है तो पुत्र रोता है। क्योंकि लोगों ने दूसरों से संबंध बनाया ,दूसरों से तादात्य्म जोड़ा, लेकिन स्वयं से कभी संबंध बनाया नहीं, आत्मा से कभी नाता जोड़ा नहीं।
धन्य हैं वो लोग जिन्होंने आत्मा से नाता बना लिया। शरीर से क्या संबंध बनाना? यह तो हड्डियों से पिरा हुआ माँस का गुच्छा है, भला इसमें क्या सुंदरता होगी? अरे इस चमड़ी को क्या चाटना? जिसके ठीक पीछे मल, मूत्र, मवाद,अस्थि, मज्ज़ा , रुधिर भरें हैं। भूख लगने पर मनुष्य भोजन खा लेता है, प्यास लगने पर जल पी लेता है, ये मात्र शारीरिक व्यवस्था है परंतु मूर्ख मनुष्य इसमें ही सुख ढूढ़ने लगता है। मूर्ख लोग सोचते हैं कि मेरे पास स्त्री है ,धन है, विषय भोग है , मैं भी जवान हूँ , उन मूर्ख लोगों को ख्याल ही नहीं आता कि यह सब बने नहीं रहेंगे, वासना में लिप्त होने के कारण उनका विवेक काम नहीं करता। किंतु धीर लोग विषय भोग को अनित्य और क्षणभंगुर जानकर स्वयं से ही त्याग देते हैं और परम शांति को प्राप्त होते हैं। यहाँ सुख कहाँ है? मां के गर्भ में ही मल मूत्र के बीच रहना पड़ता है, जवानी में प्रेमिका से बिछड़ जाने का दुख रहता है, बुढ़ापे में शरीर कमजोर होने का दुख है।
बुढ़ापा शेर की तरह सामने खड़ा है, शरीर में तरह-तरह के रोग घेरने लगें हैं , जीवन ऐसे व्यतीत हो रहा है जैसे फूटे हुए घड़े का पानी व्यर्थ ही इधर उधर बह रहा हो। सांसारिक सुख विषय भोग पानी के बुलबुले के समान क्षणभंगुर हैं। अगले पल का भी ठिकाना नहीं। जो है सब अभी है अगले पल का पता नहीं कि शरीर रहे कि न रहे? जानी भी समुद्र की लहरों की तरह है जो कब उठी और कब गिरी ? फता भी नहीं चला। इसलिए बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि वो इन सब प्रपंचों में ना पड़कर ज्ञान प्राप्ति का यत्न करे। ये जवानी , ये वासनाएँ, समुद्र की लहरों के समान क्षणभंगुर है, अनित्य, नाशवान है, इसीलिए धीर पुरुष को चाहिए कि इन झूठी व नाशवान चीजों की पीछे ना पड़कर सच की तलाश करे। ज्ञान प्राप्ति के लिए यत्न करें। यहाँ सुख इत्यादि किसको मिलता है? इसीलिए संसार सागर से तरने के लिए पुरुष को चाहिए कि वह परम ब्रह्म परमात्मा में चित्त को लगावे। जिसने उस परमात्मा को जान लिया उसने संपूर्ण चराचर जगत को जीत लिया। जिसने परमात्मा का स्वाद चख लिया , उसे दुनिया के हर विषय भोग स्वादहीन लगेंगे। जिसने राम का रस पी लिया, उसे दुनिया की हर रस फींकी लगने लगेगी।
एक एक दिन उम्र के साथ घटती जाती है, दुनिया के धंधों में लगे रहने के कारण पता ही नहीं चलता कि समय कैसे व्यतीत होते हैं। लोग मोह रूपी दल दल से निकल नहीं पाते। जन्म से लेकर मरण तक दुख ही दुख भोगते हैं और अंततः वह घड़ी भी आ जाती है कि जब मौत आ जाती है मुक्ति नहीं आती है। बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि शरीर की शिथिल होने से पहले, बुढ़ापे के आने से पहले और जवानी के धलने से पहले, परब्रह्म परमात्मा प्राप्ति के लिए साधना करे। नहीं तो ऐसे ही होगा की मौत दरवाजे पर खड़ी है और तुम मुक्ति के लिए व्याकुल हो। जो कुछ करना है, अभी निपटा लो, अभी समय है, कल का क्या पता रहो कि न रहो? इसीलिए जो करने योग्य है वही करो। करने योग्य कर्म क्या है ? इस अह़कार को मिट जाने दो यही एक मात्र करने योग्य किया है, क्योंकि जैसे जैसे अहंकार मिटेगा , वैसे वैसे परमात्मा उपलब्ध होंगे। ये अहंकार ही है जो कभी स्त्री की तरफ भागता है कभी अन्य विषय भोग की तरफ भागता है। इसलिए करने योग एक क्रिया है कि इस अहंकार को मिट जाने दो। इस मन को मिट जाने दो। योग, साधना ,जप, तप, भजन, ज्ञान , आदि जिससे भी संभव हो इस अहंकार को मिटाना, उसी से अहम् को मिटा जाने दो।
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