उपनिषद के मूल प्रश्न
ब्रह्म क्या है ? ईश्वर कौन है ? जीव कौन है ? प्रकृति क्या है ? परमात्मा कौन है ? ब्रह्मा कौन है ? विष्णु कौन है ? रुद्र कौन है ? इन्द्र कौन है ? यम कौन है ? सूर्य कौन है ? चन्द्र कौन है ? देवता कौन हैं ? असुर कौन हैं ? पिशाच कौन हैं ? मनुष्य क्या हैं? स्त्रियाँ क्या हैं ? पशु आदि क्या हैं? स्थावर (जड़) क्या है ? ब्राह्मण आदि क्या हैं ? जाति क्या है ? कर्म क्या है ? अकर्म क्या है ? ज्ञान और अज्ञान क्या हैं ? सुख-दुःख क्या हैं? स्वर्ग-नरक क्या हैं? बंधन और मुक्ति क्या हैं ? उपासना करने योग्य कौन है ? शिष्य कौन है ? विद्वान् कौन है ? मूर्ख कौन है ? असुरत्व क्या है ? तप क्या है ? परमपद किसे कहते हैं ? ग्रहणीय और अग्रहणीय क्या हैं? संन्यासी कौन है ?
उन्होंने कहा कि महत् तत्त्व, अहं, पृथिवी, आप, तेजस्, वायु और आकाश रूप बृहद् ब्रह्माण्ड कोश वाला, कर्म और ज्ञान के अर्थ से प्रतिभासित होने वाला, अद्वितीय, सम्पूर्ण (नाम रूप आदि) उपाधियों रहित, सर्व शक्तिसम्पन्न, आद्यन्तहीन, शुद्ध, शिव, शान्त, निर्गुण और अनिर्वचनीय चैतन्य स्वरूप परब्रह्म कहलाता है। अब ईश्वर के स्वरूप का कथन करते हैं।
यही ब्रह्म जब अपनी प्रकृति (शक्ति) के सहारे लोकों का सृजन करता है और अन्तर्यामी स्वरूप से (उनमें ) प्रविष्ट होकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा बुद्धि और इन्द्रियों को नियन्त्रित करता है, तब उसे ईश्वर कहते हैं।जब इस चैतन्य स्वरूप ईश्वर को ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तथा इन्द्रादि नामों और रूपों के द्वारा देह का मिथ्याभिमान हो जाता है कि मैं स्थूल हूँ, तब उसे जीव कहते हैं। यह चैतन्य 'सोऽहं' स्वरूप में एक होने पर भी शरीरों की भिन्नता के कारण 'जीव' अनेकविध बन जाता है। प्रकृति उसे कहते हैं, जो ब्रह्म के सान्निध्य से चित्र-विचित्र संसार को रचने की शक्ति वाली तथा । ब्रह्म की बुद्धिरूपा शक्ति वाली है। देहादि से परे रहने के कारण ब्रह्म को ही परमात्मा कहते हैं। यही परमात्मा ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, यम, सूर्य और चन्द्र आदि देवता के रूप में; यही असुर, पिशाच, नर-नारी और पशु आदि के रूप में प्रकट होता है; यही जड़ पदार्थ और ब्राह्मण आदि भी है। यह समस्त विश्व ही ब्रह्म है, इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। जाति ( शरीर के चर्म, रक्त, मांस, अस्थियों और आत्मा की नहीं होती। उसकी (मानव, पशु-पक्षी या ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि जाति की) प्रकल्पना तो केवल व्यवहार के निमित्त की गई है। इन्द्रियों द्वारा की जाने वाली क्रियाओं को कर्म कहते हैं। जिस क्रिया को 'मैं करता हूँ इस भावपूर्वक (अध्यात्म निष्ठा से ) किया जाता है, वही कर्म है। कर्त्तापन और भोक्तापन के अहंकार के द्वारा फल की इच्छा से किये गये बन्धन स्वरूप नित्य नैमित्तिक यज्ञ, व्रत, तप, दान आदि कर्म अकर्म' कहलाते हैं।सृष्टि की सभी बदलने वाली वस्तुओं में एक ही अपरिवर्तनशील चैतन्य तत्त्व विद्यमान है, अन्य कुछ भी नहीं है, द्रष्टा और दृश्य जो कुछ भी है। इसी साक्षात्कार की अनुभूति को ज्ञान कहते हैं । यह अनुभूति शरीर और इन्द्रिय आदि पर नियंत्रण रखने से और सद्गुरु की उपासना, उनके उपदेशों के श्रवण, चिन्तन, मनन और निदिध्यासन करने से होती है।
सत्-चित्-आनन्द स्वरूप परमात्मा के ज्ञान से जो आनन्दपूर्ण स्थिति बनती है, वही सुख है। अनात्म रूप (नश्वर) विषयों का सङ्कल्प (विचार) करना दुःख कहलाता है। सत् का ( अनश्वर का) समागम (सत्पुरुषों का सत्संग) ही स्वर्ग है। असत् (नेश्वर) संसार के विषयों (में रचे-पचे लोगों) का संसर्ग ही नरक है। अनादि अविद्या की वासना (संस्कार) द्वारा उत्पन्न इस प्रकार का विचार कि 'मैं हूँ,' यही बन्धन है।माता-पिता, भ्राता, पुत्र, गृह, उद्यान तथा खेत आदि मेरे अपने हैं, यह सांसारिक विचार भी बन्धन ही हैं।
कर्तापन के अहंकार का संकल्प भी बन्धनरूप है।
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अणिमा आदि (अणिमा, लघिमा, महिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व ये अष्ट सिद्धियाँ अथवा ऐश्वर्य हैं) आठ ऐश्वर्यों को प्राप्त करने का संकल्प भी बन्धन है। मनोकामना की पूर्ति के संकल्पपूर्वक की गई देवताओं और मनुष्यों की उपासना भी बन्धन रूप है।
जब नित्य और अनित्य वस्तुओं के विषय में विचार करने से नश्वर संसार के सुख-दुःखात्मक सभी विषयों से ममतारूपी बन्धन विनष्ट हो जाएँ, उस (स्थिति) को मोक्ष कहते हैं। समस्त शरीरों में स्थित, चैतन्य स्वरूप ब्रह्म को प्राप्त कराने वाला गुरु ही उपास्य (पास बैठने योग्य) है। जिसके हृदय में विद्या द्वारा नष्ट हुए जगत् के अवगाहन से उत्पन्न ब्रह्म रूप ज्ञान शेष रहे, वही शिष्य है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥