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𝗟𝗮𝗻𝗴𝘂𝗮𝗴𝗲

वेदांत , उपनिषद और गीता प्रचारक

आत्म ज्ञान

वेदांत अपनाओ समस्त दुखों से मुक्ति पाओ



ऐ भोले जीव ! उठो ! जागो !! अज्ञान-निद्रा को त्यागो !!! प्यारे ! इस अज्ञान निद्रा में भ्रान्ति की शय्या पर पड़े हुए कब तक घर्राटें लगाते रहोगे ? पड़े-पड़े क्यों सड़ रहे हो ? तुम मनुष्य, पशु, पक्षी नहीं हो; तुम्हारा रूप परिच्छिन्न नहीं है; तुम अपने को साढ़े तीन हाथ की काल कोठरी रूपी शरीर में क्या बंद किये हुए हो ? प्यारे ! तुम अपने अखण्ड स्वरूप का ध्यान करो । संसार में कोई भी ऐसी शक्ति नहीं, जो तुम्हें सीमित कर सके; कोई भी ऐसा कानून नहीं, जो तुम्हारी मर्यादा को भंग कर सके; काल की मजाल नहीं कि तुम्हें मार सके; मृत्यु तो तुम्हारे भय से काँप रही है; यमराज तुम्हारे शासन में है; सूर्य-चन्द्र-तारे आदि तुम्हारे ही इशारे से आकाश के लट्टू हो नाच रहे हैं; वायु तुम्हारे लिए पंखे का काम दे रही है; वृक्षों की पत्तियाँ भी तुम्हारी ही आज्ञा से हिल रही हैं; उषाकाल की लाली का उदय तुम्हारे ही लिये होता है; तुम्हारी प्रसन्नता की ही कांति के देखने को पुष्प वाटिकायें प्रतिदिन खिला करती हैं; अधिक क्या कहें? यह समस्त ब्रह्माण्ड तुम्हारा ही मुखोपक्षी बन रहा है। सबके शासक, सबके संचालक बस तुम हो। तुम अपने सत्यरूप का अनुभव करो, उसे पहचानो, तब देखोगे कि यह बात यथार्थ है या नहीं ? यथार्थ तो है ही। संसार के समस्त नियम चाहे टूट जायँ, अग्नि भले ही शीतल हो जाय, चन्द्रमा चाहे अग्नि की वर्षा करने लग जाये। लेकिन आत्मा कभी नहीं बदलता वह सदैव एक सा रहता है। ऐ अविवेकी जीव ! ठीक यही दशा, तुम्हारी भी है । तुम तो अपने सुख-स्वरूप में निद्वंद्व विचरनेवाले थे। वहाँ न तो मोह था। और न शोक ही था; वहाँ तो संताप अग्नि का कुछ चारा ही न चलता था, अविद्या की दाल ही न गलती थी । वहाँ तुम तो स्वमेव अकेले निज प्रकाश से प्रकाशित थे, परन्तु तुमने प्रथम ही स्वयमेव अपने में विद्या की कल्पना की और तुम अपने को भूल गये । अपने को भूलते ही तुम्हें अन्य बुद्धि-प्रतीति ऐसे ही होने लगी, जैसे मूढ़ पुरुष को अन्धकार में अज्ञान से रस्सी में सर्प का भान होने लगता है । फिर तुमने उस बुद्धि में अपने अविनाशी चैतन्य स्वरूप के प्रतिबिंब को देखा और उसी को अपना सच्चा रूप मान लिया। अब तो तुमने बुद्धि के कर्तृत्व-भोक्तृत्वादि धर्मों को अपने में आरोपित कर लिया और लगे प्रपञ्च को देखने। अजी ! तुमने तो बुद्धि के धर्मों में ऐसा गहरा गोता लगाया कि अपने अक्रिय और असंग रूप को एकदम खो बैठे, जिससे कालरूपी बहेलिये, ने तुम्हें पकड़ कर मोह की रस्सी से बाँध लिया और लगा वह तुम्हें चौरासी लक्ष योनियों में नचाने। तुम बन्धन में पड़े-पड़े छटपटाते हो, कराहते हो, चीखें मारते हो; परन्तु तुम्हें बन्धन से कोई भी मुक्त नहीं करता, सुख नहीं पहुँचाता । कभी-कभी तुम्हें विषयोपभोगरूपी दाना-पानी भी मिल जाता है, परन्तु उससे तुम नितान्त सतुष्ट और पूर्णतया सुखी नहीं होते, होओ भी कहाँ से।

'सो मूरख, सुख - हेतु जो, करत विषय की आस । यथा तृषित नर श्रोस - कन, चाटि बुझावै प्यास ||" 


अरे ! कभी ओस-कण से भी प्यास बुझायी जा सकती है? कभी नहीं । प्यारे! तुम्हारा बन्धन टूटे तो कैसे टूटे ? तुम्हारा दुःख दूर हो तो कैसे हो? क्या सत्य है कि किसी ने तुम्हें बाँध रखा है ? कभी नहीं । तुम तो यह सब अज्ञान निन्द्रा में ही देख रहे हो। यह सब तुम्हारा मानसिक भ्रम - विलास है, तुम अभी अपना होश सँभालो, अपने को विचारों, अपना ज्ञान प्राप्त करो, तुम्हारा सम्पूर्ण दु:ख छूट जायगा, और तुम सुखी हो जाओगे ।

ऐ मेरे अविनाशी आत्मन् ! ऐ मेरे सच्चे स्वरूप ! -तनिक सोचो तो सही, राम की बातों पर कुछ ध्यान तो दो,' यहाँ तुम्हारे अतिरिक्त और है ही कौन ! तुम्हारे अद्वितीय स्वरूप में यह प्रपञ्च आ कहाँ से गया। अरे ! यह सब जगत तुम्हारा ही रूप है, तुम्हारा ही प्रतिबिम्ब है, तुमसे भिन्न कुछ भी नहीं। तुम अपनी ही छाया को देखकर शोक क्यों करते हो? तुम्हारी दशा तो ठीक वैसी ही हो रही है, जैसी उस बालक की होती है, जो अपनी ही छाया को प्रेत समझकर भयभीत हो चिल्लाता और भागता है। शिला में अपने ही रूप को देखकर बाज़ यह जानकर कि यह कोई दूसरा पक्षी है, उस पर बड़े जोरों से टूट पड़ता है और चोंच मारता है, बस, उस पत्थर से टकरा कर उसकी चोंच टूट जाती है, तब तो वह बहुत दुःखी होता है। इसी प्रकार काँच के घर में गया हुआ कुत्ता उसकी दीवार में अपनी ही छाया को कोई दूसरा सच्चा कुत्ता जानकर बड़े ज़ोरों से भूँकना शुरू करता है, जब उसकी आवाज़ उस महल में टकराती है, तब तो बड़ी भारी आवाज़ ( प्रतिध्वनि) होने लगती है, उस आवाज़ के सुनते ही बेचारा कुत्ता और भी ज़ोर-ज़ोर से भूकने लगता है, तब तो वहाँ और भी भारी आवाज़ होने लगती है, फिर उस भयंकर शब्द को सुनकर कुत्ता बेचारा डर जाता है और भूँकते हुए इधर-उधर दौड़ने लगता है, तब तो उसे चारों ही ओर से कुत्ते ही कुत्ते (छाया के) दिखलाई देने लगते हैं, जिससे वह कुत्ता यह समझकर व्याकुल हो जाता है कि ये कुत्ते मुझे अब छोड़ेंगे ही नहीं, बल्कि काट खायेंगे, बस वह खूब ज़ोर-ज़ोर से भूँ -भूँ कर करके तथा छटपटा-छटपटाकर गिर पड़ता है और बेहोश होकर मर जाता है। सिंह की भी यही दशा होती है। जब सिंह किसी कुएँ में अपनी परछाँही देखता है, तब उसे दूसरा असली सिंह जानकर उस कुएँ में कूद पड़ता है और डूबकर अपनी जान गवाँ देता है । 

 बाज़ लख्यो निज छाँह, शिला जिमिजानि विहंगम चोंच नसायो । कॉच-गृहे लखि रूप निजै, जिमि स्वानहुँ जीवन भूँ किगवाँयो । कूप मैं कूदि मरयो वह सिंह, जा आपुहिं को मन आन वसायो । 'राम'लख्या जग को निजसे जद भिन्न तवैदुख - जाल फँसाये ॥

प्रिय आत्मन् ! यदि तुम यह जान जाओ कि जैसे सीपी में की कल्पित चाँदी सीपी से भिन्न नहीं होती, वैसे ही मुझ सच्चिदानन्द-रूप ब्रह्म में का कल्पित जगत मुझसे भिन्न नहीं है, तब तुम्हें कौन बाँधने तथा छुड़ने वाला रह जायगा ! तुम किससे राग या द्वेष करोगे ? तुममें मोह और शोक कहाँ रह जायेंगे | अजी ! तब तो तुम निखिल द्वन्दों और दुःखों से मुक्त हुए परमानन्द का ही उपभोग करोगे अथवा आनन्द की मूर्त्ति ही बन बैठोगे । ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः !!!



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2 टिप्पणियां

  1. Thank you
  2. Acche tarike se varnan Kiya Gaya hai dhanyvad sar ji Vedant ke liye
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