न कर्मकांड से मुक्ति मिलेगी, ना पूजा पाठ से मुक्ति मिलेगी , न दान से मुक्ति मिलेगी, न तप से मुक्ति मिलेगी, मुक्ति केवल और केवल ज्ञान से मिलती है।
संसार की नश्वरता का वर्णन
संसार को लेकर क्यों शोक करते हो? ये जड़ शरीर पांच तत्वों से मिलकर बना है,तथा नाशवान है। जब शरीर ही क्षणभंगुर है तब इसके विषय भोग कहाँ तक साथ देंगे? किंतु मूढ़ बुद्धि वाले संसारिक मनुष्य विषय भोग के पीछे भागते हैं और थक जाते हैं और व्याकुल रहते हैं। इंद्रियों को सुख , दुख देने वाले विषय भोग अनित्य हैं, क्षणभंगुर हैं, नाशवान हैं, इसीलिए बुद्धिमान पुरुष विषयों के पीछे नहीं भागते। ना तो लंबे समय तक विषय भोग रहने वाले हैं, और ना ही लंबे समय तक इंद्रियों में क्षमता ही रहेगी उन्हें भोगने की। इसीलिए धीर पुरुष विषय भोग से मोहित नहीं होते।
ब्रह्म विद्या का निरुपण
आत्मा तो निर्लेप, सर्वत्र, परिपूर्ण, सच्चिदानंद स्वरुप है। आत्मा ना तो कभी जन्म लेता है, और ना ही मरता है। जिस प्रकार सूरज संपूर्ण संसार की नेत्र रूप में स्थित है, किंतु नेत्र में दोष आ जाने से सूरज का कुछ नहीं बिगड़ता। सूर्य को कोई अपवित्र नहीं कर सकता, सूर्य को आंखों से देखा नहीं जा सकता, सूर्य में कोई दोष नहीं डाल सकता। इसी प्रकार तीनो कालो में आत्मा भी लिप्त ,अपवित्र या दूषित नहीं हो सकता।
ये भौतिक शरीर नश्वर है, सारा संसार मिट जाएगा लेकिन सत्य तब भी रहेगा। आत्मा ही एकमात्र सत्य है।
चेतावनी!
यहाँ पाठक सावधानी से पढ़ें। ये जीव न स्त्री है ,ना पुरुष है, न नपुंसक है। ये शरीर वस्त्र मात्र है ,रहने का मकान है, आप शरीर नहीं हैं। अपने आप को शरीर मानना मूढ़ता है। जब आत्मा अद्वैत और असंग है। जब आत्मा सर्वत्र है, आत्मा ही एकमात्र सत्य है, बाकी सब मिथ्या है, तब स्त्री पुरुष का, गरीब अमीर का, छोटी जाति - बड़ी जाति का संप्रदाय का भेदभाव कैसा? जब आत्मा ही एकमात्र सत्य है तो यह भेदभाव तो झूठा है। वस्तुतः हमारी इंद्रियाँ बहिर्मुखी है। इसलिए हमारी दृष्टि भौतिक दृष्टि रहती है, हम आंतरिक चेतन दृष्टि नहीं रखते हैं। संसार में प्रचलित जितने भी भेदभाव हैं वो सब बहिर्मुखी इंद्रियों के आधार पर है। ज्ञानी कि आत्मदृष्टि होती है और अज्ञानी की चर्मदृष्टि होती है। इसीलीए संसारी मनुष्य जब किसी को देखता है , तो उसकी भौतिक दृष्टि होने के कारण भेदभाव होता है।
ऐसा मनुष्य शरीर वाला जीव किसी को स्त्री बोलता है , किसी को पुरुष बोलता है, किसी को अमीर बोलता है, किसी को गरीब बोलता है, किसी को राजा बोलता है, किसी को प्रजा बोलता है। किंतु ज्ञानी की आत्म दृष्टि(आन्तरिक) होती है। इसीलिए वह सर्वत्र आत्मा ही व्याप्त देखता है और शोक और मोह से रहित हो जाता है।
मन,बुद्धि ,चित्त, अंहकार - ये चारों भेद अंतकरण में आते हैं। संसारी मनुष्य दुख इसलिए भोगता है क्योंकि वह विषयों के पीछे पड़ता है। जब जीव विषयों में लिप्त होता है, तभी उसे सुख और दुख का अनुभव होता है। अहंकार से उत्पन्न काम, क्रोध, मोह ,लोभ, मात्सर्य - ये महा शत्रु हैं। यही अहंकार मनुष्य को जागृत और स्वप्न अवस्था में दुख देता है। और सुषुप्त आस्था में अहंकार के अभाव में मनुष्य आनंद प्राप्त करता है। अर्थात जैसे कोई गहरी नींद में सोया हो कि सुषुप्ति अवस्था आ गई, उस समय जीव आनंद में रहता है, क्योंकि उस समय ना तो कोई इच्छाओं का दबाव होता है, ना अहंकार होता है। इसीलिए तत्वज्ञान से कोई भी दुख का भागी नहीं होता है। और अहंकार के नाश से तत्वज्ञान सिद्ध होता है। तत्व क्या है? परमात्मा ही एकमात्र तत्व है। आत्मा , परमात्मा ,ब्रह्म, मोक्ष , एक दूसरे से पर्याय हैं।
पूरी बात शिव गीता में। स्वयं को शिवभक्त कहने से पहले शिव गीता पढ़ो।
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