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𝗟𝗮𝗻𝗴𝘂𝗮𝗴𝗲

वेदांत , उपनिषद और गीता प्रचारक

ध्यान क्या है? ध्यान जरूरी क्यों?

ध्यान की विधि




श्याम अद्वैत:

ध्यान है सतत जागरण। साक्षी ही ध्यान है। साक्षी भाव में जीना ही ध्यान में जीना है। होश पूर्वक रहना ध्यान है। जीवन में सबकुछ किया अगर ध्यान नहीं किया तो जीवन से चूक गये। ध्यान है अंतर यात्रा। ध्यान में तुम अपने भीतर के जगत में उतरते हो। वेद गीता उपनिषद में तलाशने के परमात्मा नहीं मिलेगा। जिंन ऋषियों ने ध्यान और प्रेम से परमात्मा को जाना होगा उन लोगों ने गीता और उपनिषदों लिखें ह़ै। ऋषि ने परमात्मा को जाना उन्होंने उपनिषद लिखे यह उनका अनुभव है। और उनका अनुभव , तुम्हारा अनुभव नह़ी हो सकता है। जगत में सब कुछ उधार लिए जा सकते हैं लेकिन अनुभव उधार नहीं लिए जा सकते है। इसीलिए संत दरिया ने ठीक ही कहा है कानो़ सुना सो सब झूठ। जो कुछ भी तुम कानों से सुन सको वो सब झूठ है। हालांकि जिन्होंने परमात्मा को जाना उनका कहना तो ठीक है पर तुम्हारा सुनना झूठ ही होगा क्योंकि तुम्हारा खुद का कोई अनुभव नहीं है। कृष्ण गीता में दोहराते हैं कि इस आत्मा को कोई काट सकता ना जला सकता है ना गिला कर सकता है ना कोई सुखा सकता है, लेकिन यह कृष्ण का अनुभव है यह तुम्हारा अनुभव नहीं है और उनके अनुभव को दोहराने से तुम्हें अनुभव नहीं होगा। लेकिन लोग ऐसे मूढ़ है़ं कि जो गीता और उपनिषदों तोते की तरह दोहराये जा रहे हैं, उनका खुद का आत्मा की शाश्वतता का कोई अनुभव नहीं है। यहीं चूक हो जाती है। उपनिषद और गीता तो उस खजाने तक पहुंचने का मार्ग बताते हैं मानचित्र है। परंतु मानचित्र को दोहरा लेने से या कंठस्थ करने से तुम खजाने तक ना पहुच पाओगे। खजाने तक पहुंचने के लिए तो अनंत अनंत यात्रा करनी होगी कठिनाइयों को झेलना पड़ेगा साधना करनी पड़ेगी। कृष्ण आत्मा की बात की लेकिन बुद्ध ने आत्मा की बात ही नहीं की बात भी किया करनी बुद्ध ने विपस्सना ध्यान दिया, उन्होंने कहा आत्मा की बात है क्या करने आओ खुद देख लो। विपस्सना ध्यान सब ध्यान की विधियों में सबसे कारगर विधि है। बडी़ सरल विधि है। अपनी आती जाती स्वासों को साक्षी भाव से देखना ध्यान है। जब तुम अपनी सांसों के साक्षी हो जाते हो तब तुम्हें अपने शरीर के भी साक्षी हो जाते हो, समस्त जगत के साक्षी हो जाते हो। और जो देखने वाला साक्षी चैतन्य दृष्टा है वही अमृत है वही तुम हो, वही तुम्हारा असली स्वरूप है। महर्षि पतंजलि ने कहा है कि जब तक चित्त की वृत्तियों का निरोध नहीं हो जाता तब तक दृष्टा अपने मूल स्वरूप में स्थित नहीं होता, वह अपनी चित्त की वृत्तियों को ही अपना मूल स्वरूप समझता है। ध्यान है स्वयं से परिचित होने की कला। इसीलिए मैं उपनिषद पर उतना बल नहीं देता जितना ध्यान पर देता हूं। क्योंकि ध्यान से ही उपनिषद जन्मते हैं। श्वेताश्वतर उपनिषद में शिष्यों ने ध्यान योग के द्वारा ही परमात्मा के स्वरूप को जाना था। 


गीता उपनिषद वेद तुम्हारे भीतर छिपे हैं। खजाना का खजाना तुम्हारे भीतर छुपा है। ध्यान है खुदाई करके अपने उस खजाने को प्राप्त करना। 


विपस्सना ध्यान बहुत पुरानी विधि है जो शायद बुद्ध के समय में खोजी गई है। इसीलिए शुरुआती के दिनों में विपस्सना ध्यान करने से पहले अगर कोई सक्रिय ध्यान कर सके तो ज्यादा लाभकारी होगा। शुरुआत में विपस्सना ध्यान करने से पहले एक से 3 महीने तक सक्रिय ध्यान करना चाहिए उसके बाद में सक्रिय ध्यान को छोड़ सकते हैं। फिर विपस्सना ध्यान जब तक करना जब तक की बुद्धत्व को उपलब्ध ना हो जाए


सक्रिय ध्यान नटराज ध्यान

30 - 40 मिनट तक आपको किसी संगीत पर झूम ना नाचना पागल सा हो जाना है बस साक्षी जीवित रहे। साक्षी भाव से नाचे झूमें। जब नाचे झूमे तो यह होश बना रहे कि नाचने वाला शरीर है मैं साक्षी चेतन दृष्टा हूँ। उसके बाद में 20-25 मिनट चुपचाप लेट जाएं शरीर को हिलाए डुलाएँ नहीं। शरीर को पूरा शिथिल छोड़ दें , जैसे शरीर मर गया है, और आती जाती साँसो़ के साक्षी भर रह जाएँ। इस प्रयोग को शुरुआती दिनों म़े रमण महर्षि ने भी किया था।  गोरखनाथ कहते ह़ै मरो रे जौगी मरो, मरण है मीठा, वो इसी ध्यान रूपी मृत्यु की बात कर रहे ह़ै।. फिर आप 10 मिनट उत्सव मनाएँ।


निष्क्रिय ध्यान विपस्सना

आराम से बैठ जायें और आती जाती स्वासों के साक्षी हो जायें। ये ध्यान जब तक करना जब तक बुधत्व को ना उपलब्ध हो जाये। 




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