श्याम अद्वैत : इस अध्याय के आरंभ में भगवान योगेश्वर श्रीकृष्ण संयास के नाम पर चली आ रही रुढ़ियों को खंडन करते हुए कहते हैं कि केवल अग्नि को ना छूने वाला और मोक्षद क्रिया का त्याग करने वाले ना योगी है , ना संयासी है। कर्म फल का त्याग करके जो मोक्षद कर्म करता है, वही योगी है, वही संयासी है। जिसको संसारी लोग संन्यास कहते हैं, वही योग भी है। क्योंकि बिना संकल्पों के त्याग के कोई भी योग का आचरण नहीं कर सकता, अर्थात बिना संकल्पों के त्याग से कोई भी योगी नहीं हो सकता। समस्त कामनाओं को त्याग किये बिना कोई भी योगी नहीं हो सकता। जो साधक योग की चरम सीमा पर पहुंचना चाहते हैं, वह निष्काम भाव से मोक्षद कर्म अर्थात वह कर्म जिससे मोक्ष मिलती हो, को करने में तत्पर हो जाएँ। योग की परम अवस्था में पहुंचने पर समस्त कामनाओं का अभाव हो जाता है, क्योंकि परम साध्य परमात्मा की अभिन्नता का बोध हो जाता है। जिस समय में कोई साधक ना तो विषय भोगों में आसक्त होता है और ना ही कर्मों में आसक्त होता है क्योंकि कर्मों का परिणाम परमात्मा की अभिन्नता का बोध हो जाता है, अर्थात जीव और परमात्मा की एकता का बोध हो जाता है, उसी को योग की परम स्थिति कहते हैं। योग का अर्थ होगा मिलाप। ये योग साधक को परम देव परमात्मा से मिलन कराता है इसीलिए योग कहा जाता है, तथा योग की परम स्थिति में समस्त संकल्पों का और कामनाओं का अभाव हो जाता, इसीलिए संयास कहा जाता है। संयास अर्थात सर्वस्व का नाश हो जाता है।
योगेश्वर श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि जिस मनुष्य के द्वारा मन सहित उसकी इंद्रियां जीती हुई हैं वो स्वयं का मित्र है। और जिस मनुष्य की मन सहित इंद्रियां नहीं जीती हुई हैं वह स्वयं अपना शत्रु है। इसीलिए बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह अपने द्वारा अपना उन्नति करें , मुक्ति की ओर बढें, अपने को बंधन में ना डाले। वस्तुतः मुक्ति की ओर बढ़ना, शाश्वत स्वरूप की ओर बढ़ना , कैवल्य प्राप्ति की ओर बढ़ना, परमात्मा को पाना, मोक्ष को पाना , भगवान की ओर बढ़ना , आत्मस्थ स्थिति की ओर बढ़ना, निर्वाण की ओर बढ़ना, आत्म स्वरुप की ओर बढ़ना, शाश्वत स्वरूप की ओर बढ़ना एक ही बात है। जिस साधक की अंतकरण की वृत्तियाँ प्रकृति के द्वंद्व में भी शांत है, जो साधक सुख दुख और सम्मान-अपमान में भी समभाव वाला है, जिसकी मन सहित इंद्रियां सर्वथा जीती हुई और शांत है, जो साधक पत्थर, मिट्टी , सोने को भी एक समझने वाला है, वैराग्य की परम स्थिति पर पहुंचा हुआ ऐसा साधक परमात्मा में स्थिति वाला कहा जाता है अर्थात आत्मस्थ कहा जाता है, मुक्त पुरुष कहा जाता है। जो साधक मित्र तथा शत्रु में , धर्मात्मा, पापी ,गाय, कुत्ता, हाथी ,चंडाल, ब्राह्मण वैश्य, शूद्र, में समान दृष्टि वाला है। वस्तुतः जिस साधक ने अंतःकरण की शुद्धि करके आत्मा में स्थिति पा लिया है, ऐसा मुक्त पुरुष समवर्ती और समदर्शी हो जाते हैं।
मुमुक्षुजनों को अर्थात मोक्ष की इच्छा वाले मनुष्यों को मन को और समस्त इंद्रियों को वश में करके वासना से रहित हो करके और संग्रह से रहित हो करके एकांत स्थान पर बैठकर चित्त को हृदय में स्थित परमात्मा में लगावे। अर्थात ध्यान हृदय में करें बाहर नहीं क्योंकि श्रुतियों में परमात्मा का निवास स्थान हृदय बताया गया है, अतः परमात्मा का ध्यान हृदय में धरा जाता है। अब योगेश्वर श्रीकृष्ण महाराज ध्यान करने की विधि के बारे में बताते हैं कि साफ सुथरे भूमि में कोई वस्त्र बिछाकर आसन पर बैठकर अंतकरण की शुद्धि के लिए योगाभ्यास करें। आसन न तो अधिक पूछा होना तो अधिक नीचा हो और आसन हिलने धुलने वाले ना हो। प्रिय बंधुओं आपकी जानकारी के लिए बता दें कि यहां पर योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अंतकरण की शुद्धि के लिए योग अभ्यास करने को कहा है ना कि परमात्मा प्राप्ति के लिए क्योंकि परमात्मा तो पहले से ही प्राप्त है उन्हें खोजने के लिए कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है। वस्तुतः परमात्मा को कहीं से पाना नही हैं वह तो प्राप्त ही है, मोह ,आसक्ति और अज्ञान से हमारा अंतः करण दूषित है इसीलिए हमें भ्रम हो गया कि हम परमात्मा से अलग हो गए जबकि वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है, हमें अपने भ्रम और अज्ञान को दूर करने के लिए तथा अंतःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करना है। बृहदारण्यक उपरिषद में अहम् ब्रह्मस्मि कहकर जीवात्मा और परमात्मा की एकता का वर्णन किया गया है। अहम् ब्रह्मस्मि का अर्थ होता है मैं ही ब्रह्म अर्थात परमात्मा हूँ।
युवा संयासी: प्रिय आत्मन् ! ईशावास्य उपनिषद में सोहम् कह करके परमात्मा का जीव से अभिन्नता का वर्णन किया गया है, सोहम् का अर्थ होता है कि मैं वही परब्रह्म परमात्मा हूँ। छांदोग्योपनिषद में तत्वमसि कह करके कहा गया है कि वह ब्रह्म तुम ही हो। अब प्रश्न्न उठता है कि जब परमात्मा हम में ही है तो हम योग अभ्यास क्यों करें? इसका उत्तर है अंतःकरण की शुद्धि के लिए योग अभ्यास करना चाहिए। अब श्री कृष्ण महाराज योगाभ्यास की विधि बताते हुए कहते हैं कि ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए मन सहित इंद्रियों को वश में करके अपने चित्त को निरंतर हृदय में सिर्फ परमात्मा में लगावे। हृदय में स्थित परमात्मा में निरंतर ध्यान करने से मिलेगा क्या? इसके उत्तर में योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो साधक मन को वश में कर के निरंतर सदैव मिस्टिक परमात्मा में चित्त को लगाता है, वो सदा रहने वाली शाश्वत शांति को पाता है। अर्थात जिस किसी को भी सदा रहने वाले शाश्वत सुख को पाना है कि वह चित्त और इंद्रियों को विषयों से समेट कर हृदय में स्थित परमात्मा की अराधना करें। श्री कृष्ण महाराज द्वारा बताए हुए इस योग के अभ्यास से समस्त दुखों का नाश हो जाएगा और सदा रहने वाली शांति मिलेगी। मोक्ष की इच्छा वाले साधकों को अंतःकरण की शुद्धि के लिए विषय भोगों से अनासक्त होकर , ममता रहित और अहंकार से रहित होकर अंतःकरण की शुद्धि के लिए योगाभ्यास करना चाहिए।
श्याम अद्वैत: अब योगेश्वर श्रीकृष्ण योग सिद्धि की पात्रता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि इस योग की सिद्धि के लिए संतुलित मात्रा में सात्विक आहार ग्रहण करना चाहिए। ये योग संतुलित आहार लेने वाले , संतुलित सोने व जागने वाले, मोक्षद कर्म निरंतर करने वाले का ही सिद्ध होता है। ऐसे निरंतर योग से युक्त साधक का चित्त हृदय में स्थित परमात्मा में विलीन करण हो जाता है, उस वक्त उस साधक में समस्त कामनाओं का और भोग वासनाओं का अभाव हो जाता है, ऐसा साधक ही पूर्ण योगी है। योग के निरंतर अभ्यास से चित्त का विलय हो जाता है और परम प्रभु परमात्मा में स्थिति मिल जाती है। उस समय साधक अपनी आत्मा में ही तृप्त, संतुष्ट और शांत रहता है। ऐसा साधक इंद्रियों से परे जो शाश्वत सुख है उसका अनुभव करता है, ऐसा आत्मस्थ साधक फिर कभी अपने आत्म स्वरुप से विलग नहीं होता। ऐसा मुक्त पुरुष सदा रहने वाली शांति पाता है। इसलिए बुद्धिमान साधकों को चाहिए कि निश्चय पूर्वक उपयोग का अभ्यास करें जो संसार के समस्त दुखों का नाश करता है। श्रुति में परमात्मा को आनंद स्वरुप कहा गया है, इसीलिए कल्याण की इच्छा करने वाले समस्त साधकों को हृदय में स्थित एक परमात्मा की शरण लेना चाहिए। और अंतःकरण की शुद्धि के लिए अनवरत चिंतन और ध्यान करना चाहिए।
योगेश्वर श्रीकृष्ण महाराज कहते हैं कि अर्जुन! मन में स्थित समस्त कामनाओं का त्याग करके मन सहित इंद्रियों को वशीभूत करके चित्त को परमात्मा में लगावे और ऐसा भाव रखे कि परमात्मा के सिवाय कुछ है ही नहीं। आरंभिक साधकों का मन परमात्मा चिंतन में और ध्यान में नहीं लगता है बल्कि बार-बार विषयों की तरफ भागता है, इसलिए मन जहाँ भी जाए वहाँ से हटा कर उसको हृदय में निरोध करके परमात्मा में लगावे। अब प्रश्न्न उठता है कि मन को विषयों से हटा कर परमात्मा के चिंतन में क्यों लगाएँ, इससे क्या मिलेगा? इसके उत्तर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि अर्जुन! योग अभ्यास द्वारा जिसका मन भली भांति शांत हो गया है, जिसके अंतकरण शुद्ध हो गई हैं, जो पाप से रहित हो गया है, ऐसा साधक परमात्मा के साथ एक ही भाव से स्थित हुआ अक्षय आनंद को प्राप्त करता है। ऐसा परमात्मा में स्थिति वाला पुरुष संपूर्ण चराचर जगत को आत्मा से परिपूर्ण व्याप्त पाता है, जो संपूर्ण प्राणियों में ही परमात्मा को व्याप्त देखता है, उससे कभी परमात्मा भी विलग नहीं रहते। आत्मा में स्थिति वाला महापुरुष सब में समान दृष्टि वाला होता है, वह समस्त जगत में परमात्मा को ही व्याप्त के पाता है, उसके राग, भय, दुख, कष्ट, शोक , सब नष्ट हो जाते हैं। वह परमात्मा के साथ एक ही भाव से स्थित हुआ अक्षय सुख का भोग करता है।
अर्जुन ने प्रश्न्न किया कि मन की चंचल होने के कारण मैं योग में आने वाली समदृष्टि नहीं देखता, हे श्रीकृष्ण मन बहुत चंचल है ,इसको नियंत्रित करना मुझे कठिन लगता है। इसके उत्तर में योगेश्वर श्रीकृष्ण महाराज कहते हैं कि इसमें कोई शक नहीं है कि मन बहुत चंचल है लेकिन फिर भी वैराग्य और योग के अभ्यास के द्वारा मन को नियंत्रित किया जा सकता है। इस लोक में और परलोक में देखी सुनी वस्तुओं से लगाव का त्याग ही वैराग्य है। और मन जहाँ भी जाए वहाँ से हटाकर हृदय में विराजमान परमात्मा में लगाने का नाम योग अभ्यास है। श्रीकृष्ण महाराज कहते हैं कि मन को वश में करना आवश्यक है क्योंकि मन को वश में किए बिना योगयुक्त होना संभव नहीं है। और जिसमें अपने मन को वश में कर लिया है उसके लिए योग सुलभ है, अर्थात हृदय में परमात्मा से मिलाप और परमात्मा ने स्थिति संभव है। इस पर अर्जुन ने प्रश्न्न किया कि जिस साधक योग मिस श्रद्धा है और मन यदि चलायमान हो जाता है तो उसको कौन सी स्थिति मिलती है? ऐसा व्यक्ति भगवत पथ से भटक छिन्न भिन्न तो नहीं हो जाता? वो ना तो संसार के विषय को भोग पाता है और ना ही परमात्मा में स्थिति ही पाता है, तो उसका क्या होता है? अर्जुन कहता है कि मेरी इस संसार को पूर्णता के साथ मिटाने में आप ही समर्थ है। इसीलिए मेरे इस संशय को दूर कीजिए भगवन।
अर्जुन की शंका का निवारण करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण महाराज कहते हैं कि ऐसे साधक आना तो किस लोक में ना तो परलोक में कभी नाश नहीं होता, क्योंकि भगवत पथ पर चलने वाले साधक की कभी दुर्गति नहीं होती। मन विचलित होने के कारण योगभ्रष्ट हुआ पुरुष उत्तम लोक में उस वासना को भोगकर जिसकी वजह से मन विचलित हुआ था पुनः शुद्ध आचरण वाले सात्विक घर में जन्म लेता है। और यदि वैरागी है तो योगियों के घर में जन्म लेते हैं, और पुराने संस्कारों का नया ही प्राप्त कर लेता है और पहले से भी अधिक वेग से भगवत पथ पर आगे बढ़ता है। योगी अभ्यास के द्वारा श्री गरीब परमात्मा रूपी परम सिद्धि प्राप्त करता है। योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि योगी समस्त तपस्वियों से श्रेष्ठ माना जाता है, योगी ज्ञानियों से भी श्रेष्ठ माना जाता है , सकाम कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ माना जाता है, इसीलिए अर्जुन तू योग का आचरण कर अर्थात योगी बन। संपूर्ण योगियों में भी जो हृदय में स्थित परमात्मा की चिंतन में लगा रहता है , अंतरात्मा में ही चिंतन करता है , वह योगी परम श्रेष्ठ मान्य है। अर्थात चिंतन का विधान हृदय में है, अपनी अंतरात्मा में है बाहर नहीं। इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता रूपी उपनिषद एवं ब्रह्म विद्या और योग शास्त्र श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद के रूप में अभ्यास योग नाम का छठवाँ अध्याय पूरा हुआ।
ओम श्री परमात्मने नमः
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