महाभारत के युद्ध में कुरुक्षेत्र में जो गीता ज्ञान का अमृत श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश किया था, वह गीता अर्जुन को विस्मृत हो गया। अर्जुन ने निवेदन किया कि भगवान मेरे लिए पुनः उसी उपदेश को कहिए लेकिन श्री कृष्ण कहा कि ये संभव नहीं है लेकिन फिर भी मैं तेरे कल्याण के लिए उसी को संक्षेप में कहूँगा। श्री कृष्ण ने पुनः उसी ब्रह्म विद्या का निरूपण किया , जो उत्तर गीता नाम से प्रचलित है। वस्तुतः केवल अर्जुन गीता नहीं भला था, प्रायः हम भी गीता भूल ही जाते हैं। इसीलिए जब तक आत्मा में स्थिति ना मिले तब तक गीता को स्मृति में लाते रहना चाहिए। गीता साधक को पूर्तिपर्यंत साथ देता है। हम लोगों ने बहुत दिनों तक बेहोशी में जीवन जिया है, झूठ में जीवन जिया इसलिए हमें सबको भूलने की आदत सी हो गई है! इसीलिए जब तक आत्मा स्थिति ना मिल जाये तब तक अध्यात्म विद्या का स्मरण करते रहना चाहिए।
अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा कि जो ज्ञान का उपदेश आपने मुझे युद्ध भूमि में दिया था वह मैं भूल गया हूँ, हे कृष्ण! मुझे उस ज्ञानामृत को सुनने की फिर से उत्कंठा जगी है, इसलिए हे केशव ! मुझे वह उपदेश पुनः दीजिए।
अर्जुन की इन बातों को सुनकर श्रीकृष्ण महाराज बोले," उस समय मैंने तुम्हें अत्यंत गोपनीय ब्रह्मविद्या का उपदेश सुनाया था, किंतु तुमने नासमझी के कारण उस उपदेश को भुल गये, उस उपदेश को पुनः स्मरण करके बताना करना असंभव है। हे अर्जुन ! उस उपदेश को फिर से वैसे का वैसे कह देना असंभव है। लेकिन फिर भी मैं उस ब्रह्मविद्या को तुम्हारे कल्याण के लिए कहता हूँ।"
श्री कृष्ण महाराज बोले, " मेरी बातों को ध्यान पूर्वक सुनो। एक ब्राम्हण मेरे पास आए और मैंने उनका सत्कार किया और मोक्ष की विषय में प्रश्न किया, तब उन्होंने जो मुझको बताया था वही मैं तुमसे कहूँगा।"
ब्राम्हण बोले," पुरातन काल में एक काश्यप नाम के धर्मात्मा ब्राम्हण किसी सिद्ध महर्षि के पास गये। काश्यप ने महर्षि को दंडवत प्रणाम किया। काश्यप ने उनकी खूब सेवा की, काश्यप की सेवा से प्रसन्न होकर महर्षि ने काश्यप को ब्रह्मविद्या का उपदेश किया।
महर्षि बोले," मनुष्य अनेक-अनेक शुभ कर्म करके इस लोक में उचित फल को प्राप्त करते हैं। लेकिन फिर भी मनुष्यों को शाश्वत सुख नहीं मिलता। ये संसार मरघट है यहाँ कुछ भी शाश्वत नहीं। राजा हो या रंक सबको दुख भोग ही पड़ता है, यहाँ सब क्षणभंगुर है, नश्वर है, इसीलिए यहाँ किसी को सुख नहीं मिलता। मैंने बार-बार कामना के वश होकर बहुत पाप कर्म किए हैं और उनके दुख को भी भोगा है। काम और क्रोध के मद में चूर होकर मैंने बहुत कूकर्म और पाप किये हैं और घोर दुख भोगें हैं। जिस धन को मैंने कुकर्म और पाप करके कमाया था वो धन देखते देखते नष्ट हो गए हैं, मुझे निराशा के शिवाय कुछ नहीं मिला है इस संसार से। जिस घर और परिवार के मोह में आसक्त होकर मैंने इतने कूकर्म किये हैं उन्हीं लोगों ने मुझे खूब कष्ट दिया है। जिस शरीर और मन को मैं अपना समझता था इन्होंने मुझे खूब कष्ट और यातनाएँ दी हैं। मुझे बार बार बुढ़ापे और रोग से ग्रसित होकर दुखों से गुजरना पड़ा है।
इस प्रकार मुझे बार-बार दुख ही दुख मिला है, इसप्रकार बार बार दुख और कष्ट मिलने के कारण मेरे मन में खेद हुआ और मैंने दुखों से तंग आकर मैंने निराकार परमात्मा की शरण में स्वयं को समर्पित कर दिया, मैंने बाहरी विषय भोग और स्वजनों से आसक्ति और मोह को त्याग दिया। मैंने दुखों जीवन को मोड़कर शाश्वत में लगाया है और मुझे परमात्मा में स्थिति मिल गई है। अर्थात मुझे अपने स्वरुप का ज्ञान हो गया है। अब मैं जन्म मरण के बंधन से सर्वथा छूट गया हूँ और मैं लोक संग्रह के लिए कर्म करता हूँ। महर्षि ने कहा कि हे काश्यप! तुम मुझसे क्या पूछना आए हो? तुम मुजसे जो भी माँगोगे मैं उसे दूंगा। मुझसे जो जिज्ञासा करोगे वो मैं तुम्हें बताऊंगा। महर्षि के वचन काश्यप ने महर्षि के पैरों को पकड़ लिया और उसे पूछने लगा कि संसारी मनुष्य किस प्रकार दुखों से मुक्त हो सकता है?
काश्यप के वचनों को सुनकर महर्षि ने कहा, " मनुष्य रात दिन जिस काम में व्यस्त है वह इसी लोक का बंधनकारी कर्म है। जो मनुष्य सुख दुख दोनों से सर्वथा रहित होकर, इस लोक और परलोक में स्थित भोगों से वैराग्य भाव को प्राप्त होता है , वह संसार बंधन से मुक्त होकर परमगति प्राप्त करता है। जो मनुष्य चित्त , अहंकार और शरीर से आसक्ति को त्याग कर मौन होकर सबके अधिष्ठाता परब्रह्म परमात्मा का चिंतन करता है, वह इस संसार सागर से तर जाता है।
जो पुरुष मित्र तथा शत्रु समान भाव रखता है, जिसकी इंद्रियां भली प्रकार से जीती हुई हैं, जिसका मन वश में किया हुआ है, जो सभी प्रकार के भोगों से सर्वथा अनासक्त हैं, जो भय , क्रोध, आदि द्वंद्वों से रहित है, जो आत्मवान है, वो दुखों से छूटकर परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। जो सब प्राणियों के प्रति करुणा भाव रखता है, जो ना किसी की इच्छा करता है ना किसी से द्वैष करता है वह सर्वथा मुक्त ही है। जो हानि लाभ , सुख दुख ,जन्म मृत्यु , प्रिय अप्रिय में सम भाव रखता है वह मुक्त ही है। जो आसक्ति रहित है, जो किसी की कामना नहीं करता, वह मुक्त ही है। जो मन के द्वंद्वों में सम भाव रखता है वह मुक्त ही है। जिसके लिए ना कोई मित्र है, ना कोई शत्रु है, जो मोह और आसक्ति से रहित है वह मुक्त ही है। जो अपनी आत्मा ने ही शांत, तृप्त और संतुष्ट है वह मुक्त ही है। जो साधक एकांत में रहकर अपने मन को अपनी आत्मा में स्थिर करता है, ऐसा योगी मुक्त समझने योग्य ही है। जैसे कोई मूँज में से सींक को निकाल कर उपयोग में लाते हैं ठीक वैसे ही योगी शरीर से आसक्ति का त्याग करके आत्मा में रमण करते हैं। आत्मा में स्थिति पाकर मनुष्य शोक नहीं करते क्योंकि आत्मा ना तो किसी काल में जन्म लेता है और ना ही किसी काल में मरता है ,यह आत्मा आनंदस्वरूप , अमृतस्वरूप है, अविनाशी और शाश्वत है। जो इस मनुष्य शरीर के रहते ही आत्मा को जान लेता, वही मुक्त है।
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