प्रश्न्न- ईश्वर ऐसा अन्याय क्यों किया करता है? अर्थात् वह किसी को तो राजा बना देता है और किसी को प्रजा। किसी व्यक्ति को धन-धान्य से परिपूर्ण कर देता है, तो किसी से भीख मँगवाता है। कोई मारे ख़ुशी के फूले नहीं समाते, तो कोई हाय-हाय करते दिन काटते हैं। कोई खाने-पहिनने के बिना मर रहे हैं, तो कोई वस्त्राभूषणों से सज धजकर डकारें मारते फिरते है, इत्यादि-इत्यादि क्या यह अन्याय नहीं है? विषमता नहीं है? यह तो भारी क्रूरता है, बड़ी निर्दयता है?
समाधान - आपको कैसे पता कि जो अमीर है वह सुखी ही है? यह आपका मापदंड है कि आप अमीर को सुखी मानते हो!
कुछ लोग कहते हैं कि भाई ! ईश्वर स्वतन्त्र है, उसके ऊपर कोई नहीं है, वह जो कुछ करे, सो सब ठीक ही है। यह सब पागलपन की बातें हैं।
कुछ लोगों का तो यह ख्याल है कि परमात्मा ऊँच-नीच योनियों में जन्म तथा दुःख-सुखादि प्राणियों के कर्मानुसार ही दिया करता है, अतएव वह निर्दोषी है। कुछ व्यक्तियों का यह कथन है कि ईश्वर अपने भक्तों को तो सुख देता है और जो उसका भजन नहीं करते, उनसे विमुख रहता है, अतः वे दुःख पाते हैं, इत्यादि। इस प्रकार लोग अनेक प्रकार से समाधान किया करते हैं, परन्तु इन बातों से मन को संतोष नहीं मिलता; चित्त सावधान नहीं होता; बुद्धि में और अधिक भ्रम उत्पन्न हो जाता है। ये सब मूर्खता की बातें हैं। क्या स्वतन्त्रता का यही अर्थ है कि जो मन में आवे वही कर डाले? क्या क्रूर होना ही स्वतन्त्रता है? जहाँ पाप-पुण्य का न्याय नहीं है, आग लगे ऐसी स्वतंत्रता को। जब वही प्रेरक है, वही कर्मों का कराने- वाला है, तब किसी से बुरा कर्म कराता ही क्यों है? उसके तो सभी जीव प्रजा हैं। सब पुत्र ही तो है? फिर जो भजन करे, उसकी महल-सेवा करे, उसे तो वह सुख दे और जो न करे, उसे दुःख ऐसा स्वार्थ, ऐसा पक्षपात। यह तो प्राकृतिक मनुष्यों जैसा व्यवहार प्रतीत होता है, इत्यादि बातें सामने आती हैं।
यह सब फालतू की बकवास है, ये मूर्खता का कुतर्क है।
ये भिन्नता तो वैसे ही नहीं है, जैसे अंधेरे में पड़ी हुई रस्सी में सर्प का भान होता हुआ भी वास्तव में वहाँ सच्चा सर्प नहीं रहता। अथवा खूब तेज की धूप में जब हमारी दृष्टि किसी रेतीली जमीन पर पड़ती है, तब वहाँ एक बड़ी भारी सरिता-सी बह निकलती है। क्या ही आनन्द की लहरें उठ रही हैं, देखिये न ! उसमें तो भाग, बुदबुदे, फेन आदि भी दिखाई देते हैं। लो ! अब तो उसमें उछलती हुई मछलियाँ भी प्रतीत होने लगीं। अरे! वहाँ तो मुख फाड़े हुए मगर भी हैं । क्या ये सचमुच कच्छप ही हैं ? वहाँ तो टॅगा हुआ पाल भी मालूम हो रहा है, नौका आ रही है क्या ? अच्छा, चलो तो, तनिक निकट चलकर देखें, वहाँ जाने से बड़ा आनन्द होगा, खूब स्नान - पानादि करके तृप्त होंगे । लो ! अब तो धीरे-धीरे हम सब वहाँ पर पहुँच गये, जहाँ पर विशाल नदी दिखाई देती थी। अरे ! देखो न, यहाँ तो कुछ भी नहीं है, पानी का कहीं निशान भी नहीं है, कहीं कीचड़ का बेश भी नहीं है । जी ! वे मछलियों, मकर, नौकादि क्या होगये ? उन्हें कौन उड़ा ले गया? क्या वह सब इन्द्रजाल था, या किसी प्रेत की करामात थी? अथवा हम वह सब तमाशा नींद में देख रहे थे? नहीं, नहीं, यहाँ न तो कोई इन्द्रजाली था, न प्रेत ही, और न हम नींद में ही थे, बल्कि तेज धूप के सामने हमारी दृष्टि में चकचौंधी आ गई थी, भौतिक विज्ञान में इसे मरिचिका कहते हैं।
अतः सूर्य की तेज किरणों में यह दृश्य दिखलाई देता था इसलिए भाई ! इसमें किसी का भी दोष नहीं, अपितु हम लोगों की दृष्टि का ही दोष है।
प्रिय मेरे आत्मन् ! इस प्रपंच का एक ब्रह्म ही अधिष्ठान आश्रय है। इस ब्रह्मरूपी रेतीली पृथ्वी पर उसी की किरण रूपी विचित्र माया के बल से हमारे हृदय और नेत्र चौंधियाये हुये हैं, इसी कारण हम संसार में सरिता की बाढ़ देख रहे हैं। जब हम साधन-सम्पन्न होकर ब्रह्म-निष्ठ गुरु की कृपा और उसके उपदेशानुसार इसका भलीभाँति विचार कर लेंगे, तब यह प्रपंच एक दम मिथ्या हो जायगा; तब यह वैसा न जान पडे़गा, जैसा पहले मालुम पड़ता था। इसके मिध्यापन का ज्ञान होते ही एक वही सच्चिदानन्द ब्रह्म बचा रहेगा, और वह हमारे लिये नित्य तथा अपरोक्ष हो जायेगा। वह हमें निज रूप से प्रतीत होने लगेगा। परमात्मा ना कुछ करता है ना कराता है? जिनकी बुद्धि मोह रूपी दलदल में फँसी है वही ऐसा कहते हैं कि परमात्मा ही सब कुछ कराता है।
आओ हम सब मिलकर एक साथ ऊँचे स्वर से एक गीत गावें! इससे हमारे हृदय में जागृति पैदा होगी, हम में अपने रूप की प्राप्ति के लिये उत्साह बढ़ेगा, विवेक, वैरागादि का सम्पादन होगा।
गीत -
नर मूढ़ क्यों भुलाया, दिल में करो विचारा
जिर काल का नहीं है सुत बाँधवा सहारा
घी डालने से ज्योति, कभी ना शांत होती
तृष्णा विशेष बढ़ती , भोग आदि है पसारा
तेरा शरीर क्षीण होता, जैसे कपूर उड़ता
क्यों मोह में तू पड़ता, जल्दी गहो किनारा
आनंद जिसको माना, उसका ना मर्म जाना
मरिचिका के समाना, सब झूठ ही पसारा
जो विश्व का है अधारा, वो श्याम रूप प्यारा
ब्रह्म का करो विचारा, दुख दूर हो तुम्हारा।।
हमारे साथ जो कुछ भी हो रहा है उसके जिम्मेदार हम स्वयं हैं। और रही बात गरीबी की तो वह जनसंख्या में विस्फोट के कारण होता है। जनसंख्या ज्यादा होगी तो खाने-पीने की समस्या, रहने की समस्या, पढ़ाई लिखाई की समस्या, होगी तो देश गरीब बनना। आदमी स्वयं अपना विनाश कर रहा है जनसंख्या विस्फोट के माध्यम से। यदि जनसंख्या पर रोकना लगाया गया, परिवार नियोजन को उचित ना समझा गया, तो वह दिन दूर नहीं होगा जब मनुष्य भूखा मरेगा। पृथ्वी पर नहीं है इतने संसाधन कि तुम बच्चे पैदा किये जा रहे हो ? जितनी तेजी से जनसंख्या बढ़ रही है इसी हिसाब से आने वाले 50 सालों में पृथ्वी पर उतनी जगह ही नहीं रहेगी कि आदमी हिल डुल सके। कोई एटम बम कोई दुश्मन की जरूरत नहीं है इंसान को खत्म करने के लिए। इंसान खुद ही अपनी संख्या को बढा़ करके अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार रहा। आदमी खुद अपने विनाश के संसाधन पैदा कर रहा है मनुष्य की जनसंख्या बढ़ा करके। और मेरी बात आपको चूभेगी। मनुष्य अपना विनाश खुद ही कर रहा है अपनी जनसंख्या को बढ़ा करके क्योंकि पृथ्वी पर इतने संसाधन नहीं है कि और अधिक लोगों का भार सह सके।
कोई भगवान कोई खुदा कयामत कयामत नहीं लाने वाला है। इंसान खुद कयामत की ओर बढ़ रहा है अपनी संख्या को बड़ा करके। और मैं यह कोई हवा में बात नहीं कर रहा हूँ। बहुत ध्यान और विचार के बाद मैं यह बातें बोल रहा हूँ। अगर अपनी भलाई चाहते हो तो फैलना बंद करो जनसंख्या नियंत्रण पर ध्यान दो।
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