श्याम अद्वैत : योगेश्वर श्रीकृष्ण ने परमात्मा प्राप्ति के दो तरह के मार्ग बताए- पहला भक्ति मार्ग और दूसरा ज्ञान मार्ग। दोनो मार्गों में मोक्षद कर्म होता है और परम सिद्धि की प्राप्ति होती है। अब पांचवे अध्याय में अर्जुन प्रश्न्न करता है कि भगवन् ! कभी आप ज्ञान मार्ग की प्रशंसा करते हैं, कभी आप भक्ति मार्ग की प्रशंसा करते हैं, अतः इन दोनों में से जो कुछ भी आपकी दृष्टि में श्रेष्ठ हो, वह मेरे लिए कहिए। अर्जुन के इस शंका के समाधान में योगेश्वर श्रीकृष्ण महाराज बोले, " इन दोनों मार्गों में ज्ञान मार्ग से भक्ति मार्ग अर्थात निष्काम कर्म श्रेष्ठ है क्योंकि जो साधक राग, द्वैष , सुख , दुख , आदि द्वंदों से रहित है, सम भाव वाला है, ऐसा साधक संयासी हियर खास निष्काम कर्म योगी जी समझने योग्य है, सांसारिक द्वंद्वों से ऊपर उठने वाला और अपनी आत्मा में ही शांत , तृप्त और संतुष्ट रहने वाला साधक परम सुख का उपभोग करता है, अर्थात परम शांति को पाता है। योगेश्वर श्रीकृष्ण महाराज आगे बताते हैं कि जो इन दोनों मार्गों को अलग-अलग समझता है, वह पूर्ण ज्ञाता नहीं है। चाहे ज्ञान मार्ग से भजने वाला साधक हो, चाहे भक्ति मार्ग से भजने वाला साधक हो, दोनों ही परम सिद्धि मोक्ष को होते हैं। श्रीकृष्ण महाराज बोले , " निष्काम कर्मयोग के आचरण के बिना सन्यास अर्थात त्याग, वैराग्य, और मन सहित इंद्रियों को वश में कर लेना दुर्लभ है। इसीलिए परमात्मा पथ में अग्रसर निष्काम कर्मयोगी साधक अर्थात मन सहित इंद्रियों को वश में करके शीघ्र ही ब्रह्म में प्रवेश पा जाता है, आत्मा में स्थिति पा जाता है, परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।
अब आगे योगेश्वर श्रीकृष्ण महाराज आत्मस्थ साधक के लक्षण बताते हुए कहते हैं कि जिसने अपने मन सहित इंद्रियों को वश में कर लिया है, जिसने ज्ञान और वैराग्य से अपने अंतःकरण को विशुद्ध कर लिया है, जिसने संपूर्ण प्राणियों के हृदय में विराजमान परमात्मा को साक्षात्कार के साथ जान लिया है, वह कर्म को करता हुआ भी लिप्त नहीं होता क्योंकि कर्मों का जो परिणाम परमात्मा है, अब उससे भिन्न नहीं है वह अब आत्मा में स्थिति पा चुका है, इसीलिए लिप्त नहीं होता। इस कथन से यह स्पष्ट हो गया है कर्म वही है जो आपको मोक्ष दिलाये, आपको आत्मा में स्थिति दिलाता हो ,वही कर्म है। सारा जगत रात दिन जिस कर्म में व्यस्त है, वह कर्म नहीं है बल्कि इसी लोक का बंधनकारी क्रिया है। अतः आत्मस्थ साधक सब प्रकार के कर्म को करता हुआ भी अकर्ता है, क्योंकि वह ऐसा समझता है कि इंद्रियाँ अपने अर्थों में बरतती हैं मैं कुछ नहीं करता हूँ, मैं इन सब का साक्षी चैतन्य हूँ। जिस प्रकार कमल का पत्ता जल में रहते हुए भी जल में लिप्त नहीं होता ठीक उसी प्रकार आत्मस्थ साधक भी संसार में रहते हुए भी संसार की कर्मों को करते हुए भी लिप्त नहीं होते। निष्काम कर्म योगी साधक ममता और अहंकार से रहित हो करके अंतकरण की शुद्धि के लिए मन , बुद्धि और शरीर द्वारा अनासक्त होकर कर्म करता है। अर्थात आत्मस्थ पुरुष का कर्मों से विशेष कोई प्रयोजन नहीं रहता है, वो केवल पीछे वाले नए साधकों के मार्गदर्शन के लिए कर्म को भली प्रकार करते हैं।
निष्काम कर्मयोगी साधक कर्म के परिणाम परमात्मा प्राप्ति की इच्छा को त्याग कर कर्म करता है, इसीलिए वो परम शांति को ,शाश्वत शांति को प्राप्त होता है, जबकि सकामी भक्त फल की इच्छा से कर्म में लगता है और बंधन ग्रस्त होता है। जिस साधक की मन सहित इंद्रियाँ वश में की हुई हैं, जो अंतरात्मा में ही मग्न है, ऐसा इच्छा रहित और सर्वथा अनासक्त साधक है वो परमात्मा में स्थिति वाला होता है। ऐसा आत्मस्थ साधक कर्तापन के अभिमान से मुक्त रहता है, वह साक्षी भाव से कर्म करता है , वह ऐसा समझता है कि इंद्रियाँ अपने अर्थों में बरतती है, गुणों के आधार पर कर्म हो रहे हैं, मैं इन सबका साक्षी चैतन्य हूँ। सर्वव्यापी परमेश्वर जो सभी साधकों के हृदय में भी वास करते हैं, अंतर्यामी सर्वव्यापी परमात्मा किसी के शुभ अथवा अशुभ कर्मों में लिप्त नहीं होता, लेकिन जो अज्ञानी लोग होते हैं, जिनका कामनाओं द्वारा ज्ञान ढका है, वे ही मूढ़ बुद्धि लोग ही मोह में पड़ते हैं। लेकिन जिस साधक का अज्ञान परमात्मा के तत्त्वज्ञान से नष्ट हो चुका है, अपने में और समस्त प्राणियों में , समस्त जगत में परमात्मा को व्याप्त देखता है। जिस साधक की मन ,बुद्धि , ब्रह्मज्ञान के साथ परमात्मा में एकीभाव से स्थित हो चुकी हैं, परम सिद्धि परमात्मा को प्राप्त कर लेता अर्थात शाश्वत शांति , अक्षय आनंद को प्राप्त कर लेता है। ऐसा आत्मा में स्थिति वाला साधक सब में समान भाव रखता है, क्योंकि ऐसा साधक भौतिक दृष्टि नहीं रखता है, बल्कि आत्मिक दृष्टि रखता है।
ऐसा आत्मस्थ साधक संसार के द्वंद्वों में समभाव से स्थित रहता है, ऐसा साधक सच्चिदानंद घन परमात्मा ने स्थिति पाकर अक्षय आनंद पाता है। जिस साधक का मन अप्रिय वस्तु को पाकर दुखी नहीं होता, प्रिय वस्तु को पाकर हर्षित नहीं होता है, जो दोनों में समभाव वाला है, स्थिर बुद्धि , संशयरहित है, वह परब्रह्म परमात्मा ने स्थिति वाला है। जो साधक बाहरी विषयों में अनासक्त होकर अपनी आत्मा में ही जो सात्विक आनंद है , उस शाश्वत आनंद को पाता है। ऐसा साधक जो ध्यान योग से युक्त होकर अंतरात्मा में जो अक्षय आनंद है उसका उपभोग करता है और उसी में स्थिति वाला होता है। योगेश्वर श्रीकृष्ण महाराज कहते हैं कि जो बाहरी विषयों भोग में सुख प्रतीत होते हैं वह वास्तव में सुख नहीं बल्कि दुख ही हैं , क्षणभंगुर हैं, नखशवान है, इसलिए ज्ञानी साधक उन विषय भोग में नहीं फँसता है, क्योंकि उसको पता होता है कि यह सब क्षणभंगुर हैं। इसीलिए बुद्धिमान पुरुष शरीर के रहते ही बाहरी विषयों से अनासक्त हो करके अंतरात्मा में ही सुख , शांति को प्राप्त करते हैं। बाहरी विषय भोगों को चाहने वाला , कभी शाश्वत सुख को, शाश्वत शांति को प्राप्त नहीं हो सकता बल्कि जो विषय भोगों से आसक्ति को त्यागकर आत्मा में ही तृप्त ,शांत और संतुष्ट है, वही सुखी है। जिस साधक ने काम, क्रोध, इत्यादि आसुरी वृत्तियों पर विजय प्राप्त कर लिया है, जिसने मन सहित इंद्रियों को जीत करके परमात्मा का साक्षात्कार करके और अनासक्त होकर अपनी आत्मा में ही संतुष्ट थे, वह परमात्मा को प्राप्त होता है, अक्षय आनंद का उपभोग करता है।
भगवान योगेश्वर श्रीकृष्ण बोले, " जिसने बाहरी विषयों को त्याग दिया है, अपनी चित्त को हृदय में निरोध करके आसुरी वृत्तियों पर विजय प्राप्त कर लिया है, ऐसा साधक मुक्त है, सदा रहने वाली शांति अक्षय आनंद का अनुभव करता है। ऐसा साधक परमधाम को प्राप्त होता है अर्थात मोक्ष को प्राप्त होता है , शाश्वत शांति को पाता है।
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता रूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योग शास्त्र श्रीकृष्ण अर्जुन के संवाद के रूप में पांचवा अध्याय पूर्ण हुआ।
ओम श्री परमात्मने नमः
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