अद्वैत: वस्तुतः श्रुति कहती है कि भगवान सभी प्राणियों के हृदय में वास करते हैं। वैसे तो भगवान सर्वत्र हैं किंतु प्राप्ति के लिए हृदय में स्थित हैं। जब भगवान सभी के हृदय में बसे हैं तो लोग बाहर मूर्ति पूजा, कर्मकांड , अनंत क्रियाओं का विस्तार क्यों कर लेते है? इसके समाधान में गीता में श्रीकृष्ण कह चुके हैं कि अर्जुन, कामनाओं द्वारा जिनका ज्ञान नष्ट हो चुका है, वही मुढ़ बुद्धि मनुष्य अन्य देवताओं की पूजा करते हैं, बाहर कर्मकांड और मूर्ति पूजा रच लेते हैं। वस्तुतः मंदिर, मस्जिद, चर्च ,तीर्थ ,मूर्तियों,स्मारकों ,से उन महापुरुषों की स्मृतियाँ सँजोयी जाती है, जिससे उनके द्वारा बताए गए मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती रहे। अर्थात अवतारों की या अन्य महापुरुषों के मंदिर , तीर्थ ,चर्च, गुरुद्वारा, मस्जिद, स्मृतियां सँजोने के लिए बने थे, ताकि समाज उनके उपदेशों को ग्रहण करें और उनके बताए हुए मार्ग पर चलकर उस परम सत्य को पा ले। किंतु समय बीतने के साथ-साथ लोगों को भ्रम हो गया, उन्होंने उन महापुरुषों के उपदेशों पर ना चलकर केवल पूजा करके, इसी को परंपरा और रीती रिवाज के तौर पर उपयोग में लाने लगे। यही से रूढ़ि, परंपरा और कीरिति पनपने लगे। लेकिन वे महापुरुष हमारे आदर्श हैं , उनका आदर करना चाहिए लेकिन केवल आदर, सम्मान देकर और फल ,पुष्प अर्पण करके महापुरुषों की बताई हुई मार्ग पर ना चल कर अपनी कर्तव्य से बिमुख हो जाना कौन सी बुद्धिमानी है? अपने अपने आदर्शों के उपदेशों को सुन करके , मनन करके , हृदय में धारण करके उस पर चलने के लिए प्रीतम करणी के लिए ही मंदिरों , मस्जिदों , स्मारकों, तीर्थों, मूर्तियों का उपयोग है।
जिनको आप अपना आदर्श मानते हैं उनकी मूर्ति या मंदिर या उनसे संबंधित कोई भी वस्तु को देखने- सुनने पर अपने आदर्शों के प्रति मन में श्रद्धा जगती है, ये ठीक भी है। अवतारों की या अन्य महापुरुषों का आदर करना अच्छी बात है, लेकिन केवल उन्हें पत्र पुष्प चढ़ाने को ,पूजा करने को ही भक्ति मानना और उनके द्वारा बताए हुए उपदेशों पर ना चलकर आप उनका ही अपमान कर रहे हो। जिनको आप अपना आदर्श मानते हो, जिनको आप अपना भगवान मानते हो, अगर उनके द्वारा कही हुई बातों पर और उनके द्वारा उपदेशित मार्ग पर नहीं चल रहे तो उनका ही अपमान कर रहे हो। हमने यही किया है अपने राम, कृष्ण और अन्य अवतारों व महापुरुषों के साथ, उन महापुरुषों ने , अवतारों ने हमें जो मार्ग बताया , जो हमें उपदेश किया हम उस पर ना चल कर , उनकी ही पूजा किये जा रहे हैं यह तो उनका ही अपमान हो गया। जिनको आप अपना आदर्श मानते हो , जिनको आप अपना भगवान मानते हो, उनकी बातों का अनुसरण यदि आप नहीं करते तो उनका अपमान ही तो करते हो, भले ही उनकी पूजा करते हो, उनकी मू्र्ति पर पत्र ,फल , पुष्प आदि चढ़ाते हो। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा ,आश्रम, तीर्थ आदि इसलिए है कि उनके द्वारा उपदेशित मार्ग आपको स्मरण में बना रहे, उन महापुरुषों द्वारा बताए गए उपदेश आपको स्मरण में रहे इसीलिए उनका उपयोग सही है, लेकिन मेरी आपको उनकी द्वारा बताए हुए मार्ग उस कोई लेना-देना है नहीं आपको केवल अपनी इच्छा पूरी करने के लिए , अपना स्वार्थ पूरा करने के लिए ही मंदिर में जा रहे हो, तो ये उन महापुरुषों का घर अपमान हो गया।
अवतारों की पूजा का ये अर्थ नहीं होता कि उनको फल, पत्र, पुष्प आदि अर्पण कर रहे हैं और यज्ञ, हवन , कर्मकांड कर रहे हैं, अवतारों की पूजा का अर्थ होता है उनके द्वारा बताए हुए मार्ग पर चलकर उनके जैसा ही हो जाना, यही उनकी यथार्थ पूजा है। जिनको आप अपना आदर्श मानते हैं, उनके द्वारा बताए गए आचरण को जीवन में लाना ही उनकी यथार्थ पूजा है। अवतारों का या महापुरुषों का उपदेश सुनकर मनन करके हृदय में धारण करके उसको जीवन में, आचरण में ,ढालना ही उनकी वास्तविक पूजा है। जैसे मान लीजिए कि आपकी श्रद्धा श्रीकृष्ण में हैं तो आप श्री कृष्ण द्वारा बताए गए ज्ञान श्रीमद्भगवद्गीता और उत्तर गीता को जीवन में धारण कीजिए। ये आपकी श्रद्धा श्रीराम में है तो उनके द्वारा बताए गए ज्ञान राम गीता और योग वशिष्ठ सार को जीवन में उतारिए। यदि आपकी श्रद्धा भगवान शिव में हैं तो आप शिव गीता और ऋभु गीता को जीवन उतारिए। यदि आपकी श्रद्धा वैदिक ऋषियों में है तो उसने द्वारा उपदेशित उपनिषदों को जीवन में धारण कीजिए। और यदि आपकी श्रद्धा बुद्ध, महावीर ,मीरा, नानक ,कबीर, आदि पर है तो आप उनके द्वारा रचित ग्रंथों को जीवन में धारण कीजिए। जिनको भी आप अपना आदर्श मानते हैं , भगवान मानते हैं उनके द्वारा उपदेशित मार्गो पर चलकर जीवन में ढालना ही उनकी वास्तविक पूजा है। यदि मंदिरों ,मस्जिदों, गुरुद्वारों, तीर्थों में जाकर उनके द्वारा उपदेशित ज्ञान आपको नहीं मिलता है तो वहाँ जाकर समय ना बर्बाद करें बल्कि उनके द्वारा बताए गए उपदेशों को ग्रहण करें और जीवन में ,आचरण में लाएँ। यही उनकी पूजा है।
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