परमात्मा बाहर नहीं है इसलिए पूजा बाहर नहीं होती

अज्ञान से उत्पन्न मोह द्वारा परमात्मा सदा छिपा हुआ है। जब तक मोह है तब तक परमात्मा हमसे छुपा हुआ है। मोह को दूर करने के लिए सद्गुरु और शास्त्र की आवश्यकता पड़ती है। जैसी 10 लोगों ने मिलकर नदी पार किया और नदी पार करने के बाद कहा कि सबको गिनलो कि कहीं कोई नदी में बह तो नहीं गया? तब उसमें से एक व्यक्ति ने अपने को छोड़कर दूसरी लोगों को गिना तब गिनती में केवल 9 आदमी ही आए, क्योंकि गिनती करने में स्वयं को गिन ही नहीं रहा था कि दसवाँ वो स्वयं है। अज्ञान वश उसने कहा कि एक आदमी नदी में बह गया। फिर दसों में से दूसरे व्यक्ति ने अपने को छोड़ कर गिना, तब भी गिनती में नौ ही लोग आए क्योंकि गिनती में स्वयं को गिनता ही नहीं था। इसी प्रकार उनमें से हर एक लोगों ने स्वयं को छोड़ कर गिना और पाया कि नौ लोग ही हैं, एक आदमी नदी में बह गया है। तब उन्होंने मान लिया कि दसवाँ आदमी नदी में बह गया है और वे सब सब रोने लगे। तभी उधर से एक बुद्धिमान पुरुष आया। उसने उनको रोते हुए देखा तो पूछने लगा कि तुम लोग क्यों रो रहे हो? उन लोगों ने बताया कि हम 10 आदमी थे और नदी पार कर रहे थे, किंतु नदी में एक आदमी बह गया और हम 9 ही बचे हैं। उनकी बातें सुनकर जब उस बुद्धिमान पुरुष ने उन सभी को गिना तो वे सभी दस लोग थे। तब उसने जान लिया कि वो सब मूर्ख थे। तब उसने कहा तुम हमारे सामने फिर से गिनो। उन्होंने गिनना फिर से प्रारंभ किया और बोले हम 9 लोग ही हैं। तब उस बुद्धिमान पुरुष ने उसे बताया कि दसवाँ तुम हो। सब उन सभी को ज्ञान हो गया कि वह सब पूरे दस लोग हैं अर्थात कोई भी नदी में बह नहीं गया है।
ठीक इसी प्रकार मनुष्य अज्ञान वश परमात्मा को तीर्थों पर, पर्वतों और मंदिरों में खोजता है। वह दसवें पुरुष की तरह स्वयं को नहीं जानता है। जब सद्गुरु उसको उपदेश करता है तब वह जान जाता है कि परमात्मा उससे अलग नहीं है। इसीलिए पूर्ण गुरु और शास्त्र की आवश्यकता पड़ती है। इसपर दूसरा दृष्टांत प्रस्तुत है। एक शेर अपने परिवार से बिछुड़ कर बकरियों के झुंड में पहुंच गया। धीरे धीरे वह बकरियों की तरह बर्ताव करने लगा। वह अपने सिंहत्व को भूल गया और बकरियों जैसा जीवन जीने लगा। किंतु 1 दिन अचानक वहां शेरा आ गए और शेरों ने दहाड़ा। शेर की दहाड़ सुनकर सभी बकरियां भाग गई। किंतु जो शेर स्वयं को बकरी समझ रहा था वह नहीं भागा क्योंकि उसने सोचा कि ऐसी आवाज तो मैं भी निकाल सकता हूं। अर्थात मैं बकरी नहीं हूँ । मैं सिंह हूं। मेरा स्वरुप सिंह का है। उसी क्षण उस शेर को अपने स्वरूप उनका भान हो गया और वह जाकर शेरों की झुंड में शामिल हो गया।
ठीक इसी प्रकार हम भी अपने स्वरुप को भूल गए हैं। हम मंदिरों में और तीर्थ स्थानों परमात्मा की खोज करते हैं जबकि परमात्मा हमारे भीतर मौजूद है। इसी बात को श्रीमद्भगवद्गीता, अष्टावक्र गीता, उपनिषद ,वेदांत सभी प्रतिपादित करते हैं। भगवत गीता को गहराई से समझने के लिए ऐप इंस्टॉल करें। वीडियो सेक्शन में जाएं।