श्याम अद्वैत: अध्याय दो में श्रीकृष्ण महाराज ने अर्जुन से परमात्मा प्राप्ति के दो मार्ग बताए। पहला निष्काम कर्म मार्ग या भक्ति मार्ग और दूसरा ज्ञान मार्ग। अर्जुन ने दोनों मार्गों के विषय में संशय करते हुए श्रीकृष्ण महाराज से पूछा, भगवन् ! आप कभी भक्ति मार्ग की प्रशंसा करते हैं और कभी ध्यान मार्ग की प्रशंसा करते हैं। अतः इनमें से एक निश्चय करके मेरे लिए कहिए जो आपकी दृष्टि में श्रेष्ठ है। श्रीकृष्ण महाराज बोले , परमात्मा प्राप्ति साधन में दो विधियां मेरे द्वारा कही जा चुकी हैं कि पहला ज्ञान मार्ग और दूसरा है भक्ति मार्ग। दोनों मार्गों में कर्म तो करना ही पड़ता है, क्योंकि कोई भी पुरुष किसी भी समय एक पल के लिए भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता, प्रकृति के गुणों द्वारा विवश होकर मनुष्य कर्म करता है। जिस साधक के अंतर्गत शुद्ध सात्विक गुण की अधिकता है ,वह सात्विक कर्म करेगा , मोक्षद कर्म करेगा। जिस साधक के अंतर्गत तामसी और राजसी गुण कार्यरत हैं वो बंधनकारी कर्म करेगा। तीसरा कोई विकल्प ही नहीं है। जब तीसरा कोई विकल्प है ही नहीं, फिर भी जो विशेष रुप से मूढ़ , अविवेकी लोग कर्म इंद्रियों को बल से रोक कर बैठ जाते हैं, वे कहते हैं कि मैं पूर्ण हूँ , बुद्ध हूँ, ज्ञानी हूंँ, लेकिन श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे मिथ्याचारी है , पाखंडी हैं, धूर्त हैं।
बिना कर्म में बरतें अर्थात साधना कर्म में बिना लगे कोई भी मुक्त नहीं हो सकता।
श्रीकृष्ण महाराज बोले, " जो साधक मन सहित इंद्रियों को वश में करके, अनासक्त होकर अहंकार रहित होकर साधना कर्म में लगता है , वहीं मनुष्यों में श्रेष्ठ बुद्धि वाला है। निर्धारित की हुई यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है। कुछ लोग यज्ञ के नाम पर बाहर वेदी लगाकर तिल जौ जलाकर स्वाः बोलने लगते हैं, और उसी को यज्ञ समझते हैं, किंतु नहीं श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया कि वो यज्ञ नहीं है, बल्कि इसी लोक का बंधनकारी कर्म है। यज्ञ का अर्थ है - जीवन को शाश्वत में लगाना। विषयों में विचरती हुई अपने मन सहित इंद्रियों हृदय में निरुद्ध करके शाश्वत की प्राप्ति के लिए साधना कर्म में लगना ही वास्तविक यज्ञ है। श्रीकृष्ण ने कहा कि इस यज्ञ द्वारा तुम देवताओं की वृद्धि करो अर्थात मन सहित इंद्रियों को वश में करके दैवीय वृत्तियों को बढ़ाओ। योग साधना द्वारा धीरे-धीरे मन विषय भोगों से हटता जायेगा और हृदय में निरोध होता जाएगा। योग साधना द्वारा धीरे धीरे संसार से विरक्ति होती जाएगी और परमात्मा से अनुराग बढ़ता जाएगा। अर्थात आत्मा में स्थिति पाने के लिए दैवीय गुणों को हृदय में अर्जित करना आवश्यक है। श्रीकृष्ण महराज कहते हैं कि जो इन दैवीय गुणों को बढ़ाये बिना ही आत्मा में स्थिति पाना चाहता है अर्थात देवीय वृत्तियों को अर्जित किये बिना ही मुक्ति पाना चाहता है, वो धूर्त है, वो चोर है। इस कथन से योगेश्वर श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कर दिया कि चाहे ज्ञानमार्गी हो , चाहे निष्काम कर्म मार्गी अर्थात भक्ति मार्गी हो, सभी साधकों को आसुरी वृत्तियों का दमन करके और दैवीय वृत्तियों का सृजन करना आवश्यक है आत्मस्थ होने के लिए अर्थात मुक्ति प्राप्त करने के लिए।
इस प्रकार आसुरी वृत्तियों का दमन और दैवीय वृत्तियों का सृजन करने वाले संतजन निष्काम भाव से योग साधना में लगकर परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त करके संसार बंधन से सदा के लिए छूट जाते हैं और अक्षय आनंद को प्राप्त करते हैं। किंतु जो निष्काम भाव से इस योग साधना में नहीं लगते , वे अविवेकी जीव बार-बार संसार बंधन में पड़ते हैं, घोर दुख और पीड़ा को भोगते हैं। साधक द्वारा किया गया योग साधना ही उसे कृपा के रूप में मिलती है। योगेश्वर श्रीकृष्ण महाराज कहते हैं कि जो इस दुर्लभ मनुष्य शरीर को पाकर योग साधना द्वारा आत्मस्वरूप की ओर नहीं बढ़ता है , ऐसे इंद्रियों का आराम चाहने वाले पापी लोग जीवन व्यर्थ ही गँवा देते हैं। इस कथन से ये स्पष्ट हो गया है कि जो कोई मनुष्य योग साधना द्वारा आत्मस्वरुप की ओर नहीं बढ़ रहा , वो पापी पुरुष व्यर्थ ही जीवन जीता है, इस हिसाब से सारे संसारी लोग पापी हैं जो अपने शाश्वत स्वरूप परमात्मा की ओर नहीं बढ़ रहे। अब ये प्रश्न्न उठता है कि क्या मोह में अचेत पड़े हुए संसारी लोग संसार बंधन में ही रहेंगे या ये भघ संसार बंधन से छूट सकेंगे ?
इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण महाराज बोले, " पापियों से भी बड़ा पापी ही क्यों ना हों ज्ञान रुपी नौका वाला निसंदेह शीघ्र ही संसार सागर को पार कर जाएगा। इसका ये अर्थ कदापि न लगाएँ कि पाप करते रहो , जब चाहोगे, तर जाओगे। "
श्रीकृष्ण का आशय केवल इतना है कि जब कोई नया संसारी साधक अध्यात्म की ओर आये तो उसके अंदर यह अश्रद्धा ना बनी रहे कि मैं तो पहले बहुत पाप किया था, मुझे पार कैसे लगेगा? योगेश्वर श्रीकृष्ण महाराज केवल इतना आश्वासन देते हैं कि संसार द्वारा आये हुए नये साधकों को भी ज्ञान द्वारा शीघ्र मुक्ति मिल सकती है। आगे श्रीकृष्ण महाराज बोले , " जो साधक अपनी आत्मा में ही रत हैं आत्मा में ही तृप्त हैं, आत्मा में ही शांत और संतुष्ट हैं, उनके लिए कोई कर्म शेष नहीं रह जाता, क्योंकि वो ब्रह्म के साथ एक होकर अक्षय आनंद को प्राप्त करते हैं। ऐसे परमात्मा प्राप्ति वाले साधकों को अर्थात आत्मस्थ महापुरुषों को किसी भी प्रकार के कर्मों से कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। परमसाध्य एकमात्र परमात्मा हैं, जिनको साध लेने के बाद कुछ भी साधना शेष नहीं रह जाता। इस परमसाध्य परमात्मा में स्थित उस मुक्त पुरुष के लिए योग साधना कोई प्रयोजन नहीं रह जाता है, लेकिन फिर भी वह योग साधना में संलग्न होता है, पीछे वालों के मार्गदर्शन के लिए। ऐसा आत्मस्थ महापुरुष योग साधना में केवल लोक संग्रह के लिए लगता है, नये साधकों के मार्गदर्शन के लिए योग साधना में लगता है। ऐसा श्रेष्ठ महापुरुष जो जो आचरण करता है अन्य नये साधक भी उसका अनुसरण करते हैं, इसीलिए आत्मस्थ महापुरुष योग साधना में पीछे वाले नए साधकों के मार्गदर्शन के लिए लगता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि मुझे किसी भी समय में कुछ भी करना शेष नहीं है, लेकिन फिर भी मैं कर्म को करता हूँ क्योंकि यदि मैं कर्म में ना करूँ , तो पीछे वाले नए साधक मेरा नकल करके आत्मदर्शन पथ में भ्रष्ट हो जाएँ, इसीलिए में उन पीछे वाले नये साधकों के मार्गदर्शन के लिए कर्म में संलग्न होता हूँ।
श्रीकृष्ण महाराज ज्ञानियों और अज्ञानियों के कर्म करने के दृष्टिकोण पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि जिसप्रकार अज्ञानी मनुष्य अर्थात नए साधक कर्म करते हैं अर्थात योग साधना में लगते हैं, उसी प्रकार ज्ञानी साधक अर्थात आत्मस्थ महापुरुष भी लोक कल्याण की भावना से योग साधना में लगते हैं किंतु अज्ञानियों की अर्थात नए साधकों को योग साधना में आसक्ति होती है, जबकि ज्ञानियों की अर्थात आत्मस्थ महापुरुषों की योग साधना से आसक्ति नहीं होती है, वह लोक संग्रह की भावना से और नये साधकों के मार्गदर्शन के लिए योग साधना में लगते हैं, इसीलिए कर्म नहीं बांधते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि आत्मस्थ महापुरुषों को सावधानी पूर्वक कर्म में लगना चाहिए ताकि पीछे वाले नये साधकों का मार्ग दर्शन हो सके। साधक के कर्म गुणों के आधार पर होते हैं , अब जैसा जिसपर गुणों को प्रभाव होता है, वैसा ही उसका कर्म होता है, लेकिन फिर भी अहंकार के कारण प्रत्येक नया साधक "मैं करता हूँ" ऐसा मानता है। जबकि कर्म गुणों के आधार पर होते हैं। अब जैसा जिसके हृदय में गुण प्रवाहित है, वैसा ही उसका कर्म होगा। जबकि आत्मस्थ साधकों ने जान लिया है कि गुण के अनुसार ही कर्म होते हैं इसलिए वे कर्मों में आसक्त और अहंकार वाले नहीं होते।
योगेश्वर श्रीकृष्ण महाराज कहते हैं कि कि अर्जुन! तू अंतरात्मा में चित्त को निरोध करके, ध्यानस्थ होकर, संपूर्ण कर्मों को आत्मा में अर्पण करके, आशारहित, ममतारहित, संतापरहित होकर इस संघर्ष में अर्थात दैवीय और आसुरी वृत्तियों के संघर्ष में शामिल हो। इस संघर्ष में देवी वृत्तियों के सफल होने से तू आत्मा में प्रवेश पा जाएगा , आत्मस्थ हो जाएगा , संसार बंधन से और दुखों से सदा के लिए छुट जाएगा। श्रीकृष्ण महाराज बोले कि अर्जुन ! जो मेरे द्वारा बताए हुए इस मत के अनुसार अर्थात दैवीय वृत्तियों की वृद्धि करके आसुरी वृत्तियों का दमन करके आत्मा में स्थिति पाने के लिए योग साधना में लगते हैं, वे संसार बंधन से और समस्त दुखों से छुटकारा पाकर अक्षय आनंद प्राप्त करते हैं। लेकिन जो मोह में अचेत पड़े हुए लोग मेरे इस मत के अनुसार योग साधना में नहीं लगते , वे बार-बार संसार बंधन को और घोर दुख को प्राप्त करते हैं। जो इंद्रियों के विषय भोगों में ही आसक्त हैं, कामनाओं से युक्त उन मूढ़ बुद्धि वाले लोगों को घोर दुख मिलता है, ना कि मोक्ष। इस पर अर्जुन ने प्रश्न्न किया कि भगवन! जो आप कहते हैं लोग उस पर क्यों नहीं चल पाते? इसके उत्तर में श्रीकृष्ण महाराज बोले, " जैसे धूल से ढके हुए दर्पण में प्रतिबिंब साफ दिखाई नहीं देता, ठीक उसी प्रकार काम, क्रोध, आदि विकारों से परमात्मा का ज्ञान ढका रहता है, प्रत्यक्ष दिखता नहीं है। जो मनुष्य विषय भोगों में ही लगे रहते हैं, काम, क्रोध, इत्यादि आसुरी वृत्तियाँ जिसके अंतकरण में छायी हुई है, वो कभी संतुष्टि नहीं पाता।
ये काम , क्रोध , आदि आसुरी वृत्तियों का निवास मन , बुद्धि और इंद्रियों की अंतर्गत रहता है। इसीलिए मोक्ष की इच्छा वाले साधकों को चाहिए कि वो इंद्रियों को मन सहित हृदय निरुद्ध करलें और दैवीय वृत्तियों के सहयोग से आत्म स्वरुप की ओर बढ़ें। इंद्रियों से बलवान मन है , मन से बलवान बुद्धि है, बुद्धि से बलवान आत्मा है, वहाँ से प्रेरणा लेकर इंद्रियों और मन को वश में करना चाहिए।
इस प्रकार इंद्रियों को हृदय में निरोध करके आत्म स्वरुप की ओर बढ़ना चाहिए। इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता रूपी उपनिषद और ब्रह्म विद्या शास्त्र श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद के रूप में तीसरा अध्याय पूरा हुआ।
ओम श्री परमात्मने नमः।
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