श्याम अद्वैत : गीता का पहला अध्याय अध्यात्म में प्रवेश का है। जब कोई नया साधक अध्यात्म की ओर अग्रसर होता है, तो पारिवारिक मोह और विषय आसक्ति बाधक बनते हैं। प्रारंभ में सभी साधक यही चाहते हैं अपने मोह , आसक्ति और अज्ञान को ना त्यागना पड़े और मुक्ति भी मिल जाए। किंतु जो साधक अध्यात्म में आगे बढ़ते हैं उनको पता चलता है मोह , आसक्ति ,क्रोध, वासना , इत्यादि आसुरी वृत्तियों को छोड़ना पड़ेगा, तब वो हताश हो जाते हैं। जैसे अर्जुन हताश हो गया, वैसे ही प्रत्येक नए साधक हताश हो जाते हैं, जब उन्हें पता चलता है कि मोह ,आसक्ति , इत्यादि आसुरी वृत्तियों का त्याग करना पड़ेगा। पहले अध्याय में अर्जुना श्री विद्या देवी मृत्यु किस संघर्ष से हताश होकर श्री कृष्ण से युद्ध ना करने का आग्रह करता है। इसीलिए पहले अध्याय को संशय विषाद योग कहा गया है। केवल अर्जुन हताश हुआ था , ऐसी बात नहीं है, प्रत्येक नये साधक में मोह ,आशक्ति, वासना ,इत्यादि व्याप्त है, इसीलिए प्रत्येक नया साधक अधीर हो जाता है, हताश हो जाता है। अब दूसरे अध्याय के प्रारंभिक श्लोकों के माध्यम से श्रीकृष्ण अर्जुन को इस संघर्ष में आगे बढ़ने के लिए प्रेरणा देते हैं। प्रत्येक सद्गुरु अपने शरण में आए हुए शिष्य को इसी तरह से मोह आसक्ति, वासना, अज्ञान , इत्यादि आसुरी वृत्तियों को त्यागने के लिए प्रेरणा देते हैं।
श्रीकृष्ण महाराज बोले कि इस अलौकिक समय पर तुझे अज्ञान कहाँ से हो गया? योगेश्वर श्रीकृष्ण की इन बातों से स्पष्ट हो गया कि अर्जुन ने पहले अध्याय में जो कुछ भी तर्क प्रस्तुत किया था वो सब केवल अज्ञान मात्र था। अर्जुन पहले अध्याय में कहा था कि इस युद्ध से सनातन कुल धर्म नष्ट होगा, अपने स्वजनों को मारकर मैं कल्याण नहीं देखता, हमें पाप लगेगा, नर्क मिलेगा, स्त्रीयाँ दूषित हो जायेंगी, वर्णशंकर पैदा होंगे, इत्यादि जो कुछ भी अर्जुन ने पहले अध्याय में कुतर्क किया था, श्रीकृष्ण ने उसका खण्डन करते हुए कहा कि यह सब अज्ञान है। ना तो पहले ही किसी महापुरुष द्वारा इसका आचरण किया गया है। प्रारंभिक साधक मोह , आसक्ति, अज्ञान इत्यादि आसुरी वृत्तियों को त्यागना नहीं चाहते और मुक्ति भी पाना चाहते हैं, लेकिन ऐसा संभव नहीं है, अपने शाश्वत स्वरुप अर्थात आत्मा में स्थिति पाने के लिए इन आसुरी वृत्तियों का पार पाना अवश्य है, इन आसुरी वृत्तियों से ऊपर उठना आवश्यक है। यही बात यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण भी कहते हैं कि ये तुझे ये अज्ञान कहाँ से हो गया कि आसुरी वृत्तियों बिना को त्यागे मुक्ति मिल सकती है? श्रीकृष्ण महाराज बोले कि हे अर्जुन! हृदय की इस क्षुद्र दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़ा हो जा। आपको स्मरण रखना चाहिए कि गीता बाहरी युद्ध या मारकाट का समर्थन नहीं करता है, ये युद्ध हृदय में है, युद्ध आंतरिक है, साधक के दैवीय वृत्तियों और आसुरी वृत्तियों का संघर्ष है, जिसमें कौरव आसुरी वृत्तियों के प्रतीक हैं और पांडव दैवीय वृत्तियों के प्रतीक हैं।
श्रीकृष्ण महराज बोले कि अर्जुन! मुक्ति के लिए लिए इस संघर्ष से पीछे मत हट। हृदय की दुर्बलता को त्याग दें। अर्थात दैवीय वृत्तियों के सहयोग से आसुरी वृत्तियों का दमन करके आत्मा में स्थिति को प्राप्त करने के लिए तैयार हो जा। अर्जुन बोला, " हे मधुसूदन! अपने ही स्वजनों को मारने में समर्थ नहीं हूँ, मोह , आसक्ति और अज्ञान को त्यागने में असमर्थ हूँ। अर्जुन जिनको अपना स्वजन बताता है उन्हीं को श्रीकृष्ण शत्रु बताते हैं। वस्तुतः शरीर की रिश्ते अज्ञान से उत्पन्न होते हैं , ये मामा हैं, ये पिता हैं, ये भाई हैं , ये बंधु है, ये अपने हैं, ये पराएँ हैं ,ये सब अज्ञान ही तो है। अब आप ही बताइए कि जब शरीर ही नश्वर है, क्षणभंगुर है तो इसके रिश्ते नाते कहाँ तक साथ देंगे, जब तक मोह है तभी तक मैं और मेरेपन का भाव है , हमारा परिवार है, मोह नहीं तो कुछ भी नहीं। मोह आत्मस्वरूप में अर्थात मुक्ति में बाधक है, जब तक विषयों से, संसार से, धन से, स्वर्ग के सुख से लगाव है , तब तक भला मुक्ति कैसे मिल सकती है? अर्जुन बोला कि हे मधुसूदन ! मैं इस स्वजनों को ना मारकर इस लोक में भिक्षा का अन्न भी श्रेष्ठ समझता हूँ , यहाँ भिक्षा का अर्थ यह नहीं था कि पेट चलाने के लिए भीख मांगना। अर्जुन का आशय केवल इतना था कि हम अपनी मोह, आसक्ति, वासना, अज्ञान , इत्यादि आसुरी वृत्तियों त्यागे बिना महापुरुषों की सेवा से मुक्ति को प्राप्त करलें।
श्रीकृष्ण महाराज बोले, "अर्जुन! ऐसा संभव नहीं है, अर्थात अपने आसुरी वृत्तियों काम, क्रोध, मोह, लोभ ,वासना, अहंकार इत्यादि के समूह को बिना जीते अर्थात दमन किये कोई मुक्त नहीं हो सकता। यदि आप आत्मस्वरुप की ओर बढ़ना चाहते हैं अर्थात मुक्ति को प्राप्त करना चाहते तो आपको यह युद्ध करना ही पड़ेगा अर्थात दैवीय वृत्तियों के सहयोग से आसुरी वृत्तियों का दमन करके ही परमात्मा प्राप्ति का विधान है। अर्जुन बोला, " हे कृष्ण ! मुझ अल्पज्ञ और धर्मपथ में मोहित साधक आप रक्षा कीजिए। मैं आपकी शरण में आपसे पूछता हूँ कि जो कुछ भी मेरे लिए करना परम कल्याणकारी हो, वह साधन मेरे लिए कहिए, मुझे संभालिए, क्योंकि मैं अपका शिष्य हूँ, आपकी शरण हूँ। यहाँ अर्जुन स्वयं को श्रीकृष्ण के समक्ष पूर्ण रूप से समर्पण कर दिया। यदि इस युद्ध से मुझे पृथ्वी ही नहीं बल्कि यदि स्वर्ग भी मिल जाये तो भी मैं इस युद्ध में कल्याण नहीं देखता हूँ। स्वर्ग के आगे भी कोई सत्ता है इसकी जानकारी अभी अर्जुन को नहीं है। मोह रूपी दलदल में पड़ा हुआ अर्जुन श्री कृष्ण से बोला कि हे कृष्ण! मैं युद्ध नहीं करूंगा अर्थात आसुरी वृत्तियों काम, क्रोध, मोह लोभ ,वासना, आसक्ति, इत्यादि विकारों को नहीं त्यागूँगा। ठीक इसी प्रकार जब कोई नया साधक संसार से अध्यात्म की ओर आता है, तो मोह और आसक्ति को त्यागना नहीं चाहता और अध्यात्म से पीछे हटने लगता है।
श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं कि अर्जुन ! तू शरीर और इसके संबंधियों के लिए शोक मत कर। क्योंकि ये शरीर अनित्य है, क्षणभंगुर है, नष्ट होने वाला है इसलिए शरीर के लिए शोक करना अच्छी बात नहीं है। इस वाक्य से श्रीकृष्ण ने समस्त मानव को संबोधित करते हुए कहा है कि आप शरीर नहीं है और इस शरीर के लिए शोक नहीं करना चाहिए क्योंकि यह शरीर पल पल बदलने वाला है, क्षणभंगुर है और नष्ट होने वाला है। अर्जुन! दुख, दुख , जय, पराजय , ममता, अहंता, और आसक्ति से रहित होकर जो साधक ना किसी से द्वेष करता है और ना किसी की आकांक्षा करता है , वह अमृतपद प्राप्त करने से योग्य हो जाता है, आत्मा में स्थिति से योग्य हो जाता है। इस कथन से यह स्पष्ट हो गया कि आत्मा में स्थिति पाने के लिए पात्रता आवश्यक है, बिना योग्यता के मुक्ति नहीं मिलेगी। श्रीकृष्ण महाराज बोले कि हे अर्जुन ! जो इस आत्मा को मरने वाला और मरा हुआ समझता है, वे दोनों ही इस आत्मा को नहीं जानते, क्योंकि ये आत्मा ना तो कभी जन्म लेता है और न ही मरता है, ये आत्मा नित्य , शाश्वत , सनातन, पुरातन , सनातन, अजन्मा है। ये आत्मा नाशरहित ,जन्मरहित, अव्यक्त , अविनाशी है। इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते , इसे अग्नि जला नहीं सकती, जल गीला नहीं कर सकता और ना ही वायु इसे सुखा सकता है।
ये आत्मा अचल , स्थिर, सर्वश्रेष्ठ, सर्वव्यापी, शाश्वत और सनातन है। आत्मा इन इंद्रियों से नहीं जाना जा सकता और ना ही मन , बुद्धि से समझा जा सकता है। उपरोक्त जो लक्षण सुनाए गए वो सब आत्मा के लिए है, हमारे लिए उनका क्या उपयोग है? इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो साधक वासनाओं और इंद्रियों को वश में करके इस आत्मा में स्थिति पा लेता है, वह अमर हो जाते है अर्थात संसार के जन्म मरण के दुख से छूट जाता है , संसार के समस्त दुखों से मुक्त हो जाता है और अक्षय आनंद को प्राप्त करता है। हे अर्जुन! तू शरीर के लिए शोक मत कर क्योंकि ये सदा जन्मने वाले और मरने वाले हैं, परिवर्तनशील , क्षणभंगुर और नाशवान हैं। यदि हम भी उपरोक्त साधन के द्वारा आत्मा में स्थिति पा जाते हैं तो हम भी अमृतपद को प्राप्त कर लेंगे अर्थात संसार के दुखों से छूटकर शाश्वत, सनातन ब्रह्म में प्रवेश पा लेगें। अर्थात जो मनुष्य जन्म मरण से छूटना चाहते हैं, संसार के दुखों से मुक्ति पाना चाहते हैं , अमर होना चाहते हैं वो अध्यात्म की ओर आयें, और साधन करके आत्मा में स्थिति पाकर मुक्ति प्राप्त करलें। समस्त दुखों से मुक्ति पाने के लिए और अक्षय आनंद को प्राप्त करने के लिए अध्यात्म की ओर आएँ।
अब श्रीकृष्ण अर्जुन को इस संघर्ष से पीछे ना हटने के लिए प्रेरणा करते हैं कि अर्जुन ! इस संघर्ष में पीछे हट कर तू पाप को प्राप्त करेगा अर्थात संसार बंधन को प्राप्त हो , घोर दुख का भागी बनेगा। अर्थात नए साधकों को सद्गुरु प्रेरणा करते हैं कि यदि साधक मोह,आसक्ति, अज्ञान, इत्यादि आसुरी वृत्तियों पर विजय प्राप्त करके आत्मा में स्थिति पाने के लिए संघर्ष में परिवर्तन नहीं होगा, तो घोर दुख को प्राप्त करेगा , संसार बंधन को साथ करेगा। जो साधक इस आत्मा के पथ में आगे बढ़ चुके हैं, वे आत्मस्थ महापुरुष लोग तेरी निंदा करेंगे, डर से तुझे उपराम हुआ मानेंगे। लोग तेरी अपकीर्ति करेंगे और माननीय महापुरुषों के लिए अपकीर्ति मरने से भी बदतर है। इसीलिए तू दुख , सुख ,हानि, लाभ से रहित होकर युद्ध के लिए तैयार हो जा। अर्थात दैवीय गुणों के सहयोग से आसुरी वृत्तियों का दमन करके आत्मा में स्थिति पाने के लिए इस संघर्ष में लड़ने के लिए तैयार हो जा। श्रीकृष्ण ने कहा कि इस साधन में लगने वाले साधक को जन्म मरण के भय से मुक्ति मिल जाती है, क्योंकि पीछे श्रीकृष्ण कह चुके हैं कि आत्मा ना तो मारता है, ना ही जन्म लेता है। आत्मा के बारे में ये तत्वज्ञान साधक को जन्म मरण के डर से मुक्ति दिला देता है। आगे श्रीकृष्ण कहते हैं जो मनुष्य स्वर्ग सुख को ही सर्वश्रेष्ठ मानता है, ऐसा कामनाओं से युक्त अविवेकी मनुष्य संसार बंधन में पड़ता है और घोर दुख पाता है। ऐसा अविवेक लोगों की वाणी को जो सुनता है, उनकी भी बुद्धि नष्ट हो जाती है।
विषयों में आसक्ति वाले और कामनाओं से युक्त मूढ़ बुद्धि वाले मनुष्य ही ऐसे लोगों की वाणी को सुनते हैं , मोक्ष का अधिकारी नहीं सुनता , मुमुक्षु साधक नहीं सुनता। अब श्रीकृष्ण आत्मस्थ महापुरुष के लक्षण बताते हुए कहते हैं जो साधक आत्मा में स्थिति वाला है, ऐसे मुक्त पुरुषों के लिए वेद, उपनिषद का विशेष महत्व नहीं रह जाता क्योंकि वेदों और उपनिषदों में जिस परमात्मा की प्राप्ति का विधान है, वह महापुरुष परमात्मा को
प्राप्त हो चुका है, आत्मा में स्थिति वाला है, जैसे समुद्र की गहराई को प्राप्त करने वाला मनुष्य छोटे जलाशयों से विशेष कोई प्रयोजन नहीं रखता उसी प्रकार आत्मस्थ महापुरुष वेदों से ऊपर हो जाता है। साधक यहाँ विशेष ध्यान दें कि वेदों का उपयोग उनके लिए है जो आत्मा में स्थित नहीं है, जो अभी मुक्त नहीं हुए हैं, किंतु जो मुक्त हो चुके हैं, आत्मा में स्थिति पाकर आत्मस्थ हो चुके हैं, ऐसे कोई विरले महापुरुष वेदों से ऊपर हो जाते हैं, क्योंकि वेदों में जिस परमात्मा का वर्णन है, वो परमात्मा अब उनसे भिन्न नहीं रह गया।
श्रीकृष्ण अर्जुन को बार-बार युद्ध करने के लिए प्रेरित करते हैं किंतु एक भी ऐसा श्लोक नहीं जो बाहरी युद्ध या मारकाट का समर्थन करता हो, युद्ध आंतरिक है, दैवीय और आसुरी वृत्तियों का संघर्ष है, हृदय में है, बाहर नहीं।
श्रीकृष्ण महाराज बोले, जिस समय साधकों की बुद्धि मोह रूपी दलदल से ऊपर हो जाती है, उस समय वह साधक सुनने योग वचनों को सुन पाता है और करने योग्य क्रियाओं को कर पाता है, जब साधकों की बुद्धि समाधिस्थ होकर अचल ठहर जाती है तो वो समत्व योग को अर्थात अक्षय आनंद को प्राप्त होता है। जब मनुष्य मन में व्याप्त संपूर्ण कामनाओं को सदा के लिए त्याग कर देता है, तब वो अपनी आत्मा से ही आत्मा में ही संतुष्ट रहता है और कामनाओं को त्यागकर आत्मा में स्थिर रहकर अक्षय आनंद को प्राप्त करता है। जो सुख दुख में समान भाव समझता है , जिसका राग , भय , क्रोध सब नष्ट हो चुका है, ऐसा साधक अक्षय आनंद को प्राप्त करता है। जैसे कछुआ अपने अंगों को सब तरफ से समेट लेता है वैसे ही जो साधक अपनी विषयों में विचरण करती हुई मन सहित इंद्रियों को हृदय में समेट लेते हैं, वो अक्षय आनंद को प्राप्त करते हैं। जो सर्वथा अनासक्त है , जिनसे आसुरी वृत्तियों पर विजय प्राप्त कर लिया है, वह परमात्मा का साक्षात्कार करके मुक्त हो जाता है।
श्रीकृष्ण प्रत्येक साधकों को सचेत करते हैं कि विषयों को चिंतन नहीं करना चाहिए, इससे कामना ,आसक्ति ,अविवेक, भ्रम उत्पन्न होते हैं, अच्छे बुरे का विचार नहीं रह जाता और विचार न रहने के कारण आप दर्शन से भ्रष्ट हो जाते हैं।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो आत्मस्थ है उसके लिए कोई कर्म शेष नहीं रह जाते हैं लेकिन जो संसार बंधन में है उसे सावधानी पूर्वक योग साधना में संलग्न होना चाहिए ताकि सदा रहने वाले शाश्वत शांति को प्राप्त कर सकें। जो लोग विषय भोगों में ही आसक्ति वाले और संसार में ही सुखी कामना वाले हैं , उन अविवेकीयों परमात्मा दिखाई नहीं देते हैं। जो सब प्रकार कै विषय भोगों से सर्वथा अनासक्त है वह अपने हृदय में ही आत्मा का दर्शन करता है और शाश्वत शांति को प्राप्त कर लेता है। आत्मस्थ महापुरुष को विषय भोग चलायमान नहीं कर पाते। जो साधक संपूर्ण कामनाओं को त्याग देते हैं और अहंकार रहित होकर अपनी आत्मा में ही संतुष्ट हैं , वह परम शांति को प्राप्त होते हैं। यह आत्मस्थ महापुरुष के लक्षण हैं जो श्रीकृष्ण द्वारा उद्घाटित हुएँ हैं।
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता रूपी उपनिषद और योग शास्त्र का दूसरा अध्याय पूरा हुआ।
ओम श्री परमात्मने नमः
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