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वेदांत , उपनिषद और गीता प्रचारक

श्रीमद्भागवद्गीता : चतुर्थ अध्याय

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय चतुर्थ : व्याख्या


श्याम अद्वैत: अध्याय तीन में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने विश्वास दिलाया दिया कि जो मेरे इस मत के अनुसार आचरण करेगा , वो जन्म मरण के बंधन से छूट जाएगा। अब चौथे अध्याय के पहले श्लोक में योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह योग मैंने कल्प के आरंभ में विवशवान से कहा था।
अर्थात जो भी विवश प्राणी है, इनके प्रति श्री कृष्ण भगवान ने अर्थात किसी सद्गुरु ने भजन के आरंभ में कहा था। जब यही योग मन में आत्मसात हो जाता है, तो यही मनु का कहना है, और जब यही योग मन में जागृत हो जाती है तो परमात्मा प्राप्ति के लिए इच्छा उत्पन्न हो जाती है यही इक्ष्वाकु से कहना है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि इच्छा जागृत होने से ये योग आचरण में ढल जाता है और उन्नति होते होते परमात्मा की स्थिति को दिला देता है। वही योग श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रति कहने जा रहे थे। क्योंकि अर्जुन श्रेय की इच्छा वाला साधक था। 

प्रश्न्न- पाँचवे और छठवें श्लोक में विरोधाभास बातें श्रीकृष्ण करते हैं। पाँचवे श्लोक में कहते हैं कि तेरे और मेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं, छठवें श्लोक में कहते हैं कि मैं अजन्मा और अव्यक्त होते हुए भी अपनी आत्म माया से प्रकट होता रहता हूँ। इसका आशय क्या है?
अद्वैत : जब योगेश्वर श्रीकृष्ण तेरे अर्थात अर्जुन के जन्म की बात करते हैं तो वास्तव में वो अहंकार की बात करते हैं, अहम् वृत्ति प्रतिपल प्रकृति में जन्मती रहती है, और जब अपने जन्म की बात करते हैं तो उससे उनका आशय होता है कि साधक के अहम् वृत्ति का मिट कर आत्मा में सिमट जाना ही श्रीकृष्ण के जन्म की बात है अर्थात किसी आत्मस्थ महापुरुष के जन्म की बात है। देखिए जब कोई संसारी मनुष्य अध्यात्म में आता है और अध्यात्म में काफी उन्नति कर लेता है, तो जो पुराना व्यक्ति है ,उसका नया जन्म हो जाता है, शरीर से नहीं , बल्कि अहम् भाव से साक्षी भाव तक। पहले प्रत्येक संसारी मनुष्य अहम् भाव में जीता है। 
योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं अविनाशी , अजन्मा, सर्वव्यापी हूँ।

योगेश्वर श्रीकृष्ण महाराज बोले कि अर्जुन! जब साधक काम ,क्रोध , आदि आसुरी वृत्तियों से पार नहीं पाते , तब तब मैं उस साधक के हृदय में आविर्भाव लेकर इन आसुरी वृत्तियों का दमन करता हूँ और आत्मस्वरूप तक दूरी तय कराता हूँ।
अर्जुन, जो साधक आत्मा का साक्षात्कार करके उसमें स्थिति पा जाते हैं, ऐसा विरला साधक जन्म - मरण के बंधन से छूट कर अक्षय आनंद को प्राप्त करते हैं।

श्रीकृष्ण महाराज बोले कि, अर्जुन ! जो राग-द्वेष , सुख-दुख, मोह, आसक्ति, अहंकार, आदि द्वंद्वों से रहित होकर अन्य बाहरी किसी विषयों ना चिंतन करता हुआ ज्ञान द्वारा आत्मा में स्थिति पा चुका है, अर्थात मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुका है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि तु नियत कर्म कर! कर्म की परिभाषा बताते हुए बताया कि कर्म कोई ऐसा आचरण है जो शाश्वत, सनातन आत्मा में स्थिति दिलाता है, अर्थात संसार बंधन से मुक्ति दिलाने वाला है।
श्रीकृष्ण महाराज कहते हैं कि मैंने मनुष्य को उनके गुणों और कर्मों के आधार पर बाँटा। मैं कर्म करते हुए भी अकर्ता हूँ, क्योंकि मैं कर्मों के परिणाम परमात्मा में स्थित हूँ। जो भी मुझे तत्व से जान लेगा अर्थात ब्रह्म को तत्व से जान लेगा, वो आत्मस्थ होकर मोक्ष को प्राप्त करता हैं। अब योगेश्वर श्रीकृष्ण कर्म की परिभाषा बताते हुए कहते हैं कि कर्म क्या है? अकर्म क्या है? इस विषय में बुद्धिमान पुरुष भी मोहित हैं इसीलिए कर्म को भी जानना चाहिए अकर्म को भी जानना चाहिए और विकर्म को भी जानना चाहिए।
जो साधक मोक्षद कर्म करे और यह भी समझे कि करने वाला मैं नहीं बल्कि गुणों के आधार पर कर्म हो रहे हैं, वही यथार्थ कर्मों को करने वाला है।
जो साधक कामना रहित अहंकार रहित होकर गुणों के आधार पर कर्म में बरतता है वही योगी है , वही सन्यासी है। जिस साधक की मन सहित इंद्रियां जीती हुई है , जो विषयों से सर्वथा आना सकता है, वह शरीर की मूलभूत आवश्यकताओं के लिए कर्म करता हुआ भी कर्मों में लिप्त नहीं होता।

जो कुछ भी स्वतः प्राप्त हो उसी में संतुष्ट रहने वाला तथा हर्ष और शोक में , सुख और दुख में , हानि और लाभ में समभाव रहने वाले योगी पुरुष कर्म करते हुए भी नहीं करता है। जो बाहरी विषय वस्तुओं में आसक्ति को त्याग करके अपनी आत्मा में ही संतुष्ट , तृप्त और शांत है, वही सुखी है। बाहरी विषय भोगों को चाहने वाले को कभी शांति नहीं मिलती है। योगेश्वर श्रीकृष्ण महाराज बोले कि अर्जुन! यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है। और सब प्रकार के यज्ञों में ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठ है, इसलिए अर्जुन उसी ज्ञान यज्ञ के द्वारा संसार बंधन से मुक्ति को प्राप्त कर अर्थात मुझे प्राप्त कर। श्रीकृष्ण को प्राप्त होना अथवा मुक्ति को प्राप्त होना अथवा परमात्मा को प्राप्त होना अथवा आत्मस्थ होना अथवा ब्रह्मलीन होना, एक ही बात है। योगेश्वर श्रीकृष्ण महाराज बोले पहले किसी तत्वदर्शी महापुरुष के पास जाकर उनसे परमतत्व परमात्मा का अर्थात ब्रह्म ज्ञान का उपदेश करना चाहिए, उन महापुरुषों की सेवा और सानिध्य से साधकों की स्वभाव में सत् गुण आते हैं। उन महापुरुषों द्वारा बताए हुए जान को आचरण में ढाल करके साधक मोह का उल्लंघन कर जाएगा और आत्मा में स्थिति पा जाएगा। योगेश्वर श्रीकृष्ण महाराज बोले कि पापियों से भी बड़ा पापी ही क्यों ना हो , ज्ञान के द्वारा शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाएगा और संपूर्ण पापों से छूट करके मुक्त हो जायेगा।

योगेश्वर श्रीकृष्ण महाराज आश्वासन देते हैं कि आपके अंदर ये भाव ना बैठी रहे कि हमने बहुत पाप किये हैं, हमें मुक्ति नहीं मिलेगी। इस ज्ञान के द्वारा बहुत सारे साधक शुद्ध होकर आत्मा में स्थिति पा चुके हैं। जिस साधक ने अपनी इंद्रियों को और मन को वश में किया हुआ है जो साधनापथ पर अग्रसर है, ऐसा श्रद्धावान साधक ज्ञान के द्वारा मुक्त हो चुका है, परम शांति पा चुका है। ज्ञान का अर्थ आप यह न लगाएँ कि कुछ भी जान ले और मुक्त हो जाएँ, श्र कृष्ण कहते हैं कि सब विद्याओं में ब्रह्म विद्या ही श्रेष्ठ है, परमात्मा का तत्व सहित जानकारी ही शुद्ध ज्ञान है। श्रीकृष्ण महाराज बोले, "अर्जुन ! कामनाओं के द्वारा जिसका ज्ञान अपहरण किया जा चुका है , जो श्रद्धा रहित हैं, ऐसा पुरुष परमात्मा पथ में भ्रष्ट हो जाता है और ऐसे मनुष्य को कभी शांति, मुक्ति नहीं मिलती है। इसलिए अर्जुन तू मेरे मत के अनुसार हृदय में विद्यमान संशय और कामनाओं को त्याग करके परमात्मा प्राप्ति के लिए इस संघर्ष में तत्पर हो जा अर्थात दैवीय वृत्तियों और आसुरी वृत्तियों संघर्ष के लिए तत्पर हो जा। इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता रूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या और योगशास्त्र कृष्ण और अर्जुन के संवाद के रूप में श्रीमद्भगवद्गीता का चौथा अध्याय पूरा हुआ।

ओम श्री परमात्मने नमः
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