मीरा जी कहती है कि मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई , तात मात भ्रात बंधु अपनों ना कोई। यह मीरा का बोध है, ज्ञान है। गिरधर गोपाल माने वही कृष्ण नहीं जो यशोदा के घर माखन चुरा कर खाया करते थे। कृष्ण माने चेतन्य, कृष्ण माने आत्मा ,कृष्ण माने ब्रह्म। तो जब मीरा कहती हैं कि मेरे तो गिरधर गोपाल तो उनका आशय है कि मैं चेतन्य मात्र हूँ। आगे मीरा कहती है कि तात मात भ्रात बंधु अपनों न कोई , तब उनका आशय है कि मैं मन नहीं , बुद्धि नहीं, चित्त नहीं, अहंकार नहीं ,शरीर नहीं, मैं मात्र चेतन्य हूँ। मीरा को ज्ञान प्राप्त हुआ गुरु रैदास के सानिध्य में। पहले मीरा स्वयं को शरीर, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार ,आदि माने बैठे हुई थी, इसीलिए वह दुखी थी, किंतु गुरु की सानिध्य में ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात स्वयं कहती है कि मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई अर्थात मैं चैतन्य मात्र हूँ, मैं ना मन हूँ, न शरीर हूँ, न बुद्धि हूँ, न चित्त हूँ, न अहंकार हूँ। मीरा को गुरु की कृपा से बोध प्राप्त हुआ है।
महाभारत में भी कर्ण किसका प्रतीक है? वो जिसके पास सब कुछ है , बहुत बड़ा दानवीर है , किंतु आत्म बोध नहीं है। जिसे बोध नहीं , उसके पास बहुत कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है, जिसके पास बोध नहीं, ज्ञान नहीं, आत्मा नहीं, वो पशु तुल्य है।
कृष्ण को सदा साथ रखने का अर्थ ये नहीं है कि हरे कृष्ण हरे कृष्ण कह रहे हैं, और ढोल नगाड़े बजाकर के शोर- शराबा कर रहे हैं उछल उछल कर नाच रहे हैं , और कूल्हे मटका रहे हैं, बौराये घूम रहे हैं। इस्कॉन वालों ने यही करा है। उन्होंने भगवद गीता का ऐसा गलत अर्थ निकाला है कि वह उपनिषदों के एकदम विरुद्ध है। जबकि गीता भी एक प्रकार का उपनिषद ही है। कृष्ण को सदा साथ रखने का अर्थ है कि बोध में जीना, होश में जीना । कृष्ण को सदा साथ रखने का अर्थ है मुक्ति की ओर बढ़ना, सत्य ओर बढ़ना और सत्य की ओर बढ़ने में जो कुछ भी बाधक बने उसको त्यागते चलना। अध्यात्म का सीधा संबंध त्याग से है और अगर आप त्याग नहीं जानते तो काहे का आध्यात्म। मीरा जी कहती हैं कि मेरे तो गिरधर गोपाल तो वास्तव में वो कहती हैं कि मैं चैतन्य मात्र हूँ , आत्मा मात्र हूँ। और फिर आगे कहती हैं कि तात , मात, भ्रात, बंधु अपनो न कोई। वास्तव में उनका आशय है कि न मैं चित्त हूँ, ना मैं अहंकार हूँ, न मैं शरीर हूँ, न मैं मन हूँ, न मैं बुद्धि हूँ।
हमें स्वयं के बारे में कुछ भी पता नहीं है कि हम वास्तव में हैं कौन?, इसलिए हमने कुछ अपने आप को मान रखा है। और जो हम हैं नहीं लेकिन हमने मान रखा है, तो यही दुख का कारण है, यही बंधन है।
ठीक यही हालत अर्जुन की भी है। उसकी कुछ पौराणिक मान्यताएं हैं, कुछ धारणाएं हैं, कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण के समक्ष अर्जुन एक से एक कुतर्कों का जाल बुनना शुरू कर देता है, कभी कहता है कि युद्ध से सनातन धर्म का नाश होगा क्योंकि कुल धर्म ही सनातन है, कभी कहता है कुल की स्त्रियां दूषित हो जाएंगी, कभी कहता है मेरा त्वचा जल रही है, मेरे हाथ कांप रहे हैं। तब योगेश्वर श्रीकृष्ण उसके हर एक कुतर्क का निराकरण करके सत्य को प्रतिपादित करते हैं और कहते हैं कि आत्मा ही सत्य है और सत्य ही सनातन धर्म है। गीता के समापन पर अर्जुन कहता है कि हे भगवन् ! मेरा मोह नष्ट हो गया मेरी स्मृति वापस आ गई है और अब मैं वैसा ही करूंगा जैसा आप ने उपदेश किया है।
तो जो हरि का सुसंस्कृत भजन है वह बहुत गहरे अर्थ को प्रतिपादित करता है किंतु जनमानस सामान्य अर्थ ही निकाल पाता है , आध्यात्मिक अर्थ के लिए उसे किसी सच्चे गुरु के सानिध्य में जाना पड़ेगा। आपने छठवीं और आठवीं क्लास में जो कुछ भी दोहा इत्यादि और संस्कृत में श्लोक इत्यादि पढ़ा है उसका वास्तविक अर्थ आपको अभी पता ही नहीं है। सामान्य अर्थ तो अध्यापक ने बता दिया था किंतु जो उसका गहरा और आध्यात्मिक अर्थ है उससे आप वंचित ही रह गए।
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