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𝗟𝗮𝗻𝗴𝘂𝗮𝗴𝗲

वेदांत , उपनिषद और गीता प्रचारक

दुर्गा सप्तशती

देवी कौन? असुर कौन? : दुर्गा सप्तशती का आध्यात्मिक सार

कहानी कहती है कि राजा सूरथ अपने राज्य के छिन जाने के बाद और वैश्य समाधि अपने परिवार वालों के द्वारा घर से निकाले जाने पर मेधा मुनि के आश्रम में पहुंचे। यहीं से कथा आरंभ होती है। वैश्य को घर से निकाले जाने के बाद भी परिवार वालों से मोह छूट नहीं रहा था और राजा सूरथ का राज्य छिन जाने के बाद भी राज्य से ममता, मोह छूट नहीं रही थी, इसीलिए दोनों दुखी थे। अपने दुख को व्यक्त करते हुए दोनों (राजा और वैश्य) मेधा ऋषि से इस बारे में शंका करते हैं।
इस पर ऋषि बोले- यह महामाया देवी का प्रभाव है। ये देवी प्रसन्न होने पर संसार बंधन से मुक्ति दिलातीं हैं। ये देवी ही सम्पूर्ण चराचर जगत की सृष्टि करती हैं।
राजा सुरथ ने पूछा - जिस देवी महामाया की आप बात करते हो, वो देवी कौन हैं? उनका आविर्भाव कैसे होता है? उन देवी का क्या स्वरूप है?
ऋषि बोले - हे राजन! वास्तव में वो देवी नित्य स्वरुपा हैं। सारा जगत उन्हीं का रूप है। उन देवी ने ही सारे संसार को व्याप्त कर रखा है। वो देवी नित्य और अजन्मा हैं। अर्थात देवी ही एकमात्र सत्य स्वरूपा हैं और वो कभी जन्म नहीं लेती हैं, परंतु साधकों की कार्य सिद्ध करने के लिए, साधकों की रक्षा के लिए अवतरित होती हैं। ध्यान दीजिए यही बात श्रीमद् भगवद गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रति कहते हैं। अर्थात सत्य एक ही है, कभी कृष्ण के रूप में , कभी दुर्गा के रूप में , कभी किसी अन्य रूप में।
कहानी कहती है कि जब भगवान विष्णु योग निद्रा में थे उनके कानों के मैल से दो असुर हो गए जो मधु और कैटभ नाम से जाने जाते हैं। यह बात भी सांकेतिक है जब साधक भगवान विष्णु अर्थात विश्व में अणु रूप में व्याप्त अर्थात सर्वव्यापी देव कि साधना में लगता है तो काम ,क्रोध, इत्यादि आसुरी वृत्तियाँ बाधा के रूप में खड़ी हो जाती है। ये आसुरी वृत्तियाँ ही हमें योग साधना में लगने नहीं देती , हमारा मन चलायमान करती हैं। ये आसुरी वृत्तियाँ ही राक्षस हैं। कहानी आगे कहती है कि यह असुर ब्रम्हा जी को मारने के लिए उद्यत हो गए। यह बात भी सांकेतिक है कि जब साधक योग साधना में लगता है तो तो ये आसुरी वृत्तियाँ उसे योग साधना में लगने नहीं देती और संसार बंधन अर्थात मृत्यु की ओर खींचती हैं। 
तब साधक को इसी सत्य के स्वरूपा देवी का स्मरण करना चाहिए। कहानी आगे कहती है ब्रह्मा जी ने भगवान विष्णु को योग निद्रा से जगाने के लिए तमोगुणी महामाया देवी की स्तुति किया। तब भगवान विष्णु जी ने उन असुरों से 5000 वर्षों तक बाहु युद्ध किया। असुर भी बलवान और पराक्रमी थे तथा भगवान विष्णु भी अत्यंत बलवान और पराकर्मी थे। आगे कहानी कहती है कि देवी महामाया ने असुरों को मोहित कर दिया था, अर्थात मोह में डाल दिया।
मोहवश असुरों ने भगवान विष्णु की पराक्रम को देखकर कहा कि मुझसे वर माँगो। तो भगवान विष्णु ने अपने हाथों से उनकी मृत्यु का वर माँगा। परंतु वर देते समय असुरों ने कहा कि जहाँ जल ना हो वहाँ मुझे मारना। इतना सुनने के बाद भगवान विष्णु ने अपनी जाँघ पर दोनों का सिर रख कर सुदर्शन चक्र से काट दिया।
इस प्रकार महामाया देवी ब्रम्हा जी के स्तुति करने पर प्रकट हुई थी। यह बात भी सांकेतिक है कि जब हम (साधक) प्रकृति से परमात्मा की ओर बढ़ेंगें, तो इन आसुरी वृत्तियों को नष्ट करने के लिए देवी साधक के अंतःकरण में अवतरित होंगी। अर्थात् अवतार बाहर नहीं होता, साधक के अंतकरण में व्याप्त आसुरी वृत्तियों का विनाश करने के लिए देवी साधक के अंतकरण में अवतरित होती हैं। इस कथन से यह तो स्पष्ट हो गया कि अवतार बाहर नहीं होता तो लोग बाहर भीड़ क्यों लगाए बैठे हैं कि अवतार होगा तो दर्शन करेंगे। प्रायः मनुष्य के अंतःकरण में दैवी और आसुरी वृत्तियाँ अनादि काल से हैं। जब मनुष्य दैवीय वृत्तियों (गुणों) के सहयोग से अपने आत्म स्वरूप (अर्थात परमात्मा या ब्रह्म ) की ओर बढ़ता है , तो तो आसुरी वृत्तियाँ बाधा से रूप में खड़ी हो जाती है, वह साधकों को मुक्ति की ओर अर्थात ब्रह्म की ओर बढ़ने नहीं देतीं, इन आसुरी वृत्तियों का दमन करने के लिए देवी का अवतार साधक के अंत:करण में होता है।
वास्तव में देवी, देवता, अवतार आंतरिक सद् गुणों (क्षमा ,दया, सरलता ,संतोष ,समता, त्याग, इत्यादि को) कहा जाता है , किंतु समय बीतने के साथ-साथ लोगों में भ्रम हो गया , और उन्होंने बाहर देवी - देवताओं और अवतारों की प्रतिमा बना ली और पूजा करने लगे। बाहरी देवी देवताओं की पूजा का निराकरण भगवान श्री कृष्ण ने, श्री राम ने और कबीर जैसे अन्य महापुरुषों ने करा है। कबीर साहेब कहते हैं कि बाहरी शरीर को नहलाने और धोने से क्या फायदा ? , जब तक अंतःकरण की शुद्धि नहीं होती तब तक भौतिक शरीर को नहलाने से कोई फायदा नहीं।
श्रीमद् भगवद गीता में भी श्री कृष्ण अर्जुन को अंतः करण को स्वच्छ करने की बात करते हैं। गीता में जब जब श्री कृष्ण अर्जुन को युद्ध करने को कहते हैं तो वास्तव में श्री कृष्ण का आशय है कि साधक को अपने अंतःकरण में व्याप्त आसुरी वृत्तियों को मारना है। श्रीकृष्ण भौतिक युद्ध की बात नहीं करते। अंतः करण की शुद्धता की बात करते हैं। साधक के अंतकरण की आसुरी वृत्तियों का दमन करने के लिए देवी साधक के अंतःकरण में अवतरित हुईं हैं। श्री कृष्ण ने कहा कि मेरा जन्म दिव्य है, इसे देखने वाला मझे प्राप्त होता है, तो लोगों में उनकी मूर्ति बना ली, पूजा करने लगे तथा आकाश में कहीं उनके निवास की कल्पना करने लगे। किंतु ऐसा कुछ भी नहीं है। श्रीकृष्ण का आशय था, कि जो आपकी ऊँची से ऊँची संभावना हो सकती हैं वह मैं हो गया हूँ।
ऋषि आगे कहते हैं कि पूर्व कॉल में देवताओं और असुरों के बीच भीसड़ युद्ध हुआ, उस यूद्ध में देवताओं के पक्ष के प्रधान इंद्र थे और असुरों की सेना में प्रधान महिषासुर नामक आसुर था। यह बात सांकेतिक है- असुर माने आसुरी वृत्तियाँ और देवता माने देवीय वृत्तियाँ। जब साधक दैवीय वृत्तियों के सहयोग से आत्म स्वरुप की ओर बढ़ता है, अर्थात परमात्मा की ओर बढ़ता है, तो आसुरी वृत्तियाँ बाधा की रूप में खड़ी हो जाती हैं। इन आसुरी वृत्तियों का पार पाना ही वास्तविक युद्ध है। यह युद्ध अंतकरण में है। इसीलिए देवी का अवतार साधक के अंतः करण होता है , बाहर नहीं। 
ऋषि आगे कहते हैं कि देवताओं और असुरों के युद्ध में देवता परास्त हो गए और उन्होंने जाकर के महादेव और भगवान विष्णु से प्रार्थना किया कि असुरों का नाश करने के लिए उपाय बताएँ। तब ब्रम्हा ,विष्णु ,महेश, तथा अन्य देवताओं के तेज से देवी दुर्गा अवतरित हुईं। यह बात भी सांकेतिक है कि साधक आसुरी वृत्तियों से व्याकुल होकर परमात्मा से प्रार्थना करते हैं कि हे परमात्मा! हमें हम से बचा ले अर्थात हमारे अंतःकरण में व्याप्त आसुरी वृत्तियों का नाश कीजिए। क्योंकि ये आसुरी वृत्तियाँ हमें आप तक पहुंचने में बाधक के रूप में खड़ी हो जाती है, अर्थात ये आसुरी वृत्तियाँ हमें मुक्ति की ओर बढ़ने नहीं देती, आत्मा की ओर बढ़ने नहीं देती, आत्मस्थ होने की ओर बढ़ने नहीं देती, सत्य की ओर बढ़ने नहीं देती।
ऋषि आगे युद्ध का वर्णन करते हुए कहते हैं कि देवी और असुरों के बीच युद्ध शुरू हो गया। देवी की आंखें क्रोध से लाल हैं। देवी अपने अस्त्र और शस्त्र से असुरों पर प्रहार करती हैं। देवी का वाहक सिंह भी असुरों का दमन करता हुआ विचर रहा है। महिषासुर अपनी सेना को क्षीण होते देखकर भैंसे का रूप ले लिया है। और अपनी खुरों और सींग से प्रहार कर रहा है। इसके के बाद महिषासुर अनेक रुप धारण करके देवी पर प्रहार करने का प्रयास कर रहा है। महिषासुर कभी भैंसे का रूप ले लेता है, कभी हाथी का, सभी शेर का रूप ले लेता है। यह बात भी सांकेतिक है कि जब साधक अपने साश्वत स्वरूप परमात्मा की ओर बढ़ता है, तो आसुरी वृत्तियाँ अनेक अनेक विघ्न करता है, साधक को आत्म स्वरूप की ओर बढ़ने नहीं देता। प्रकृति की ओर खींचता है। परमात्मा की ओर बढ़ने नहीं देता। ऋषि आगे कहते हैं कि अंततः युद्ध करते करते देवी ने महिषासुर का सिर धड़ से अलग कर दिया। इस युद्ध में महिषासुर मारा गया। महिषासुर के मर जाने पर समस्त देवताओं ने देवी का स्तुति किया। यह बात भी सांकेतिक है जब धीरे-धीरे साधक के देवी गुण आसुरी वृत्तियों को नाश कर देते हैं तो देविय गुण भी शांत हो जाते हैं। आशुरी वृत्तियाँ नष्ट हो जाने पर अब आगे कोई बचा नहीं जिसको देवी नष्ट करें, अतः अंत में देविय गुण भी पूर्णत्व के साथ शांत हो जाते हैं।
ऋषि आगे कहते हैं कि देवताओं और मनुष्यों के स्तुति करने पर देवी शांत हो गई और अंतर्धान हो गयीं। अर्थात देविय वृत्तियों के सहयोग से साधक के आसुरी वृत्तियों का दमन करके अंततः देविय वृत्तियाँ भी पूर्णत्व के साथ शांत हो गईं। जब साधक के आसुरी वृत्तियों का पुर्णतता दमन हो गया, तब देविय वृतियाँ किस पर आक्रमण करें, किस को नष्ट करें, अतः पूर्णत्व के साथ वे भी शांत हो जाती हैं। यही कथन श्रीमद्भगवद्गीता में ही लिखा है। गीता में भी कौरव और पांडव मनुष्य के भीतर व्याप्त आसुरी और देविय वृत्तियों को कहा गया है। गीता बाहरी युद्ध या मारकाट का समर्थन नहीं करता, गीता मनुष्य के अंतःकरण के आसुरी और दैविय वृत्तियों का संघर्ष है। यही आंतरिक वृत्तियों का संघर्ष ही देवी दुर्गा और महिषासुर की बीच हुआ है। 
ऋषि आगे कहते हैं कि ठीक इसी प्रकार यही आंतरिक युद्ध शुम्भ और निशुम्भ असुरों से हुआ है।
फिर चण्ड और मुण्ड नामक असुर से युद्ध हुआ। रक्तबीज का भी बध देवी ने किया। देवी ने जितने भी असुरों और दैत्यों को मारा ,वो सब हमारी आसुरी वृत्तियों का सूचक हैं। तो देवी कौन हैं? वो सब सद्गुण जो हमारी मुक्ति की राह में, समस्त होने की राह में , परमात्मा की राह में, सत्य की राह में सहायक हो।
और असुर कौन हैं? जो हमें आत्मस्वरूप की ओर बढ़ने में बाधक हों ,वहीं असुर हैं। हमारी दैविय वृत्तियाँ, दैविय गुण ही देवी हैं, जो मुक्ति की राह में सहायक हो। और हमारी आसुरी वृत्तियाँ और गुण हीं असुर हैं , जो मुक्ति की राह में बाधक हों अर्थात आत्मस्वरुप की ओर बढ़ने की राह में बाधक हैं, वहीं दैत्य हैं। यही दैवीय गुणों के सहयोग से आसुरी वृत्तियों का दमन करना ही देवी और दैत्य के बीच का युद्ध है। यही युद्ध दुर्गा जी और महिषासुर के बीच में हुआ। यही युद्ध महाभारत में कौरवों और पांडवों के बीच हुआ। जिस जिस रुप में , जिस जिस तरह से हमारी आसुरी वृतियाँ हमारे मुक्ति की रहने बाधक होंगी , दैवीय गुण उस उस रूप में उद्घाटित जाएंगे। यह आंतरिक वृत्तियों का आंतरिक संघर्ष ही देवी और असुर के बीच संघर्ष है। इस संघर्ष के परिणाम में मुक्ति मिलती है। आत्मस्थ स्थिति मिलती है। 
यही श्री दुर्गा सप्तशती का संछिप्त सार है।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।

लेखक - श्याम जी अद्वैत

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