श्याम अद्वैत : देखिए! महाभारत का युद्ध भले ही इतिहास में बाहरी महायुद्ध के रूप में व्यक्त किया गया है, लेकिन जब अध्यात्म में किसी घटना को लिया जाता है , तो उसके स्थूल अर्थ से हटकर सूक्ष्म अर्थ हो ग्रहण किया जाता है, समझा जाता है। तो ये जो महाभारत का युद्ध है , यह इतिहास के लिए, समाज के लिए बाहरी युद्ध होगा लेकिन आध्यात्मिक साधकों के लिए आंतरिक युद्ध है। हमारी आंतरिक वृत्तियों का युद्ध होगा। अध्यात्म में जो कुछ भी घटनाएँ होती हैं वो सब प्रतीकात्मक होती हैं। प्रत्येक मनुष्य के भीतर दो तरह की वृत्तियाँ होती हैं, पहली देवीय वृत्तियाँ और दूसरी आसुरी वृत्तियाँ। अन्यथा आप यह भी कह सकते हैं कि मनुष्य के भीतर दो तरह के गुण होते हैं, सात्विक गुण और तामसिक गुण। तो जो महाभारत की युद्ध में पांडवों के तरफ से लड़ने वाले लोग हैं , वो सभी के सभी दैवीय वृत्तियों के प्रतीक हैं और जो कौरवों की तरफ से लड़ने वाले योद्घा हैं, वो सब आसुरी वृत्तियों के प्रतीक है। अब आप ये समझ लीजिए कि देवी वृत्तियों का क्या काम है और आसुरी वृत्तियों का क्या काम है? महाभारत का युद्ध इन्हीं दैवीय वृत्तियों का और आसुरी वृत्तियों का युद्ध है। जिसमें कौरव आसुरी वृत्तियाँ हैं और पांडव दैवीय वृत्तियाँ हैं। इन वृत्तियों के संघर्ष में यदि दैवीय सफल होती हैं तो अपनी साधक को अपने शाश्वत स्वरुप आत्मा में स्थिति दिलाएँगी और यदि आसुरी वृत्तियाँ सफल होती हैं तो संसार बंधन की ओर लेकर जाएगी, भय और दुख पहुँचायेंगी। आ रही है बात समझ में? अब प्रश्न्न उठता है कि आसुरी वृत्तियाँ क्या हैं और दैवीय वृतियाँ क्या हैं? आसुरी वृत्तियों के अंतर्गत काम , क्रोध , मोह , भ्रम, मद अर्थात बेहोशी , लोभ ,डर , वासना, अहंकार, चंचलता , आसक्ति, अज्ञान , आलस्य ,निद्रा, प्रमाद , रिद्धि सिद्धि , मान सम्मान सुख दुख रुपी द्वंद ,आदि आते हैं। साधक के मन में यदि आसुरी वृत्तियों का आधिपत्य होगा अर्थात आसुरी वृत्तियों की अधिकता होगी तो उसे संसार बंधन में डालेगी, घोर दुख , पीड़ा , डर, प्रदान करेंगी। दैवीय वृत्तियों के अंतर्गत सरलता , सहजता, शम , दम, तितिक्षा , समाधान, विवेक, वैराग्य ,मुमुक्षा, प्रेम ,दया , अहिंसा , श्रद्धा , नियम , सत्संग , सत्य व्यवहार , निर्भयता , धर्म , वात्सल्य , लावण्य , सहृदयता , सौम्यता , स्थिरता , ज्ञान , तप , साधना , योग , आदि आते हैं। यदि साधक के भीतर दैवीय वृत्तियाँ सफल होती हैं अर्थात दैवीय वृत्तियों का बाहुल्य होता है ,तो शाश्वत स्वरूप आत्मा में स्थिति मिल जाएगी, आत्मस्थ की अवस्था जाएगी, संसार की समस्त दुखों से और जन्म मरण से छुटकारा मिल जाएगा, अक्षय शांति प्राप्त होगी। हम सभी के भीतर व्याप्त दैवीय वृत्तियों और आसुरी वृत्तियों का संघर्ष ही महाभारत का युद्ध है। जिसमें पांडवों की सेना दैवीय वृत्तियों प्रतीक है और कौरवों की सेना आसुरी वृत्तियों के प्रतीक है। और यही दैवीय वृत्तियाँ अर्थात शुद्ध सात्विक गुण ही देवता हैं और आसुरी वृत्तियों अर्थात तामसिक गुणों की समूह को असुर कहते हैं। आ रही है बात समझ में?
प्रश्न्न : गीता के पहले श्लोक में ही धृतराष्ट्र में पूछा कि मेरे और पांडू के पुत्रों ने क्या किया ? तो ये धृतराष्ट्र कौन है? धृतराष्ट्र किसका प्रतीक है? संजय किसका प्रतीक है? कौरव और पांडव का क्या अर्थ है?
अद्वैत : अज्ञान से आच्छादित मन का नाम है धृतराष्ट्र। ये जो हमारा मन है जिसमें अज्ञान विद्यमान है उस मन का नाम है धृतराष्ट्र। संजय संयम का प्रतीक है। प्रत्येक अज्ञानी मन संयम के द्वारा जान पाता है कि विकारों का शमन करके परमात्मा में प्रवेश कैसे मिला? हमारी आसुरी वृत्तियों, हमारे विकारों का नाम है कौरव, और पांडू पुण्य का प्रतीक है। हमारे भीतर व्याप्त आसुरी वृत्तियों का नाम है कौरव और देवीय वृत्तियों का नाम है पांडव।
जब हमें पता चलता है कि परमात्मा अलग हैं, हम अलग हैं, तो यही द्वैत है, दो का भाव ही द्वैत है, द्रोणाचार्य द्वैत के प्रतीक हैं, हम सबका मोह ही दुर्योधन है, अर्थात दुर्योधन मोह का प्रतीक है, दुर्योधन पांडवों की विशाल सेना को देखकर द्रोणाचार्य के पास जाकर बोला अर्थात पूण्य से प्रेरित दैवीय वृत्तियों को देख कर आसुरी वृत्तियों का मूल कारण मोह ने द्वैत के भाव को सम्बोधित किया। मोह के कारण हमारा ज्ञान ढका हुआ है। गीता के समापन पर अर्जुन ने कहा कि भगवन मेरा मोह नष्ट हुआ और मेरी स्मृति वापस आ गई है। इसीलिए मोह रुपी दुर्योधन ही आसुरी वृत्तियों का नायक है, मूल कारण है।
प्रश्न्न: यह तो समझ में आ गया कि हम सबका मोह ही दुर्योधन है। परंतु आगे की श्लोकों में अन्य लोगों की चर्चा हुई है वो सब किसके प्रतीक हैं? धृष्टद्युम्न किसका प्रतीक है? सात्यकि किसका प्रतीक है? द्रुपद, विराट, धृष्टकेतु , चेकितान , काशिराज , पुरुजित , कुन्तिभोज , शैब्य , युधामन्यु , उत्तमौजा , अभिमन्यु , द्रोपति, भीम , अर्जुन आदि किसके प्रतीक हैं?
अद्वैत: परमात्मा में अटल विश्वास रखने वाला मन ही धृष्टद्युम्न है। परमात्मा में श्रद्धा ही भीम है, परमात्मा से लिए राग ही अर्जुन है, सात्यकि सात्विकता का प्रतीक है। द्रूपद शाश्वत में अचल स्थिति का प्रतीक है, विराट परमात्मा की सर्वव्यापी होने का प्रतीक है, धृष्टकेतु साधना में दृढ़ता से लगने का प्रतीक है, चेकितान शभ, दम का प्रतीक है। काशिराज काया अर्थात शरीर का प्रतीक है। पुरुजित शरीर पर विजय दिलाने का प्रतीक है। कुंतीभोज अर्थात साधना से संसार सागर से विजय पाने का प्रतीक है। शैब्य सत्य व्यवहार का प्रतीक है। हमारे देवीय वृत्तियों और आसुरी वृत्तियों के संघर्ष के अनुरूप मन की धारणा का प्रतीक युधामन्यु है। उत्तमौजा शुभ की मस्ती का प्रतीक है। अभय मन का प्रतीक अभिमन्यु है। द्रोपती ध्यान का प्रतीक है। दैत का भाव (हम अलग है परमात्मा अलग है) ही द्रोणाचार्य है। भीष्म भ्रम का प्रतीक है। द्वैत का प्रतीक द्रोण है। आसुरी वृत्तियों के कर्म का प्रतीक कर्ण है। आत्मा में स्थिति से पहले कृपा का आचरण ही आचार्य कृप है। हम सबका विषयों की प्रति आसक्ति का प्रतीक अश्वत्थामा है।
जब तक हम सबके भीतर भ्रम है, तभी तक आसुरी वृत्तियाँ सफल हैं, यदि हमारा भ्रम मिट जाए, तो हमारी आसुरी वृत्तियाँ क्षीण हो जाएँ, और हम अपने आत्मस्वरूप में प्रवेश पा जाएँ। यदि ईश्वर में श्रद्धा हो, तो हम अपने आत्मस्वरुप में स्थित हो जाएँ, यदि ईश्वर में हम सब की श्रद्धा अचल हो तो हम अपने शाश्वत स्वरूप आत्मा में स्थिति पा जाएँ।
वस्तुतः गीता हमारे भीतर विद्यमान आसुरी और दैवीय वृत्तियों के संघर्ष का चित्रण है। जिसमें कौरव आसुरी वृत्तियों के प्रतीक है और पांडव देवीय वृत्तियों के प्रतीक हैं।
अगर कौरव अर्थात आसुरी वृत्तियाँ इस संघर्ष में जीतती हैं तो भय के सिवाय और कुछ नहीं देंगी। लेकिन यदि पांडव अर्थात देवीय वृत्तियाँ जीतती है तो, परमात्मा में प्रवेश दिलाएँगी अर्थात संसार बंधंन से मुक्ति दिलाएंगी।
आगे 12वें श्लोक में कहा गया है कि सेनाओं ने शंख ध्वनि बजाया। शंख ध्वनि प्रतीक हैं कि कौन सी वृत्ति सफल होने पर क्या प्रदान करेंगी? सबसे पहले पितामह भीष्म ने भयप्रद शंख बजाया। भीष्म भ्रम के प्रतीक हैं। भीष्म ने भयप्रद शंख बजाया। कौरवों की तरफ से अर्थात आसुरी वृत्तियों में भीष्म ने भय प्रदान करने वाला शंख बजाया अर्थात जब तक साधक के भीतर भ्रम है , भय मिलेगा, अर्थात साधक में भ्रम के कारण डर का भाव रहेगा।
सारांशतः बात यह है कि यदि आसुरी वृत्तियाँ सफल होती है तो डर , दुख, निराशा, संसार बंधन, के सिवाय कुछ नहीं प्रदान करेंगी। इसके बाद पांडवों की तरफ से अर्थात दैवीय वृत्तियों की तरफ से सबसे पहले योगेश्वर श्रीकृष्ण और अर्जुन ने अलौकिक शंख बजाये। अलौकिक का अर्थ है समस्त लोकों से परे परब्रह्म परमात्मा। अर्थात जब दैवीय वृत्तियाँ सफल होती है तो आत्मा में अर्थात परब्रह्म परमात्मा में स्थिति दिलाएगी, अर्थात अपने शाश्वत स्वरुप में स्थिति दिलाएँगी। इस प्रकार कौरवों और पांडवों अर्थात दैवीय वृत्तियों और आसुरी वृत्तियों की तरफ से शंख नगाड़े एक साथ बजाएंगे , वे शंख ध्वनि केवल इस बात के सूचक थे कि कौन सी वृत्ति सफल होने पर क्या प्रदान करेगी? यदि पांडव अर्थात दैवीय वृत्तियाँ सफल होती हैं तो आत्मा में स्थिति दिलाएँगी और संसार बंधन से मुक्त दिलाएँगी। यदि कौरव अर्थात आसुरी वृत्तियाँ सफल होती हैं, डर , दुख , पीड़ा , संसार बंधन में पहुँचायेंगी। आसुरी वृत्तियाँ मोह का आवरण सघन कर देंगी। इसके बाद में अर्जुन ने कहा कि हे वासुदेव! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच लेकर चलिए क्योंकि मैं देखना चाहता हूँ कि मुझे किन से लड़ना है? अध्यात्म जो आरंभिक साधक होते हैं वो ऐसे ही जिज्ञासा करते हैं कि कौन सी योग साधना , कौन सा तप करना पड़ेगा , किसको त्यागना पड़ेगा, कौन सा नियम और आचरण जीवन में लाना पड़ेगा मुक्ति के लिए?
जब अर्जुन ने देखा कि अपने मोह को ,आसक्ति, अज्ञान को त्यागना पड़ेगा तो वह हताश हो गया ,निराश हो गया। अर्जुन हताश हो गया था ऐसी बात नहीं है, अध्यात्म में प्रत्येक आरंभिक साधक अधीर होता है, प्रत्येक नये साधक को संबंधी याद आने लगते हैं, उसे मोह सताने लगता है। अर्जुन ने दोनों सेनाओं में अपने परिवार और स्वजन को ही देखा जिनसे उसे लड़ना था। वो अधीर हो गया, वो विलाप करने लगा, युद्ध से भागने लगा। प्रत्येक नया साधक जो अध्यात्म आता है, जब उसे पता चलता है कि मोह , आसक्ति, अज्ञान, अहंकार, इत्यादि को त्याग करना होगा , संसार विषयों से वैराग्य करना होगा, तब वो साधक हताश हो जाता है, अध्यात्म के साधन से पीछे हटने लगता है ठीक ऐसा ही अर्जुन ने भी किया। अर्जुन कहने लगा कि हे कृष्ण ! अपने ही परिवार को मारकर मैं युद्ध में कल्याण नहीं देखता हूँ। अर्थात जब प्रत्येक नया साधक अध्यात्म में आगे बढ़ता है, तो उसे पता चलता है कि अभी तक जिनसे वह मोह , आसक्ति और राग करता था उन सबको त्यागना पड़ेगा, अब अध्यात्म से पीछे हटने लगता है, भागने लगता है। कुतर्कों का जाल बुनने लगता है जैसा अर्जुन ने किया था। अर्जुन कहता है कि अपने कुल को मारकर हमें नरक मिलेगा, वर्ण शंकर पैदा होगा , कुल की स्त्रियाँ दूषित होंगी , देवता, पितर सब नर्क में गिर जायेंगे। ये सब अर्जुन का कुतर्क था, अज्ञान था। अर्जुन को विषाद सा हो गया। अर्जुन इस संघर्ष से पीछें हट गया।
इस अध्याय में अर्जुन इस संघर्ष पीछे हट गया। उसको विषाद हो गया , वह हताश हो गया। केवल अर्जुन हताश हुआ था ऐसी बात नहीं है प्रत्येक नया साधक जो अध्यात्म में आता है, तो अधीर हो जाता है। अर्थात जब साधक अध्यात्म की ओर आता है तो उसे पता चलता है कि अभी तक जिन विषयों से, जिन चीजों से मोह , आसक्ति और राग करता था, उन सबका तयाग करना पड़ेगा तो वह हताश हो जाता है। जिन आसुरी वृत्तियों में सभी सांसारिक मनुष्य जीवन जीते हैं, अध्यात्म उन सभी आसुरी वृत्तियों का विरोधी है। सामान्य संसारी मनुष्य मोह ,आसक्ति और अज्ञान में जीवन जीता है और अध्यात्म में इन सबका त्याग करना पड़ता है।
तो जब कोई नया साधक अध्यात्म में आता है तो जब उसे पता चलता है कि इन आसुरी वृत्तियों को छोड़ना होगा, तो वह हताश हो जाता है। इस अध्याय में इसी प्रकार अर्जुन भी हताश हो गया था। इसीलिए अधिकांश टीकाकार इस अध्याय को अर्जुन संशय विषाद योग नाम से संबोधित करते हैं। इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता रुपी उपनिषद , ब्रह्म विद्या और योग शास्त्र श्रीकृष्ण और अर्जुनकके संवाद के रूप में प्रथम अध्याय पुरा हुआ।
ओम श्री परमात्मने नमः
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