संसार में अधिकांश लोग ऐसे ही होते हैं जिन्हें स्वयं का ज्ञान नहीं होता, कि वे कैसे आए हैं , कहाँ से आए हैं और मरने के बाद कहां जाएंगे? हममे से अधिकांश लोगों को पता ही नहीं होता कि हम क्यों आए हैं , हमें मनुष्य शरीर क्यों मिला है? हम दुख क्यों भोग रहे हैं? हम हैं कौन? हमने कभी सवाल ही नहीं किए, हमने कभी आशंका ही नहीं व्यक्त की। लेकिन कुछ महापुरुषों ने, कुछ महानुभावों ने अपनी स्मृति से, अनुभवों से या गुरुओं से अपना वास्तविक स्वरुप जाना है। उन महापुरुषों ने जाना कि हमारे बंधनों का कारण क्या है? सच्चे साधकों को पता है कि शरीर से आसक्ति के कारण ही मोह उत्पन्न होता है। और स्वयं को सुखी करने के लिए हम दूसरों को दुख देते हैं। हमारी आसक्ति, हमारा
अज्ञान ही हमसे हिंसा करवाता है, यही हमारे बंधनों का कारण है। देह के प्रति आसक्ति या लगाव से ही विवेक नष्ट हो जाता है। सम्मान व आदर पाने के लिए स्वार्थी और अज्ञानी मनुष्य दूसरों को कष्ट पहुँचाता है। हम सब की यही आसुरी वृत्ति ही हमारे दुखों का मूल कारण है। हमारी वृत्तियाँ, हमारे अज्ञान, हमारे मोह हमें अपने स्वरुप तक पहुंचने नहीं देते। सबके प्रति आत्म भाव, दया भाव रखना कि सच्चे सुख का हेतु है। जिसने समस्त वासनाओं को जीत लिया है, जो संयमी है, जिसकी समस्त इंद्रियां जीती हुई है और जो सर्वथा अनासक्त है, राग, द्वेष, आदि द्वंद्वों से रहित है ऐसा साधक अमृत तत्त्व प्राप्त करने योग्य हो जाता है।
जो शरीर की आसक्ति और स्वार्थ के कारण दूसरों को दुख पहुंचाता है, दूसरों को पीड़ा पहुंचाता है, दूसरों से दुर्व्यवहार करता है, ऐसा व्यक्ति घोर दुख का अनुभोक्ता होता है। लेकिन जो साधक दूसरों की हानि में अपनी हानि देखें , दूसरों की पीड़ा में अपनी पीड़ा देखे, जब दूसरों के दुख को अपना दुख देखें, वो ही शुद्ध अहिंसक हो सकता है। क्योंकि उनसे अपने दुख का अनुभव किया है अपनी पीड़ा को समझा है , वह दूसरों की पीड़ा को समझते हैं ,इसीलिए में दूसरों को दुख, पीड़ा नहीं दे सकते। दूसरी जीवो को भी अपनी तरह ही समझते हैं, और दूसरों को कष्ट देकर , पीड़ा दे कर वह जीना नहीं चाहते। उनके लिए असंभव हो जाता है किसी को पीड़ा देना, कष्ट देना। अज्ञान, मोह और आसक्ति ही इसका मूल कारण है। तभी तो हमारा प्रेम घृणा में बदल जाता है क्योंकि हमने कभी प्रेम को कभी समझा ही नहीं, हमने मोह किया है, प्रेम आजादी देता है और मोह बंधन में डालता है। साधकों को पता होता है कि उनकी आसक्ति, उनका अज्ञान, उनका मोह ही उन्हें घोर दुख देता है। साधकों को पता होता है कि अहिंसा से ही सुख बढ़ता है, जबकि हिंसा से घोर दुख मिलता है। मैं और मेरे का भाव ही संसार बंधन में जीव को डालता है। इस अहम् वृत्ति के कारण माता पिता ,भाई-बंधु और स्वजनों के प्रति ममता(मोह और आसक्ति) बढ़ती है। विषय भोग में तथा अन्न,वस्त्रों में विशेष आसक्ति बढ़ती है।
मोह और अज्ञान के कारण उत्पन्न आसक्ति के कारण ही मनुष्य दुख और क्लेष में जीता है। विषयों के चिंतन से उसके प्रति इच्छा जागृत होती है, इच्छा पूर्ति करने में मनुष्य ऐसे तल्लीन हो जाता है कि उसे मृत्यु का पाश दिखाई नहीं देता। ऐसा दुराचार मनुष्य अपनी इच्छा पूर्ति करने अनेकों कूकर्म कर देता है, दूसरों पर हिंसा कर देता है। विषय भोगों के पीछे घोर परिश्रम का करता है, थक जाता है, व्याकुल रहता है और बहुत दुख पाता है। और अंत में कोई साथ नहीं देता है। अज्ञानी मनुष्य स्त्री और धन को ही सुख का कारण समझने लगता है, वो समझता है कि जिस के पास स्त्री, धन, संपत्ति है वही सुखी है। अविवेकी मूढ़ बुद्धि मनुष्य कंचन और कामिनी अर्थात स्त्री और धन को ही सुख का कारण समझता है। और वो रात दिन स्त्री और धन की संग्रह में सारा जीवन व्यर्थ ही गवाँ देता है और उसे दुख और निराशा के सिवा कुछ नहीं मिलता है। ऐसे अविवेकी और मूढ़ बुद्धि मनुष्य सांसारिक वस्तुओं को और शारीरिक सुख भोग को ही जीवन की सार्थकता मानते हैं। वे अपनी शारीरिक सुख के लिए और काम भागों के लिए मनमानी करते हैं। कामवासना को ही वो लोग परम सुख मानते हैं और अपने कर्तव्य से विमुख हो जाते हैं। मनुष्य का जीवन वैसे ही अल्प और अस्थिर रहने वाला है, बुढ़ापा , बीमारी और मौत, ये तीनों मनुष्य के जीवन की कड़वी सच्चाई है।
बुढ़ापे में जब शरीर कमजोर होता है, इंद्रियाँ से शिथिल होती है तो जिनसे शरीर का रिश्ता नाता होता है वे अप्रिय लगने लगते हैं, वह बुढापे को बोझ समझने लगते हैं, कई बार तो तिरस्कार कर देते हैं , अक्सर देखा गया है बच्चे अपने माँ बाप को बूढ़े और कमजोर हो जाने पर वृद्धाश्रम में छोड़ आते हैं। धीरे धीरे उम्र ढलती है, इंद्रियां शिथिल होने लगती हैं जिन पदार्थों में बहुत राग और आनंद दिखता था, वह भी धीरे-धीरे खत्म होने लगता है। उम्र बढ़ने की साथ-साथ यौन शक्ति भी धीरे-धीरे क्षीण होने लगती है, शरीर भी धीरे-धीरे कमज़ोर होने लगता है और जीवन मृत्यु के पास निरंतर तेजी गति से बढ़ता रहता है। अंत में कोई भी साथ नहीं देता। शारीरिक सुख भोग में आसक्त होकर लोग बड़े-बड़े कूकर्म कर देते हैं। दूसरों को दुख पहुंचा कर छल, कपट , चोरी से करोड़ों की संपत्ति कमाने वाले भी सुखी नहीं हैं। उन्हें न तो जीवन में संतोष मिलता है और ना ही सुख की प्राप्ति होती है। संसार में सभी सुख के पीछे दौड़ रहे हैं, लेकिन फिर भी वे दुख ही दुख पाते हैं। कोई शारीरिक रोग से दुखी है , कोई मानसिक रोग से दुखी है, इस तरह मोह , अज्ञान के कारण लोग दुख के दलदल में फँसते जाते हैं। दूसरों को दुख पहुंचा कर, दूसरों को कष्ट दे करके जो सुखी होना चाहते हैं वह मूढ़ बुद्धि यह नहीं जानते कि दूसरों को दुख देकर कोई सुखी नहीं हो सकता। शरीर में आसक्ति के कारण मूढ़ बुद्धि वाले मनुष्य विषयों के पीछे दौड़ लगाते हैं और घोर दुख पाते हैं।
सच्ची शांति और सुख का मूल 'धर्म' है। धर्म के बिना सच्ची शांति और सुख नहीं मिल सकती। जो शाश्वत शांति और सच्चा सुख चाहते हैं, वो क्षणिक सुख देने वाले दुख रुपी विषयों के पीछे नहीं पड़ते। जो इच्छाओं को जीत लेते हैं, वे ही वास्तव में बंधन के पार जा सकता है। संसार के लोगों के कामनाओं का कोई अंत नहीं, एक कामना पूरी हुई, कि दूसरी कोई नई कामना उत्पन्न होती है। जो मनुष्य अपनी इच्छा पूर्ति में लगा हुआ है, वो मानो फूटे हुए घड़े में पानी भरने के समान व्यर्थ काम कर रहा है। वासना में डूबे रहने के कारण मनुष्य को ये दिखाई ही नहीं देता कि क्या सही है? क्या गलत? उसका विवेक नष्ट जाता है। इसलिए शांति की इच्छा रखने वाले साधकों को विचार करना चाहिए कि विषय भोग क्षणभंगुर, नाशवान है, इनमें आसक्त रहना कतई मूर्खता की बात है।
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