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𝗟𝗮𝗻𝗴𝘂𝗮𝗴𝗲

वेदांत , उपनिषद और गीता प्रचारक

ईशावास्य उपनिषद

ईशावास्योपनिषद : संक्षिप्त व्याख्या

उपनिषद के ऋषि : ये सारा जगत अकारण नहीं है, जिस प्रकार गन्ने से बने शर्करे में गन्ने का रस व्याप्त उसी प्रकार उस परब्रह्म परमात्मा से उत्पन्न ये जगत ब्रह्म से ही परिपूर्ण है। गीता में भी श्री भगवान कहते हैं कि मैं समस्त जगत का कारण हूँ, ये सारा जगत मुझसे ही उत्पन्न हुआ है और मुझसे ही चेष्टा करता है और अंत मुझ में ही लीन हो जाता है। अर्थात समस्त जगत का मूल कारण परब्रह्म परमात्मा है। गीता में भी श्री कृष्ण कहते हैं कि अर्जुन मैं संपूर्ण भूत प्राणियों के हृदय में वास करता हूँ। इस प्रकार समस्त जगत को ब्रह्म रूप देखते हुए सब प्रकार से अनासक्त होकर त्याग पूर्व साधक को साधना कर्म में प्रवृत्ति होना चाहिए। जो इस दुर्लभ मनुष्य तन को पाकर आत्म दर्शन पथ पर अग्रसर नहीं होता, वो अपना ही अहित चाहने वाला है, आत्मघाती है, हिंसक है, ऐसा पुरुष घोर दुख का भागी बनता है। इसीलिए बुद्धिमान पुरुषों को चाहिए कि वह अपने द्वारा अपनी चेतना का उद्धार करें उसे अधोगति में ना ले जावें।

वो परमात्मा अचल, शाश्वत, सनातन, अमृतस्वरूप है। उसी परमात्मा की सत्ता से अग्नि, वायु , जल, इत्यादि अपने अर्थों में बरतते हैं। वो परमात्मा सबका अंतर्यामी आत्मा है, गीता में श्री कृष्ण कहते हैं कि अर्जुन मैं सभी भूत प्राणियों के हृदय में वास करता हूँ, इस प्रकार जो मनुष्य संपूर्ण भूत प्राणियों में परमात्मा को ही व्याप्त देखता है, वो कैसे किसी से द्वेष करता है , कैसे किसी से राग करता है?

जिस महापुरुष ने परमदेव परमात्मा को सभी भूत प्राणियों में स्थित जान लिया है, वो अब कैसे किसी से मोह करेगा , कैसे किसी के लिए शोक करेगा? ऐसा परम तेजोमय पुरुष सर्वथा अनासक्त हुआ, समस्त जगत में उस परमात्मा का हीं फैलाव पाता है, ऐसा साधक परमात्मा(आत्मा) में ही स्थिति वाला होता है। किंतु परमात्मा में स्थिति से पहले जो साधक इंद्रियों को भली प्रकार से संयम करके परम तत्व परमात्मा की उपासना नहीं करते, वे घोर घोर दुख अर्थात आवागमन को प्राप्त होते हैं। जो और जो साधक ज्ञान के झूठे अभिमान से चकनाचूर रहते हैं , वह भी परम शांति को उपलब्ध नहीं हो सकते। किंतु जो साधक सब प्रकार परमात्मा(स्वयं) को यथार्थ जान लेता है, ऐसा विरला साधक अविनाशी आनंदमय अमृतस्वरूप परमात्मा को प्राप्त होता है। जो नाश्वान देवताओं और पितरों की पूजा करते हैं, वो भी अज्ञान के अंधकार में गिरते हैं और मृत्यु के पास में जकड़े जाते हैं, अर्थात देवता भी विनाशशील हैं, मरणधर्मा हैं, गीता में भी श्री कृष्ण कहते हैं कि देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं , पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं किंतु मुझे भजने वाला अर्थात परब्रह्म परमेश्वर की उपासना करने वाला नष्ट नहीं होता बल्कि अमृत पद के पाता है। महान संत कबीर का भी यही निर्णय कि साधु ये मुर्दों का गाँव, तैतीस कोटि देवता मरि हैं बड़ी काल की बाजी। अर्थात जब देवता भी मरणधर्मा हैं तो लोग देवताओं की पूजा क्यों करते हैं? इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि कामनाओं द्वारा जिनकी बुद्धि कुंठित हो गई है, वे ही मूढ़ लोग अन्य देवताओं की पूजा करते हैं। अर्थात देवताओं की पूजा निषेध है।

जो साधक अविनाशी, सनातन, शाश्वत, परमेश्वर(आत्मा) की उपासना करते हैं, वो मृत्यु को पार करके परब्रह्म परमेश्वर को प्राप्त होता है। 
गीता में भी श्रीकृष्ण कहते हैं अर्जुन मेरा भक्त आवागमन को प्राप्त नहीं होता बल्कि मुझे प्राप्त होता है, वह कभी नष्ट नहीं होता। वैदिक ऋषि( उपनिषद के ऋषि) भी यही बात कहते हैं कि जो परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लेता है , उसका विनाश नहीं होता। 

निष्कर्ष - ' सोऽहमस्मि ' उपरोक्त उपनिषद का महावाक्य है। इसका अर्थ होता है कि वह परमात्मा का स्वरूप मैं ही हूँ। ना हम शरीर हैं , ना हम मन है, ना हम बुद्धि हैं ,ना हम चित्त हैं, ना हम अहंकार है ,ना हम जगत हैं, ना हमारा कोई रूप है, ना हमारा कोई वर्ण है , ना हमारी कोई जाति है। तो जो कुछ भी हमारे मन की कल्पना के, हमारी बुद्धि तक सीमित रह सकता है, वह सब मैं नहीं हूँ ,यही अर्थ है सोऽहम का। विवेक चूड़ामणि में भी आदि शंकराचार्य जी ने कहा है जो जाति, नाम, रूप ,रस ,गंध, सीमा, सब लोकों से रहित (परे) है, तुम वही अविनाशी आत्मा हो, ऐसा भाव तुम अपने अंतरात्मा में करो। दुनिया की जो छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी चीज है ,वह तुम्हारा स्वरूप नहीं है, तुम वो नहीं हो। दुनिया में जो कुछ भी है उससे तुम्हारा कोई संबंध नहीं है, इस बात को संबोधित करता है इस उपनिषद का यह महावाक्य। बस हो गया अंत में कहना है- ओम शांति: शांति: शांति:

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1 टिप्पणी

  1. Sbi devtao ki puja nishedh h fir kiski puja kre kya kre pls marg drsan kre
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