हम बेचैन इसलिए रहते हैं कि जो हमें चाहिए वो हमें मिल नहीं रहा। परंतु जो हमें चाहिए वह हमसे अलग भी नहीं है। हमें जो चाहिए वो असीम है , विराट है , अनंत है, अविनाशी है। वह हमसे भिन्न भी नहीं है, और अभिन्न भी नहीं है। केवल हमारे अज्ञान और हमारे मोह की वजह से हमें प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देता कि जो हमें चाहिए वह हममें ही है। और हमारे दुख का मूल कारण ही अज्ञान है, अहंकार है। जो हम में ही है , जो स्वयं से ही मिलेगा, वह हम बाहर तलाशते हैं , दूसरों से आशा करते हैं कि वह हमें दे देगा और जब बाहर नहीं मिलता क्योंकि बाहर वाला कोई भी नहीं दे सकता तो हमें दुख होता है , पीड़ा होती है, कष्ट होता है। शांति तो भीतर ही मिलेगी।
प्रिय आत्मन! अज्ञान की नींद से उठो। अपने अहंकार को छोड़ो कि तुम मनुष्य हो, स्त्री हो, पुरुष हो, अमीर हो, गरीब हो, सुखी हो , दुखी हो। ये धारणाएँ , ये मान्यताएँ झूठी हैं। छोड़ो कि तुम गृहस्थ हो , या संयासी हो? ये तुम क्या छोटी-छोटी उपाधियों से स्वयं को घोषित करते हो? तुम्हारा अहंकार ही तुम्हारे दुख का कारण है , इसलिए तुम इस अहंकार को छोड़ो। तुम अपने आप को साढ़े तीन हाथ का स्थूल शरीर मानकर क्यों शोक करते हो? तुम निर्धारणा होकर स्वयं के भीतर उतरो। और जब तुम स्वयं में लीन होवोगे तो तुम्हें पता चलेगा कि भीतर स्वयं परमात्मा विराजमान है।
तुम्हारी बेचैनी का कारण तुम्हारा अज्ञान है। भ्रम में पड़कर तुम बेचैन रहते हो। तुमने मोह में पड़कर अपने शाश्वत स्वरूप को भुला दिया, यही कारण है कि तुम बेचैन रहते हो। तुम्हारा बंधन दूर हो तो हो कैसे? तुम्हारा दुख दूर हो तो हो कैसे? तुम्हारी बेचेनी शांत हो तो हो कैसे? क्या कभी ओश के कण से प्यास बुझायी जा सकती है? कभी नहीं। ये तुम्हारा भ्रम है कि तुम कहते हो कि तुम बेचैन हो। ये तुम्हारा अज्ञान है। ये तुम्हारा मानसिक भ्रम है कि तुम कहते हो कि मैं बेचैन हूँ। तुम अभी अपना हो संभालो। अपने को विचारों, अपना ज्ञान प्राप्त करो। जैसे जैसे तुम अपने भीतर उतरोगे जितनी गहराई से स्वयं को जानोगे, वैसे वैसे तुम्हारा दुख दूर होता जाएगा , आनंद की अनुभूति शुरू होने लगेगी, भीतर गहरा शांति उतरने लगेगा।
प्रिय आत्मन! श्याम की बातों पर थोड़ा ध्यान तो दो! अपने अखंड स्वरूप का ध्यान करो। ये सारा जगत तुम्हारा ही तो स्वरूप है, तुम्हारा ही तो प्रतिबिंब है। अब तुम किसी को पीड़ा कैसे दे सकोगे? तुम्हें कोई बाँध कैसे सकेगा? तुम पेड़ की डाल भी ना काट सकोगे , तुम्हें आँसू आने लगेंगे, काँट कैसे दोगे? सब तुम्हारा ही विस्तार है। तुम किसी को पीड़ा ना दे सकोगे , तुम किसी को दुख न पहुंचा सकोगे, किसी को पीड़ा देना स्वयं को पीड़ा देने जैसा होगा क्योंकि सारा जगत तुम्हारा ही फैलाव है। सब तुम्हारा ही स्वरूप है, तुमसे भिन्न कुछ भी नहीं है।
तुम अपनी ही छाया को , अपने ही विभिन्न स्वरूपों को देख कर क्यों शोक करते हो? तुम्हारी हालत तो ऐसे ही है जैसे उस बालक की होती है जो अपने ही प्रतिबिंब को देखकर और भूत समझकर चिल्लाने लगता है। जैसे शेर कुएँ में अपने ही प्रतिबिंब को देखकर दूसरा शेर समझकर झलाँग लगा देता है और कुएँ में डूबकर मर जाता है। प्रिय आत्मन! यदि तुम्हें पता हो जाये कि जैसे सीपी में कल्पित चाँदी सीपी से भिन्न नहीं होती, ठीक उसीप्रकार मुझ सच्चिदानंद ब्रह्म से कल्पित ये जगत मुझसे भिन्न नहीं है। यह सारा संसार तुम्हारा ही प्रतिबिंब है तुम्हारा ही फैलाव है तुमसे भिन्न नहीं है। अब कैसे तुम किसी से राग करोगे या किसी से द्वेष करोगे? कैसे तुम मोह करोगे या कैसे तुम शोक करोगे? अब तो तुम राग द्वेष , बंधन मुक्ति, मोह शोक, से मुक्त होकर अपने अखंड स्वरुप में विराजमान हो जाओगे।
वेदांत के अनुसार एक ब्रह्म के शिवाय दूसरा कुछ भी सत्य नहीं है, अपितु सब कुछ ब्रह्म रूप ही है। जब तक हमारे भीतर परमात्मा के अतिरिक्त अन्य पदार्थ का अस्तित्व बना रहेगा, जब तक हम अपने को ब्रह्म से अलग समझते रहेंगे, अर्थात जब तक हमारे भीतर ये भावना बनी रहेगी कि हम अलग हैं और परमात्मा अलग है, तब तक हम संसार बंधन से छूट ना सकेंगे, हमारी बेचैनी शांत ना हो सकेगा, हमारा दुख दूर ना हो सकेगा। इस संसार बंधन से छूटने के लिए तथा भीतर की बेचैनी को शांत करने के लिए ब्रह्म ज्ञान आवश्यक है। जिसने स्वयं को जान लिया उसने परम को जान लिया। जिसने राम रस चखा उसे दुनिया की हर रस फिकीं लगने लगेंगी। जिसने स्वयं को जाना उसने परम को भी जान लिया। मन बेचैन इसलिए है क्योंकि मन को चाहिए आत्म रस।
लेकिन हम उसे आत्म रस न देकर दुनिया की 50 चीजें देते हैं इसीलिए मन बेचैन रहता , इधर-उधर भागता है। मन को एक बार वो देकर देखो जो मन को चाहिए , एक बार मन को राम रस पिला कर तो देखो कि मन बेचैन रहता है या नहीं?
मन की बेचैनी एक संकेत है, एक इशारा है कि जो मुझे चाहिए वह मिल नहीं रहा। मन को आत्मरस में डूब जाने दो। जो ना किसी की आकांक्षा करते हैं, ना किसी से द्वेष करते हैं, जो मान अपमान में समभाव वाले हैं, जिनके लिए पत्थर और सोना एक समान है, जो अपनी आत्मा में ही तृप्त, शांत और संतुष्ट हैं, वो योगी ही समझने योग्य हैं। एक बार अपनी गहराई में जाकर तो देखो, एक बार आत्मरस में डूबकर तो देखो। चूँकि हमारी इंद्रियाँ बहिर्मुखी है इसीलिए हम बाहर की चीज में सुख ढूढ़ते हैं, परंतु ये हमारा अज्ञान है कि हमें बाहरी विषयों को भोगने से सुख मिलेगा। हमें चाहिए असीम, विराट, अनंत। और हम जो कुछ भी इंद्रियों से ग्रहण करते हैं वह तो सीमित है। परमात्मा इतना विराट इन आंखों में समाये कैसे? इसलिए बहिर्मुखी होते हैं बाहर सुख तलाशते हैं उन्हें कभी आनंद नहीं मिलता क्योंकि ना ही अधिक समय तक विषय भोग स्थिर रहने वाले हैं और ना ही इंद्रियों में क्षमता ही रहेगी उन्हें निरंतर भोगते रहने की। इसलिए जानने वालों ने कहा है, ऋषियों ने कहा है, गुरुओं ने कहा है, कि ये सांसारिक सुख अनित्य है, झूठे हैं , नाशवान हैं, इसीलिए इन्हें स्वयं से ही त्यागकर गहरी शांति का अनुभव करो। एक दिन तो सांसारिक सुख खत्म हो जाएगा, शरीर जीर्ण हो जाएगा, सांसारिक सुख विषय भोग एक दिन वैसे ही छूट जायेंगे, तुम्हें घोर कष्ट होगा। इसलिए भलाई इसमें ही है तुम स्वयं ही इनमें आसक्ति त्याग कर गहरी शांति का अनुभव करो।
संसार कहता है कि दुनिया से नाता जोड़ो। वेदांत कहता है कि स्वयं (आत्मा) से नाता जोड़ो। संसार अहंकार को पोषण देता है, वेदांत अहंकार से निवृत्ति देता है। संसार मरने पर छुट्टी देता है जबकि वेदांत जीते-जी मुक्ति देता है। संसार कहता है कि संसार में सुख मिलेगा, वेदांत कहता है कि आत्मा में सुख मिलेगा। ब्रह्म (आत्मा) सर्वत्र है। सारा जगत आत्म तत्व से ही भरा है, उस प्रभु के सिवाय जगत में कुछ भी सत्य नहीं है। यदि आप थोड़े समय के लिए अपने चित्त पर ध्यान केंद्रित करेंगे, तो आप पाएंगे कि आपके चित्त में विचार उठने बंद हो गए, भीतर एक गहरी शांति का अनुभव होगा। उस समय ऐसा प्रतीत होता है जैसे सब कुछ प्रलय सा हो गया। किंतु आपको ख्याल नहीं होगा कि जब आपने विचारों को देखना शुरु किया तो विचार आने बंद हो गए, सब कुछ मिट सा गया, लेकिन आप ध्यान देंगे तो आपको पता चलेगा कि इन सबका जो साक्षी चैतन्य था वह अभी भी बचा था। ऋषियों उसी को आपका स्वरुप बताया है।
जो कल्पना से परे है, उसका अभाव कभी नहीं होता है, वह तो काल से परे है, अचल है, अविनाशी है, पूर्ण है, शान्त है, वह आपका आत्मा है, सच्चा स्वरूप है। यदि आप पूछिये कि यह कैसे? तो सुनिये । आपने ज्यों ही सम्पूर्ण कल्पनाओं को रोक दिया था, त्यों ही यह मालूम हुआ था कि 'अब कुछ भी नहीं है। तब बताइये कि इस 'कुछ नहीं है' का ज्ञान किसने किया?
यह किसने जाना कि 'अब कुछ नहीं है' । वह आत्म तत्व, जिसका वर्णन अभी हुआ है, वही आप हैं, यदि वहाँ पर आप न रहे होते तो सब के अभाव का ज्ञान कौन करता? सभी चीजों और विचारों के अभाव के हो जाने पर भी आपका अभाव नहीं हुआ, इसीलिये तो आपका स्वरूप ही सत्य ठहरा तथा उस समय समस्त कल्पनाओं के अभाव के हो जाने से सूर्य-चन्द्रादि के प्रकाश भी न रह गये थे । वहाँ तो ये भौतिक-नेत्र भी न थे, बल्कि आपने स्वयं अपने स्वरूप के प्रकाश में ही पदार्थों के अभाव को देखा और जाना था, अतः आप स्वयं प्रकाश - चैतन्यस्वरूप हैं, और उस समय किसी भी पदार्थ के न रहने के कारण आपको सुख-दुःख देने वाला कोई भी दूसरा न था। अपितु उस समय वहाँ आप ही समस्त दुःखों से रहित हो आनन्द-रूप से विराजमान थे; अतएव आपका ही वह स्वरूप सच्चिदानन्द है।
यह सभी जानते हैं कि जिस समय किसी को कोई चिंता नहीं रहती और कुछ काम भी नहीं रहता है, उस समय वह सुखपूर्वक बैठा हुआ प्रसन्नता से सुशोभित होता है, वह सुख या वह प्रसन्नता क्या उसे किसी पदार्थ से है? जी नहीं, उस समय तो तृष्णा तथा चिंता के अभाव के हो जाने से चित्तवृत्ति अन्तर्मुख होकर आत्मानन्द का भोग कर रही है। इसीलिये भाइयो ! ईश्वर- रचित संसार या सांसारिक पदार्थ तुम्हें सुख नहीं दे सकते, सुख तो अपने आप में ही है, तुम्हारे अन्तः स्थल में सुख का सागर उमड़ रहा है, आनन्द लहरा रहा है, परन्तु वह कामना की यवनिका (काई) से ढका हुआ है, अज्ञान की ओट में छिपा हुआ है, इसीलिए अपनी सारी कामनाओं का अंत:करण से निकाल कर फेंक दो, उन्हें हटा दो, तृष्णाओं का दूर कर दो, आवश्यकताओं का फूँक दो और अपने को पहचान लो तब तुम सुखमय हो जाते हो।
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