एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा । कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च ॥ ( श्वेता० ६ ११)
अर्थ - 'वह एक देव ही सब प्राणियोंमें छिपा हुआ, सर्वव्यापी और समस्त प्राणियोंका अन्तर्यामी परमात्मा है; वही सबके कर्मोंका अधिष्ठाता, सम्पूर्ण भूतोंका निवास स्थान, सबका साक्षी, चेतनस्वरूप, सर्वथा विशुद्ध और गुणातीत है।'
एष सर्वेश्वर एष सर्वज्ञ एषोऽन्तर्याम्येष योनिः सर्वस्य प्रभवाप्ययौ हि भूतानाम् ॥(मा० उ० ६)
अर्थ- "यह सबका ईश्वर है, यह सर्वज्ञ है, यह सबका अन्तर्यामी है, यह सम्पूर्ण जगत्का कारण है; क्योंकि समस्त प्राणियोंकी उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय का स्थान यही है।'
नान्तः प्रज्ञ न बहिष्प्रज्ञं नोभयतः प्रज्ञ न प्रज्ञानघनं न प्रज्ञं नाप्रज्ञम् । अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः ॥ (मा० उ० ७)
अर्थ- 'जो न भीतर की ओर प्रज्ञावाला है, न बाहर की ओर प्रज्ञावाला है, न दोनों ओर प्रज्ञावाला है, न प्रज्ञानघन है, न जाननेवाला है, न नहीं जाननेवाला है, जो देखा नहीं गया है, जो व्यवहारमें नहीं लाया जा सकता, जो पकड़नेमें नहीं आ सकता, जिसका कोई लक्षण नहीं है, जो चिन्तन करनेमें नहीं आ सकता, जो बतलाने में नहीं आ सकता, एकमात्र आत्माकी प्रतीति ही जिसका सार है, जिसमें प्रपंचका सर्वथा अभाव है, ऐसा सर्वथा शान्त, कल्याणमय, अद्वितीय तत्त्व परब्रह्म परमात्मा का चतुर्थ पाद है, इस प्रकार ब्रह्मज्ञानी मानते हैं। वह परमात्मा है, वह जानने योग्य है।"
अनाद्यनन्तं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य स्रष्टारमनेकरूपम्। विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ॥ (श्वेता० ५। १३)
अर्थ- 'दुर्गम संसारके भीतर व्याप्त, आदि-अन्तसे रहित, समस्त जगत्की रचना करनेवाले, अनेक रूपधारी, समस्त जगत्को सब ओरसे घेरे हुए एक अद्वितीय परमेश्वरको जानकर मनुष्य समस्त बन्धनोंसे सर्वथा मुक्त हो जाता है।'
'यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय । तथा विद्वान्नामरूपाद्विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥'(मु० उ० ३।२।८)
अर्थ- "जिस प्रकार बहती हुई नदियाँ नाम रूपको छोड़कर समुद्रमें विलीन हो जाती हैं, वैसे ही ज्ञानी महात्मा नाम-रूपसे रहित होकर उत्तम-से-उत्तम दिव्य परमपुरुष परमात्माको प्राप्त हो जाता है।'
इस प्रकार श्रुतिने परमपुरुष परमात्माको मुक्त (ज्ञानी) पुरुषोंके लिये प्राप्तव्य बताया है; इसलिये (मु० उ० २।२।५ में) द्युलोक और पृथिवी आदिके आधाररूपसे जिस 'आत्मा' का वर्णन आया है, वह 'जीवात्मा' नहीं, साक्षात् परब्रह्म परमात्मा ही है।
'स ब्रूयान्नास्य जरयैतज्जीर्यति न वधेनास्य हन्यत एतत्सत्यं ब्रह्मपुरमस्मिन् कामाः समाहिता एष आत्मापहतपाप्मा विजरो विमृत्युर्विशोको विजिघत्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसंकल्पो यथा ह्येवेह प्रजा अन्वाविशन्ति यथानुशासनं यं यमन्तमभिकामा भवन्ति यं जनपदं यं क्षेत्रभागं तं तमेवोपजीवन्ति ॥' (छ० उ० ८। १। ५)
अर्थ- (शिष्यों के पूछने पर) आचार्य ने इस प्रकार कहा कि 'इस (देह)- की जरावस्थासे आत्मा जीर्ण नहीं होता, इसके वधसे आत्मा का नाश नहीं होता। यह ब्रह्मपुर सत्य है। इसमें सम्पूर्ण काम विषय सम्यक् प्रकार से स्थित है। यह आत्मा पुण्य-पाप से रहित, जरा-मृत्यु से शून्य, शोकहीन, भूख-प्यास से रहित, सत्यकाम तथा सत्यसंकल्प है। जैसे इस लोकमें प्रजा यदि राजाकी आज्ञाका अनुसरण करती है तो वह जिस-जिस वस्तुकी कामना तथा जिस-जिस जनपद एवं क्षेत्र भाग की अभिलाषा करती है, उसी उसी को पाकर सुखपूर्वक जीवन धारण करती है।' इस मन्त्र के अनुसार 'देह की जरावस्था से आत्मा जीर्ण नहीं होता और इसके वध से इसका नाश नहीं होता।
यदिदं किं च जगत् सर्वं प्राण एजति निःसृतम् । महद्भयं वज्रमुद्यतं य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥ (क० उ० २। ३ । २)
अर्थ- 'उस परमात्मासे निकला हुआ यह जो कुछ भी सम्पूर्ण जगत् है, वह उस प्राणस्वरूप ब्रह्ममें ही चेष्टा करता है, उस उठे हुए वज्रके समान महान् भयानक सर्वशक्तिमान् परमेश्वरको जो जानते हैं वे अमर हो जाते हैं।' तथा-
भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्यः ।
भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः ॥ (क० उ० २। ३ । ३)
अर्थ- 'इसी के भय से अग्नि तपता है, इसी के भय से सूर्य तपता है, इसी के भय से इन्द्र, वायु तथा पाँच वें मृत्यु देवता- ये सब अपने-अपने कार्य में दौड़ रहे हैं।'
अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथारसं नित्यमगन्धवच्च यत् । अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं निचाय्य तन्मृत्युमुखात्प्रमुच्यते ॥ ( क० उ० १ । ३ । १५)
अर्थ- 'जो शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध से रहित, अविनाशी, नित्य, अनादि, अनन्त, महत् से परे तथा ध्रुव (निश्चल) है, उस तत्त्वको जानकर मनुष्य मृत्यु के मुख से छूट जाता है।'
'सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत।' ( छा० उ० ३ । १४ । १)
अर्थ- 'निश्चय ही यह सब कुछ ब्रह्म है; क्योंकि उससे उत्पन्न होता, उसी में स्थित रहता तथा अन्त में उसीमें लीन होता है, इस प्रकार शान्तचित्त होकर उपासना (चिन्तन) करे।'
'सबका अन्तर्वतों यह तेरा आत्मा है।' (बृह० उ० ३। ४।१) 'यह तेरा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है।' (बृह० उ० ३।७।३) इसी प्रकार उद्दालकने अपने पुत्र श्वेतकेतुसे बार-बार कहा है कि 'वह सत्य है, वह आत्मा है, यह तू है।' ( छा० उ० ६ । ८ से १६ वे खण्डतक) 'जो आत्मामें स्थित हुआ आत्माका अन्तर्यामी है, जिसको आत्मा नहीं जानता, जिसका आत्मा शरीर है, वह तेरा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है' (शतपथब्रा० १४ । ५। ३० ) । इस प्रकार श्रुतिमें उस परब्रह्म परमात्माको अपना अन्तर्यामी आत्मा मानकर उपासना करनेका विधान आता है तथा भगवद्गीता में भी भगवान ने अपने को सबका अन्तर्यामी बताया है (गीता १८ ६१) । दूसरी श्रुति में भी उस ब्रह्मको हृदयरूप गुहामें निहित बताकर उसे जाननेवाले विद्वान्की महिमाका वर्णन किया गया है। ( तै० उ० २।१) इसलिये साधकको उचित है कि वह परमेश्वरको अपना अन्तर्यामी आत्मा समझकर उसी भाव से उसकी उपासना करे।
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