परमात्मा के लिए अनुराग अर्थात प्रेम ही अर्जुन है। अचल स्थिति ही द्रूपद है। परमात्मा के लिए दृढ़ कर्तव्य ही धृष्टकेतु है। सत्य व्यवहार ही शैब्य है। युद्ध के अनुरूप मन की धारणा ही युधामन्यु है। शुभ की मस्ती अर्थात उत्तमौजा और अभिमन्यु अर्थात परमात्मा प्राप्ति के लिए अभय मन। परमात्मा की प्राप्ति के लिए ध्यान से उत्पन्न वात्सल्त, लावण्य, सुहृदयता, सौम्यता और स्थिरता आदि गुण हैं।
दुर्योधन आगे कहता है अब जो हमारी सेना में प्रधान सेनापति हैं उनको कहता हूँ। आगे दुर्योधन जो कहता है वह हमारे पाश्विक वृत्तियों के लिए संकेत है। दुर्योधन आगे कहता है कि एक तो आप द्वैत रूपी द्रोणाचार्य हैं। प्रभु अलग हैं, हम अलग हैं यही द्वैत का भान है। दूसरे भ्रम रूपी पितामह भीष्म हैं। जब तक भ्रम है तभी तक हमारी आसुरी वृत्तियाँ हमें अपने शाश्वत स्वरुप परमात्मा की ओर बढ़ने नहीं देती। अहंकार और अज्ञान से किया जाने वाला कर्म ही कर्ण है। परमात्मा प्राप्ति की राह में कृपा का आचरण ही कृपाचार्य हैं। हमारा विषयों की प्रति आसक्त मन ही अश्वत्थामा है। संसार में उपस्थित विषयों की प्रति लगाव ही आसक्ति है। विषयों में आसक्ति द्वैत के कारण होती है। परमात्मा प्राप्ति की राह में साधक संसार की ऋद्धियों और सिद्धियों का चिंतन करने लगता है। ऋद्धि और सिद्धियों का चिंतन करके साधक का इसमें फँस जाना ही विकर्ण है। परमात्मा प्राप्ति की राह में ऋद्धियों और सिद्धियों का चिंतन बाधक है, ये मनुष्य की एक पाश्विक वृत्ति है।
इसको एक उदाहरण से समझाता हूँ। जब साधक अपने शाश्वत स्वरूप की ओर बढ़ता है, अर्थात परमात्मा की ओर बढ़ता है तो उसे संसार से , समाज से सम्मान भी मिलेगा, और अपमान भी मिलेगा, कोई साधक की प्रशंसा करेगा, तो कोई साधक की निंदा करेगा, अगर साधक इन प्रपंचों में पड़ता है, तो वह परमात्मा पथ से भ्रष्ट हो जाएगा, इसीलिए कृष्ण कहते हैं कि अर्जुन तू कर्म कर फल की चिंता मत कर। इसका अर्थ ये नहीं है कि कोई भी कर्म करो और फल की चिंता मत करो। श्रीकृष्ण का आशय है कि साधक को अपने शाश्वत स्वरुप की ओर बढ़ने में अर्थात परमात्मा प्राप्ति की राह में सतत लगे रहना चाहिए, साधक को इस मामले में चिंता नहीं करना चाहिए कि संसार क्या कहेगा? मीरा भजन करने लगी तो लोग कहे मीरा भई बावरी सास कहे कुल नाशी रे, जिस मर्यादा के लिए मीरा की सास ताने दे रही थी , आज उस मीरा की सास को कोई नहीं जानता , मीरा को विश्व जानता है। ठीक इसी प्रकार जो अपने अहंकार को पूरा करने में लगे हुए हैं, उन्हें कोई नहीं जानता, किंतु जो केवल जो परमात्मा पथ में अग्रसर हैं, उसे संसार सहजता से ही मिल जाता है। मीरा अगर ये सोचती कि लोग क्या कर रहे हैं? तो उसे कृष्ण कभी नहीं मिलते। ठीक यही हाल प्रत्येक साधक की भी है, कि वो ऋद्धियों सिद्धियों में ना फँस करके परमात्मा पथ में सतत लगा रहे, जब तक कि आत्मा में स्थिति ना मिल जाए। आत्मा, परमात्मा, ब्रह्म ,भगवान, ईश्वर, एक दूसरे के पर्याय हैं।
दुर्योधन आगे कहता है कि भीष्म द्वारा रक्षित हम लोगों की सेना अजेय है और भीम द्वारा रक्षित पांडवों की सेना जीतने में सुगम है। भीष्म कोई बाहरी योद्धा नहीं है, साधक का भ्रम ही भीष्म है। जब तक हमारे मन में भ्रम है तभी तक हमारी वृतियाँ हमें अपने शाश्वत स्वरूप अर्थात परमात्मा की ओर बढ़ने नहीं देती। इच्छा ही भ्रम है। साधक की इच्छा ही साधक के मन में भ्रम उत्पन्न कर देती है। अतः इच्छा का मिटना और भ्रम का मिटना एक ही बात है। साधक का परमात्मा के प्रति भाव ही भीम है। श्रीकृष्ण इसी को श्रद्धा कहकर संबोधित किया है। भाव में वो क्षमता है कि परम देव परमात्मा भी आसानी से सध जाता है, किंतु भाव साथ ही इतना कोमल भी है कि आज भाव है और कल अभाव में बदलते देर नहीं लगती। गुरु में थोड़ी सी भी कमियाँ देखने पर भाव डगमगा जाता है , श्रद्धा टूट जाती है।
फिर सब अपने बल का निर्णय देते हुए शंख ध्वनि करते हैं। कौरवों की ओर से कई बाजे, नगाड़े, संख एक साथ बजे, ये ध्वनियाँ, ये शंख एक घोषणा है कि जीतने पर वे क्या देंगे, कौरवों की ओर से हुई सारी ध्वनियाँ केवल भय प्रदान करते हैं। अर्थात हमारी पाश्विक वृत्तियाँ हमें डर , दुख और कष्ट ही देती है। भय प्रकृति में विद्यमान होता है, परमात्मा में नहीं।
हमारी पाश्विक वृत्तियाँ सदैव हमें दुख , कष्ट और पीड़ा ही देती हैं। अब हमारी पुण्यमयी प्रवृत्तियों की ओर से सर्वप्रथम घोषणा योगेश्वर श्रीकृष्ण की है। जो हमारे हृदय के सर्वज्ञाता श्रीकृष्ण हैं , उन्होंने हमारे पाँचों ज्ञानेइंद्रियों को संबोधित करते हुए अलोकिक शंख बजाये। हम देवी वृत्तियों के सहयोग से परम देव परमात्मा में प्रवेश पा जायेंगे।
अर्जुन की निरपेक्षता-
अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा था कि मुझे राज्य तथा सुख नहीं चाहिए ,मैं विजय नहीं चाहता। मैं तीनों लोकों के साम्राज्य के लिए भी यह युद्ध करना नहीं चाहता फिर पृथ्वी की लिए तो कहना है क्या? अर्जुन की निरपेक्षता देख रहे हो। अर्जुन ने समस्त विषय भोग इच्छा को त्याग दिया। साधक को भी ऐसे ही होना चाहिए। विषयों में लगाव ही साधक के मार्ग में बाधक बनती है। अर्जुन राज्य सुख के लिए नहीं जी रहा था , उसने साफ-साफ इंकार कर दिया कि मुझे स्वर्ग नहीं चाहिए, पृथ्वी का सुख भोग नहीं चाहिए। लेकिन हम लोग अर्जुन की अपेक्षा उल्टे लोग हैं। हम सब कहते हैं कि हमें प्रसिद्धि चाहिए, रुपया पैसा चाहिए ,सम्मान चाहिए, पत्नी चाहिए और ऐश्वर्य चाहिए ,धन चाहिए, स्त्री चाहिए। यह सब छोटी-छोटी हमारी मांगे है, लेकिन अर्जुन इनको ठुकरा रहा है। देखो हम लोग दिन रात एक कर देते हैं धन कमाने के लिए, ऐश्वर्य कमाने के लिए ,सम्मान पाने के लिए, सुख भोगने के लिए। सारा जगत जिस सुख, भोग ,धन में रात दिन व्यस्त है अर्जुन उसी को ठुकरा रहा है। अब देखो हममें और अर्जुन में क्या फर्क है? हम हैं कि सुख और विषय भोग के लिए लालायित रहते हैं और अर्जुन है कि इन सभी को ठुकरा रहा है। परमात्मा को पाना हो तो अर्जुन की पात्रता रखनी आवश्यक है।
अर्जुन का अज्ञान(कुतर्क) -
अर्जुन कहता है कि इन आतताईयों को मार हमें पाप ही तो लगेगा। नीति के अनुसार जो जीवन यापन के लिए अनीति अपनाता है, वह आततायी कहलाता है। किंतु श्री कृष्ण के अनुसार उससे भी बड़ा आतताई तो वह है जो आत्मा पथ में बाधक के रूप में खड़ा हो जाए। परमात्मा पथ में बाधक कौन हैं? हमारी पाश्विक वृत्तियों में मुख्य रूप से काम ,क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार ही आत्म पथ में बाधक हैं। हमने अपने अहंकार से , अपने मन से नाता बना रखा है, और परमात्मा पथ में मन, अहंकार इत्यादि पाश्विक वृत्तियों के समूह को मिटाना होता है लेकिन हमने मन और अहंकार से गहरा नाता बना रखा है इसलिए हमें उन्हें मिटाने में कष्ट होता है। परमात्मा प्राप्त की राह में " मैं " रूपी अहंकार का मिटना अतिआवश्यक है। प्रत्येक आरंभिक साधक के भीतर अहंकार होता है, प्रत्येक साधक यही चाहता है कि अहंकार भी रहे और परमात्मा मिल जाएँ। लेकिन परमात्मा पथ में आगे बढ़ने पर गुरु उसे बताता है कि अहंकार को मिटाना पड़ेगा , तब वो हताश हो जाता है। जैसा अर्जुन कि हताश हो गया था। प्रत्येक साधक अपने अहंकार बचाये रखने के लिए यथासंभव प्रयत्न करता है जैसा कि अर्जुन ने किया। अर्जुन अपने अहंकार को बचाये रखने के लिए कृष्ण को अनेक कुतर्क देने लगा। अर्जुन कुतर्क करता है कि अपने परिवार अर्थात अहंकार को मार कर सुखी कैसे हो जाएंगे? धर्म नष्ट हो जाएगा, कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाएँगी, वर्ण शंकर पैदा हो जाएगा , नरक मिलेगा।
ठीक इसीप्रकार प्रत्येक साधक सद्गुरु के सानिध्य में जाने पर अपने अहंकार को बचाये रखने के लिए ऐसे ही कुतर्क करता है जैसा अर्जुन ने किया। परंतु श्रीकृष्ण ने अर्थात सद्गुरु ने इन कुतर्कों को अज्ञान बताया।
श्री कृष्ण का अर्जुन के कुतर्कों का समन करके सद उपदेश देना
श्री कृष्ण महाराज बोले कि हे अर्जुन! तुझे इस समय मोह कैसे हो गया? सिद्ध है कि अर्जुन ने अभी तक जो कुछ तथ्य कृष्ण के समक्ष रखा है वह सब अर्जुन का अज्ञान मात्र है। श्रीकृष्ण ने कहा कि हे अर्जुन! इस मोह और अज्ञान से ना तुझे स्वर्ग मिलेगा , न कीर्ति मिलेगी। ये दुर्बलता छोड़ कर युद्ध के लिए खड़ा हो जा अर्थात मोह और अज्ञान को त्याग कर अपने अहंकार को मिटाने के लिए खड़ा हो जा। अर्जुन फिर कुतर्क करता है
कि हमने अधिक समय से अपने भ्रम रूपी बिता भीष्म और द्वैत रुपी द्रोणाचार्य से संबंध बना रखा है, इन्हें कैसे मार दूँ? अर्थात प्रत्येक साधक गुरु के सानिध्य में जाने से पहले भ्रम में और द्वैत में जीता है। ठीक यही अर्जुन भी कहता है कि भीष्म और द्रोण को मार कैसे दूँ? भीष्म माने भ्रम और द्रोण माने द्वैत। सभी साधकों को यही भ्रम रहता है कि हम परमात्मा से अलग हैं। प्रत्येक साधक की सबसे बड़ी भूल, सबसे बड़ा भ्रम यही होता है कि परमात्मा उससे बाहर कहीं अलग बैठा है और उसे परमात्मा को पाना है। इसी भ्रम रुपी भीष्म को मारने के लिए अर्जुन इस संघर्ष से कतराना चाहता है। गीता में स्थान स्थान पर श्रीकृष्ण अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरणा देते हैं, किंतु एक श्लोक ऐसा नहीं है जो बाहरी युद्ध या मारकाट का समर्थन करता हो।
महाभारत का युद्ध साधक के अंतकरण की वृत्तियों का संघर्ष है, बाहरी युद्ध के लिए गीता नहीं कहती। महाभारत मनुष्य की आसुरी वृत्तियों और दैविय वृत्तियों का संघर्ष है। जब मनुष्य अपनी देविय वृत्तियों के सहयोग से आत्म स्वरुप की ओर अग्रसर होता है तो उसकी आसुरी वृत्तियाँ अर्थात पाश्विक वृत्तियाँ साधक को अपने आत्म स्वरुप की ओर बढ़ने नहीं देती , प्रकृति की ओर खींचती हैं। इन आसुरी वृत्तियों का अर्थात पाश्विक वृत्तियों का पार पाना ही वास्तविक युद्ध है। इस युद्ध के परिणाम क्या मिलता है? इस युद्ध के परिणाम में परमात्मा में प्रवेश मिल जाता है अर्थात आत्मा में स्थिति में जाती है, आत्म भाव जग जाता है। गीता के समापन पर अर्जुन कहता है कि भगवन् ! मेरा मोह नष्ट हुआ और मेरी स्मृति वापस आ गई है। अब मुझे अपने शाश्वत स्वरुप का ज्ञान हो गया, आत्म बोध हो गया है।
अर्जुन अध्याय दो के छठवें श्लोक में कहता है कि हमने भ्रम से और द्वैत से नाशता बना रखा है, हमने अपने अहंकार से संबंध जोड़ रखा है हम इसको क्यों मारें? हम इन्हें ना मारकर भिक्षा में अन्न माँगकर खाना श्रेष्ठ समझते हैं। यहाँ भीक्षा का अर्थ पेट पालने के लिए भीख मांगना नहीं है बल्कि महापुरषों की टूटी - फूटी सेवा से कल्याण की याचना करें, यही अर्जुन के भीक्षा का कामना है। अर्जुन बाहरी भीख माँग कर पेट पालने को नहीं कह रहा है, अर्जुन कह रहा है कि महापुरुषों ,साधु संतों , सज्जनों की सेवा करके उनसे कल्याण की याचना करें। बुद्ध ने भी इसी प्रकार से सज्जन और साधु , संतों की सेवा से कल्याण की याचना को निषेध किया है। अर्जुन कुतर्क करता है कि इस मोह अज्ञान और अहंकार के नाश से क्या मिलेगा , यह मुझे नहीं पता है? इस प्रकार अर्जुन नी अध्याय दो के सातवें श्लोक में श्रीकृष्ण की समक्ष स्वयं को समर्पण कर दिया , अर्पित कर दिया। अर्जुन कहता है कि हे कृष्ण! धर्म के विषय में सब ओर से मैं मोहित होकर आपसे पूछता हूँ कि जो कुछ मेरे लिए कल्याणकारी हो, ऐसा उपदेश मुझे दीजिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ और आपकी शरण में हूँ। यहाँ अर्जुन ने अपने को पूर्ण समर्पण कर दिया।
श्रीकृष्ण अर्थात गुरु का उपदेश
श्रीकृष्ण महाराज बोले कि अर्जुन तु विद्वानों जैसे बातें तो करता है किंतु तुझे कुछ पता है नहीं, क्योंकि विद्वान लोग जो मरने वाला है और जो मर चुका है उसके लिए भी शोक नहीं करते। मरने वाला कौन है - अहंकार, और अहंकर मिट गया तो शेष क्या बचा? आत्मा। सिद्ध है कि अहंकार के नाश से आत्म बोध घटित होता है। संत कबीर का भी यही निर्णय है कि जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं हम नाहिं, अर्थात जब तक मेरे भीतर अहंकार था, तब तक परमात्मा नहीं मिले और जब परमात्मा मिले तो अहंकार नहीं बचा। श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि ना तो ऐसा ही है कि मैं किसी समय में नहीं था और ना ऐसा ही है कि तू नहीं था। श्रीकृष्ण कौन थे? अर्जुन कौन था? श्रीकृष्ण एक योगेश्वर सद्गुरु थे, श्रद्धालु अपने श्रद्धा अनुसार उन्हें परमात्मा, भगवान, ईश्वर, गुरु, कुछ भी कह कर संबोधित करते हैं। अनुराग अर्थात प्रेम ही अर्जुन है। हर युग में, हर काल में अनुरागी सदैव रहता है और सद्गुरु सदैव रहते हैं। इस जीवात्मा अर्थात अहंकार के इस शरीर में निरंतर परिवर्तन होते रहते हैं, इसीलिए योगी इस परिवर्तन को देखकर व्यथित नहीं होते, शोक नहीं करते। अर्जुन ना तो विषयों का सहयोग सदा रहेगा, ना ही इंद्रियों में क्षमता रहेगी उन्हें भोगने की, यह सब नाशवान है अनित्य है, क्षणभंगुर है, ऐसा जानकर तु इनका सहन कर। अर्जुन इसको क्यों सहन करे?
इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि अर्जुन सुख- दुख को समान समझकर स्थित हुए साधक को विषयों के संयोग या वियोग व्यथित नहीं कर सकते, ऐसा साधक परमात्मा प्राप्ति के योग्य हो जाता है अर्थात आत्मिक भाव में स्थित होने की सारी योग्यताएँ उस साधक में आ जातीं हैं। हिंदू समाज में इसी को मोक्ष कहते हैं, उपनिषदों के ऋषियों ने इसी को निर्वाण कहा है। अर्जुन असत्य वस्तु का अस्तित्व नहीं है और सत्य का किसी भी काल में में अभाव नहीं है। ये अंतर श्रीकृष्ण के साथ-साथ उपनिषद के ऋषियों, साधु संतों ने भी देखा है। सत्य क्या है? असत्य क्या है?
अर्जुन आत्मा ही एकमात्र सत्य है, इस सत्य का कभी विनाश नहीं होता, आत्मा ही अविनाशी है, आत्मा ही सत् है। ये सारा दृश्य जगत असत्य है। वेदांत ने भी इसी सत्य को घोषित किया है कि ब्रह्म सत्य , जगत मिथ्या। आत्मा ही नित्य, सत्य, पुरातन, सनातन, शाश्वत ,अजन्मा, है। हम और आप कौन हैं? हम और आप सनातन धर्म की अनुयाई हैं। सनातन कौन है? आत्मा। इसका अर्थ हुआ कि हम आप आत्मा के अनुयाई हैं। आत्मा , परमात्मा , ब्रह्म, भगवान एक दूसरे के पर्याय हैं। आप कौन हैं? सनातन धर्म के उपासक। सनातन क्या है? आत्मा। यदि आप आत्मिक पथ कौ नहीं जानते अर्थात आपको आत्म बोध नहीं है, तो आपके पास सनातन नाम का कुछ नहीं है। इसलिए आप सनातन धर्मी नहीं हैं, बल्कि सनातन धर्म के नाम पर किसी रूढ़ि के शिकार हैं।
जिस साधक ने आत्मा को नाशरहित, अजन्मा ,अव्यक्त, शाश्वत जान लेता है, उसकी भीतर साक्षी भाव जग जग जाता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि आत्मा अचल ,स्थिर, अकर्ता, अभोक्ता है। आत्मा ना तो जन्म लेता है और ना ही मरता है, इसको न शस्त्र काट सकता है, न जल गीला कर सकता है, न वायु सुखा सकता है, ना अग्नि जला सकती है। आत्मा , अचल, स्थिर, सर्वव्यापी, सनातन है। यह आत्मा इंद्रियों से परे है।
यह आत्मा चित्त में समाहित नहीं हो सकता, अतः चित्त का निरोध करें। आत्मा विकार रहित है, इसमें कुछ विकार नहीं आ सकते। ऐसा जानकर साधक को शोक रहित हो जाना चाहिए।
आगे के श्लोकों में श्रीकृष्ण विरोधाभास दिखाते हैं। अलग अलग साधक की अलग अलग अवस्था होती है, जिससे सद्गुरु उसके मोह को दूर करने के लिए तरह-तरह से समझाते हैं। श्रीकृष्ण समझाते हैं जो आया है, वो चला भी जाएगा इसके लिए शोक क्यों करना? जन्म लेने वाले की निश्चित मृत्यु होती है, इस सच्चाई से घबराना क्यों ? सोक क्यों करना? संताप क्यों करना? पहले श्रीकृष्ण ने कहा था कि आत्मा जन्म नहीं लेता और ना ही मरता है और अभी कह रहे हैं कि जो जन्म लेता है वह मरता भी है। ये विरोधाभास क्यों? प्रिय पाठकगण आप चिंता ना लें, आप इस विषय में संशय न करें कि श्री कृष्ण विरोधाभास क्यों करते हैं? यह मात्र श्रीकृष्ण की एक भाषा शैली है जिससे साधक आत्मा के बारे में भली भाँति समझ जाए, संशयरहित हो जाए। अर्जुन मोह के कारण ही विकल था। श्रीकृष्ण अर्जुन के मोह को दूर करने के लिए तरह तरह से समझाते हैं।
प्रत्येक साधक को मोह के कारण आत्म भाव में स्थित नहीं हो पाते।
श्री कृष्ण कहते कि अर्जुन जिस समय तुम मोह से बाहर निकल पाएगा उस समय तो वैराग्य को प्राप्त हो जायेगा। जब साधक का मोह समाप्त हो जाता है, तब अविद्या दूर हो जाती है और साधक का परम देव परमात्मा से संयोग बन जायेगा। जिस समय साधक मन से सारी इच्छाओं का त्याग देता है, अपने आप में ही संतुष्ट, तृप्त और शांत रहता है, जो साधक दुख में रोता नहीं, सुख में हर्षित नहीं होता, जिस साधक का राग, भय और क्रोध नष्ट हो गया है, जो साधक ममता और द्वैष से रहित है, वही योगी है, वही संयासी है।
प्रारंभिक साधक को बाहरी विषयों का चिंतन नहीं करना, क्योंकि विषयों के चिंतन से आसक्ति उत्पन्न होती है, और आसक्ति से इच्छा उत्पन्न होती है और इच्छा ना पुरी होने से क्रोध उत्पन्न होता है, क्रोध से मूढ़ता आती है, मूढ़ता से ज्ञान नष्ट हो जाता है, इसीलिए साधकों इससे सतत सावधान रहना चाहिए। परंतु जो साधक विषयों के पीछे नहीं पड़ता, वह अपने आत्मा में ही संतुष्ट, तृप्त और शांत रहता। इस प्रकार कर्मयोगी साधक की बुद्धि बाहरी विषयों में न जाकर आत्मा में स्थित रहता है।
ज्ञानयोग और कर्मयोग
कर्मयोंग के विषय में श्रीकृष्ण कहते हैं कि साक्षी भाव से इंद्रियों को वश में करके अनासक्त होकर मोक्षद कर्म का आचरण करना कर्म योग है। अर्थात परमात्मा पर निर्भर होकर समर्पण के साथ मोक्षद कर्म में प्रवृत्त होना निष्काम कर्म योग है।
जो साधक आत्मा में रमा हुआ है, आत्मतृप्त है, अपनी आत्मा में ही संतुष्ट है। इस प्रकार स्वयं पर निर्भर होकर स्वभाव समझ कर मोक्षद कर्म में प्रवृत्त होना ज्ञानयोग है।
काम(विषयों में आसक्ति) और ज्ञान एक दूसरे के विरोधी है। यही बात से श्रीरामगीता में भी रामचंद्र कहते हैं। श्रीकृष्ण ने कहा कि पापी से ही भी बड़ा पापी क्यों ना हो। ज्ञान रुपी नौका द्वार निसंदेह पार हो जाएगा।
जो साधक न किसी से ईर्ष्या करता है ना किसी से लगाव ही रखता है, जो सुख दुख को समान समझने वाला संसार के द्वंद्व से रहित है, वही संयासी है। सन्यास का अर्थ है इसका सब कुछ नष्ट हो गया हो, अर्थात कर्तापन ,भोक्तापन नष्ट हो गया हो। ऐसा साधक साक्षी भाव से कर्म करता हुआ भी कुछ भी नहीं करता ,वही संयासी है। जो साधक अपने संपूर्ण कर्म को परमात्मा में अर्पण कर दे अर्थात साक्षी भाव से कर्म करके भी कर्म में लिप्त नहीं होता। जो साधक परमात्मा में एक ही भाव से स्थित है अर्थात अपने आत्मा में ही तृप्त और संतुष्ट है, ऐसा साधक परमगति को प्राप्त होता है। परमात्मा में एक ही भाव से स्थित हुआ ज्ञानी साधक समदर्शी हो जाता है। वह सोने और मिट्टी को एक ही भाव से देखता है, उस साधक के लिए विषमताएँ समाप्त हो जाती है। वह गाय ,कुत्ता, हाथी , पक्षी को समान समझता है। ऐसा स्थिर बुद्धि संग से रहित साधक आनंद को प्राप्त होता है।
श्रीकृष्ण का उपदेश
जो साधक आत्मा में ही रमण करने वाला है, जो साधक अपनी आत्मा में ही एक ही भाव से स्थित है, वह ब्रह्म को हो जाता है। केवल अग्नि को त्याग देने से संन्यास सिद्ध नहीं होता और ना ही कर्म को न करने से योग सिद्ध होता है। जो फल की इच्छा से रहित होकर करनेयोग्य मोक्षद कर्म को करता है वही योगी है, वही संयासी है। जिस साधक के अंतः करण की वृत्तियाँ सुख दुख में, मान अपमान में भली प्रकार शांत हैं, उस साधक को परमात्मा उपलब्ध हैं। जिस साधक का अंतःकरण ज्ञान विज्ञान से संतुष्ट है, विकारहित है, जिस साधक की इंद्रियाँ वश में हैं, जिसके लिए मिट्टी ,पत्थर ,सोना , धन एक समान है, वही साधक परमात्मा को उपलब्ध है।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! हजारों मनुष्यों में कोई बिरला मनुष्य मेरी प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता है अर्थात आत्म स्वरुप की ओर अग्रसर होता है। इन प्रयत्न करने वालों में कोई बिरला ही मुझे तत्व से जान लेता है अर्थात कोई बिरला साधक ही आत्म साक्षात्कार करता है।
श्रीकृष्ण कैसे मिलेंगे?
श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि कि हर समय तू मेरा चिंतन कर और युद्ध भी कर। भगवान का चिंतन और युद्ध एक साथ कैसे संभव है? हो सकता है कि युद्ध का यही स्वरूप हो कि जय कन्हैया लाल की, जय भगवान की कहते रहें और बाण भी चलाते रहें। नहीं बंधुओं! ये कोई बाहरी युद्ध नहीं है, गीता साधक के अंतःकरण की वृत्तियों के संघर्ष का चित्रण है। बाहरी युद्ध के लिए गीता नहीं कहती। जब साधक अपने आत्मा में ही रमे रहने की कोशिश करता है, तो उस साधक की आसुरी वृत्तियाँ बाधा के रूप खड़ी हो जाती हैं। साधक की आसुरी वृत्तियाँ साधक को आत्मभाव में स्थित होने नहीं देती, उसका मन विषयों की तरफ चलायमान करती हैं। इन आसुरी वृत्तियों का अर्थात पाश्विक वृत्तियों का पार पाना ही युद्ध है। श्रीकृष्ण एक योगेश्वर हैं, एक सद्गुरु हैं, परमात्मा में स्थिति वाले महापुरुष हैं। परमात्मा को तत्व से जान लेने के बाद में साधक का भी वही स्वरुप है जो श्रीकृष्ण का है। उपनिषदों में भी यही कथन प्रतिपादित किया गया है कि जो ब्रह्म को जानता है, वो ब्रह्म ही हो जाता है। यही कथन योगेश्वर श्रीकृष्ण भी कहते हैं कि जो मुझमें अर्थात परमात्मा में एक ही भाव से स्थित है, वह मेरा ही स्वरुप है। उसने और मुझमें कोई अंतर नहीं है। जैसे श्रीकृष्ण ठीक वैसा ही अर्जुन भी। गुरु का गुरुत्व हृदय में प्रवाहित करने पर गुरु एक जैसा हो जाता है। संतो का भी यही निर्णय है कि हरि और हरि के जन एक ही होते हैं। ठीक यही बात योगेश्वर श्रीकृष्ण भी कहते हैं।
योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो साधक निरंतर आत्मा में ही रत है, आत्मा में ही तृप्त और संतुष्ट है, जिसे साधक ने सब ओर से इंद्रियों को विषयों से समेट कर मन को आत्मा में अर्थात स्वयं में स्थित करके निर्गुण ,निराकार अविनाशी ब्रह्म को जानता है, वह परमगति को अर्थात परमात्मा को प्राप्त हो जाता है, परम गति को प्राप्त होना या परमात्मा को प्राप्त होना या श्रीकृष्ण को प्राप्त होना, एक ही बात है। पाठकगण ध्यान दें जो अपने आत्मा में ही रमा हुआ है वही परमात्मा को अर्थात श्री कृष्ण को प्राप्त होता हैं। जो मनुष्य भोगों को चाहने वाला है, विषयों में आसक्त है , ऐसा पुरुष कभी आत्म बोध नहीं कर सकता अर्थात श्रीकृष्ण को उपलब्ध नहीं हो सकता।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं काल से परे हूँ, संपूर्ण जगत में तत्व रुप से व्याप्त हूँ। प्रिय साधकों ! ये सारा दृश्य जगत आत्मा की ही अभिव्यक्ति है। श्री कृष्ण ने कहा था कि असत् वस्तु का अस्तित्व नहीं है और सत् का तीनों कालो में अभाव की है, और परमात्मा ही एक मात्र सत्य है।
गीता के समापन पर अर्जुन कहता है कि मेरा मोह नष्ट हुआ मेरी स्मृति वापस आ गई। मोह और अज्ञान को दूर करके आत्मबोध कराना ही गीता का मुख्य उद्देश्य है। गीता अनंत है गीता कभी खत्म नहीं होती , यह गीता का मात्र संक्षिप्त सार है। ओम श्री परमात्मने नमः
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