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𝗟𝗮𝗻𝗴𝘂𝗮𝗴𝗲

वेदांत , उपनिषद और गीता प्रचारक

महात्मा बुद्ध

महात्मा बुद्ध का जीवन और ज्ञान

सिद्धार्थ गौतम का जन्म लगभग 580 ई0 पू0 हुआ था, और वे कपिलवस्तु भारत में रहते थे। उनके पिता सुधोदन शाक्य वंश के मुखिया थे, वहीं से शाक्यमुनि नाम आया। जब सिद्धार्थ की माता माया देवी गर्भवती थी, उन्हें एक स्वप्न आया जिसमें एक छह दांतों वाले सफेद हाथी ने उनके शरीर में प्रवेश किया। बाद में इसका यह अर्थ निकाला गया कि वह किसी महान व्यक्ति को जन्म देने वाली है। गर्भकाल के अंतिम चरण में अपने पिता के घर जाने के लिए माया देवी अपने घर से यात्रा पर निकल पड़ी क्योंकि उन दिनों यह प्रथा थी कि महिलाएं अपने पिता के घर शिशु को जन्म दें। यात्रा के दौरान उन्होंने नेपाल स्थित लुम्बिनी नामक गाँव में सिद्धार्थ को जन्म दिया। दुर्भाग्यवश जन्म देने के सात दिन पश्चात सिद्धार्थ की माता का देहांत हो गया और सिद्धार्थ का पालन पोषण उनकी बहन ने किया। अतिता नामक ब्राह्मण ने सिद्धार्थ के पिता को बताया कि यह बालक भविष्य में या तो एक महान योद्धा या एक महान सन्त बनेगा। उनके पिता चाहते थे कि वे एक महान महान योद्धा बनें तथा शाक्य कुल का नाम रोशन करें। सिद्धार्थ का पालन पोषण अत्यंत विलासिता एवं वैभव से किया गया व उन्हें हर प्रकार के दुखों से दूर रखा गया। यद्यपि सिद्धार्थ का मन दूसरी ही दिशा में आकर्षित था।

वह एक दयालु एवं करुणावान बालक थे और अपने पिता के पद चिन्हों पर चलने में जरा भी उत्सुक नहीं थे। एक कथा जो कि सिद्धार्थ के बचपन की है उसके अनुसार उनके चचेरे भाई द्वारा एक हंस को तीर द्वारा घायल करने पर वे अत्यन्त दुःखी हो गये थे और उन्होंने उस हंस की देख-भाल कर उसका जीवन बचाया था। उनके करुणापूर्ण हृदय को दर्शाने वाली उनके जीवन में ऐसी बहुत सी घटनाएं घटी। थोड़ा बड़ा होने पर जब वह निकट के गावों में घूमने गए तो उन्होंने चार ऐसे दृश्य देखे जिसका उनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। पहले दृश्य में उन्होंने एक बहुत बूढ़े व्यक्ति को देखा जो झुककर चल रहा था और उसे चलने में कठिनाई महसूस हो रही थी, फिर उन्होंने एक बीमार व्यक्ति को देखा जो बहुत दर्द की स्थिति में था। फिर एक मृत व्यक्ति को शैय्या पर शमशान ले जाते हुए बहुत से लोगों को देखा, और अन्त में उन्होंने एक साधु को जाते हुए देखा। बूढ़े व्यति, मृत व्यक्ति और बीमार व्यक्ति आदि को देखकर उनका हृदय पीड़ित हुआ और उनके मन पर इसका बहुत गहरा प्रभाव पड़ा, आने वाले कुछ महीनो में उन्होंने उस महात्मा की बहुत तलाश की जिसने अपने जीवन का त्याग इसलिए किया ताकि मृत्यु एवम् दुःखों से मुक्ति मिल सके।
उनका वैभवपूर्ण जीवन उन्हें किसी प्रकार की सन्तुष्टि नहीं दे पाया क्योंकि उनका मन उन रहस्यों में उलझा रहा। यद्यापि उनकी पत्नी यशोधरा ने उन्हें राहुल के रूप में एक पुत्र दिया परन्तु वह भी उन्हें मानसिक तनाव से मुक्त न कर सका। अन्त में वह इसको सहन न कर पाए और उन्होंने अपना घर त्याग दिया व अपनी राजकुमार वाली वेश-भूषा बदल दी और एक साधु के वस्त्र धारण कर लिए। यह उनका ज्ञानोदय प्राप्ति की ओर उठा पहला कदम था। 
उन्होंने उस काल के प्रख्यात गुरूओं को ढूंढा तथा उनसे दर्शन व ध्यान की शिक्षाएं प्राप्त की। उनसे सब शिक्षाएं प्राप्त करने के पश्चात भी सिद्धार्थ के मन में कुछ संदेह थे, व उनके कुछ प्रश्न अनुत्तरित थे। वे पांच अन्य साधुओं के साथ अपने प्रश्नों के उतर ढूंढने निकल पड़े उन सब ने लगभग भूख से मर जाने की सीमा तक उपवास रखकर कांटेदार छड़ी से स्वयं को पीटकर जमा देने वाली ठंड में बैठकर या कड़ी धूप में निर्वस्त्र बैठकर स्वयं को अत्यन्त शारीरिक कष्ट दिए किन्तु इन सब से सिद्धार्थ को अपने प्रश्नों का कोई उत्तर प्राप्त नहीं हुआ। इन प्रयासों को लगभग छः वर्ष तक करने के पश्चात् उन्हें यह महसूस हुआ कि उन्होंने भोग विलास के जीवन के बदले तपस्या के जीवन का चुनाव कर लिया। फिर उन्होंने सोचा कि इन दोनों चरमों के बीच कोई मध्य मार्ग अवश्य होना चाहिए।
इसके कुछ ही समय पश्चात उन्होंने सुजाता नाम की लड़की से खीर ग्रहण की और अपना उपवास तोड़ा। बाकि के पांचों साधुओं ने यह देखकर सोचा कि सिद्धार्थ ने अपनी खोज त्याग दी और वे पांचों उनसे विमुख हो गए। सिद्धार्थ इसके पश्चात एक बोधि वृक्ष के नीचे बैठ गए जो कि बोध गया (बिहार, भारत) में था और वहां उन्होंने यह प्रण किया कि वे तब तक नहीं उठेगे जब तक वह ज्ञान प्राप्ति न कर लें। यह माना जाता है कि वे उस बोधि वृक्ष के नीचे उनचास दिनों तक बैठे रहे व उन्हें अन्तत: ज्ञान प्राप्ति हो गई। अब वे एक बुद्ध अर्थात एक ज्ञानवान व्यक्ति थे। उनकी ध्यान अवस्था कई चरणों से गुजरी और यह माना जाता है कि एक समय पर मरा नामक राक्षस ने उन्हें ज्ञान प्राप्ति से रोकने की कोशिश की यह और कुछ नहीं बल्कि उनका भ्रमित मन था। अगली सुबह ज्ञान प्राप्ति के बाद उन्हें मानवीय दुःखों के कारण और उनके निवारण के बारे में पता चला। इसके बाद भी लगभग चार सप्ताह तक वे उसी बोधि वृक्ष के नीचे अलग-अलग तरह के ध्यान करते रहे। बुद्ध इस संशय में थे कि जो ज्ञान उन्हें प्राप्त हुआ है उसे किसी को सिखाया जाए या नहीं क्योंकि वह इतना विशाल एवम् प्रगाढ़ था कि उन्हें लगा कोई उसे समझ नहीं सकेगा।

तथापि वह दो व्यापारियों तपुसा और भलिका से मिले जिन्होंने उनसे आग्रह किया कि वे अपने ज्ञान को उन्हें सिखाएं। उन दोनों को बुद्ध ने अपना एक-एक बाल दे दिया और वे वाराणसी के निकट हिरण पार्क में चले गए। वहां उन्हें अपने पुराने पांचों साथी मिले जिनके साथ उन्होंने काफी समय तक ध्यान किया था। उन्हें बुद्ध ने अपनी प्रथम शिक्षा दी जिसमें चार आर्य सत्य तथा अष्टाग मार्ग शामिल थे। धर्म चक्र गतिमान किया जा चुका था। बुद्ध ने अगले पैंतालीस वर्ष धर्म की शिक्षा में लगा दिए। उन्होंने हर किसी को, जो भी उनकी शिक्षाओं के लिए उत्सुक था, चाहे वह राजा हो अथवा भिखारी, अपनी शिक्षाएं दी। वह सभी के लिए समानता में विश्वास रखते थे और वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने पुरुषों व महिलाओं दोनों को संन्यास में शामिल किया। बाद में उनकी पत्नी एक साध्वी व उनका पुत्र एक साधु बन गए। उनके इस कार्य ने जाति एवं सामाजिक मापदंडों को तोड़ा। लगभग अस्सी वर्ष की आयु में 'बुद्ध का देहांत हो गया तथा कहा जाता है कि उनके अंतिम शब्द ये थी कि सभी चीजें अस्थायी हैं और अपनी मुक्ति के लिए अथक परिश्रम करो।

प्रश्न्न- बुद्ध को नास्तिक क्यों कहा गया?

समाधान - जिन्होंने भी बुद्ध को नास्तिक कहा है ,वो वही लोग हैं जिन्होंने बुद्ध को समझा नहीं जाना नहीं। मैं कहता हूं कि बुद्ध से बड़ा कोई आस्तिक नहीं। बुद्ध एकमात्र ऐसे महापुरुष हैं जिन्होंने किसी को नास्तिक होने का अवसर दिया ही नहीं। बुद्ध ने तो संसार की असारता ,संसार का दुख दिखा दिया। बेहोश लोगों को अपने दुख, अपने बंधन दिखाई नहीं देते। बुद्ध ने तो सबको होश में लाया है। बुद्ध ने भले ही परमात्मा के बारे में कोई बात नहीं की लेकिन बुद्ध से बड़ा कोई आस्तिक नहीं। बुद्ध ने तो संसार की सच्चाई दिखा दी जिसको तुम झुठला ना नहीं सकते इसीलिए नास्तिक होने का सवाल नहीं है।

प्रश्न्न- जीवन में दुख ही दुख दिखता है। इस दुख से मुक्ति कैसे मिले? 

समाधान - तुम्हारे दुख का कारण तुम्हारा भ्रम है ,तुम्हारा अज्ञान है। हमने स्वयं से अनंत इच्छाएँ जोड़ रखी है और जब इच्छा पूर्ति में व्यवधान होता है तो हमें दुख होता है। एक इच्छा पूरी होगी तो दूसरी इच्छा आयेगा। इच्छाओं का कोई अंत नहीं। और जो इच्छाओं को पूरी करने लगा उसके दुख का कोई अंत नहीं, क्योंकि इच्छाएँ अनंत है, अतः दुख भी अनंत ही होगा। हम लोगों ने ऐसी गलत धारणा बना रखी है कि भौतिक वस्तु और विषय भोग को भोगने से हमें सुख मिलेगा, जो कदापि 
संभव नहीं है। ना तो अधिक समय तक विषय भोग स्थाई रहने वाले हैं और ना ही इंद्रियों में अधिक समय तक क्षमता ही रहेगी उन्हें भोगने की। हमें इच्छाओं को पूरी करने से संतुष्टि मिलती नहीं है क्योंकि इच्छाएँ अनंत हैं, एक इच्छा पूरी होगी तो दूसरी नई इच्छा जन्म ले लेगी।

और याद रखना जो अपनी इच्छाओं को पूर्ति करने में ही जीवन लगा देता है वह कभी परम शांति को उपलब्ध नहीं हो सकता। जो चीजें कल आकर्षक लगती थी , आज उन पर थूकने का मन नहीं करेगा। तो हमारे दुख का मूल कारण क्या है ? हमारी व्यर्थ की इच्छाएँ। 
 

बुद्ध की शिक्षाएँ


दुख सत्य है। दुख के कारण होते हैं। दुखों से मुक्ति पाई जा सकती है। दुखों से मुक्ति का मार्ग है।
बुद्ध ने दुख का आर्य सत्य भिक्षुओं को इस प्रकार बताया गया है। जन्म दुख है, बढ़ती आयु व मृत्यु दुख है, बीमारी, असन्तुष्टि, इत्यादि सब दुख हैं। जो प्रिय न हो उससे सम्बन्ध होना दुख है, जो प्रिय हो उससे बिछुड़ना दुख है, जिसे चाहा हो और वह न मिले तो वह भी दुख है। अब हम विस्तार से इस पर बात करेंगे। जन्म दुख है, बढ़ती आयु दुख है व मृत्यु दुख है:- जीवन में दुख लाते हैं, जन्म कष्टपूर्ण हो सकता है। बुढ़ापा अपने साथ बीमारी इत्यादि लाता है। कभी-कभी कष्ट और अकेलापन भी लाता है और मौत तो अधिकतर कष्टपूर्ण ही होती है। सत्य तो यही है। कि हमारे जीवन का कोई भी हिस्सा दुख से मुत नहीं है और जन्म से मरण तक का चक्र ही दुख है। पीड़ा, दर्द, कष्ट, असन्तुष्टि, इत्यादि सब दुख हैं। जब हम किसी प्रिय वस्तु को खोते हैं तो उससे होने वाली प्रतिक्रिया जिन्हें हम कष्ट, सन्ताप इत्यादि का नाम दें, वह दुःख ही है क्योंकि कोई भी वस्तु चिर स्थायी नहीं है और परिवर्तनशील है।

इसलिए किसी भी चीज के प्रति हम आसत क्यों न हों वह हमें दुःख ही देगी जब हम उससे अलग होंगे। आप ऐसा सोचें कि आपने बहुत समय तक धन इकट्ठा किया ताकि आप अपनी मनपसंद जगह अवकाश मनाने जा सकें। जब आप वहां पहुंचते हैं तब मौसम सुहावना है और आप बहुत प्रसन्न हैं परन्तु मौसम परिवर्तनशील है और हर वत बदल रहा है और आपकी बाकी की छुटिटयां वर्षों होने के कारण कष्टपूर्ण एवं दुःखदायी प्रतीत होती हैं और जो आनन्द आप अवकाश शुरू होने के वत महसूस कर रहे थे वह दुख में परिवर्तित हो जाता है। अप्रिय चीजों से सम्बन्ध ही दुख है।
आप दुखी हैं। दुख संसार में रहने वाले प्रत्येक व्यति के जीवन का हिस्सा है केवल आपके जीवन का नहीं। उन्होंने आपको केवल यह कहा है कि यह जानें कि जीवन में दुख है। दुख ऐसा धागा है जो प्रत्येक जीव के जीवन से गुजरता है। दुख प्रत्येक व्यति तथा जीव के हिस्से में आता है। बुद्ध चाहते थे कि हम यह समझे तथा इसके साक्षी बनें कि जीवन में दुख है क्योंकि यदि आप यह नहीं समझेंगे कि जीवन में दुख है तो आप इसे कम करने का प्रयास भी नहीं करेंगे।

बुद्ध ने हमें यह बताया कि वास्तव में तीन प्रकार के दुख होते है। एक वह जिससे जीवन में प्रतिदिन पीड़ा, असन्तुष्टि, असहजता तथा कुछ कमी होने का अहसास बना रहता है। दूसरे प्रकार का दुख तनाव के कारण होता है क्योंकि बुद्ध ने बताया कि संसार में ऐसा कुछ भी नहीं है जो सदैव बना रहे। अन्तिम प्रकार का दुख जो सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि यह दुसरे दोनों प्रकार के दुखों के लिए आधार का काम करता है, वह हर समय हम जो भी कार्य करते हैं महसूस करते हैं या सोचते हैं, देखते है उसमें विद्यमान रहता है। इसे सर्वव्यापक दुख की तरह जाना जाता है क्योंकि यह हर उस चीज में पाया जाता है जो दो या दो से ज्यादा चीजों से मिलकर बनती है। बुद्ध ने अपने पहले उपदेश में यह स्पष्ट कर दिया कि जब तक हम मानव शरीर में हैं तब तक दुख से छुटकारे की कोई संभावना नहीं है। पैदा होना, जीना तथा मृत्यु आना, सब दुख है। हमारे सभी विचार, भाव, उम्मीदें तथा इच्छाएँ सभी दुख है।

हम महसूस करते हैं कि यह जीवन हमें अंसतोष प्रदान कर दुख देता है और मृत्यु ही एकमात्र मार्ग है। हम सोचते हैं कि मृत्यु के बाद हम चमत्कार से स्वर्ग में भेज दिये जाएंगे जहाँ निर्वाण है। परंतु निर्वाण कोई स्थान नहीं है यह तीन विषों की समाप्ति है। बुद्ध ने इसे पूर्ण शांति से परिभाषित किया है। यह इच्छाओं, क्रोध और अन्य दुखों से मुत मन की स्थिति है। निर्वाण कोई परिणाम नहीं है क्योंकि यदि होता तो, किसी कारण का परिणाम होता, जो इसे यौगिक तथा अस्थायी बना देता । परंतु निर्वाण प्राकृतिक, अजन्मा और अविनाशी है। समस्या यह है कि निर्वाण हमारी समझ यह भी से बाहर है। यह बुद्धिमता से नहीं समझा जा सकता क्योंकि निर्वाण ही हमारा सत्य स्वभाव है। निर्वाण ही ज्ञान है। बुद्धिमता और ज्ञान में बहुत बड़ा अंतर है। बुद्धिमता प्राप्त की जा सकती है, यह कभी भी वास्तविक नहीं होती है और बाहर से सीखी जाती है। मृत्यु होने पर बुद्धिमता समाप्त हो जाती है परंतु ज्ञान अगले जीवन में चला जाता है। संस्कृत में इसे विद्या या ज्ञान कहा जाता है। और प्रबुद्ध ज्ञान खैतवादी सोच के बाहर है यह ज्ञान ही हमारा बुद्ध स्वभाव है और बौद्ध धर्म का सार है। अच्छी खबर यह है कि यह बुद्ध स्वभाव हमारे भीतर ही है।


आप को बुद्ध बनने के लिए कहीं और देखने की आवश्यकता नहीं है। आप को बुद्ध होने के लिए मरने, भूखा रहने, शरीर पर राख मलने, गर्म कोयले पर चलने या किसी उच्च शक्ति की जरूरत नहीं है। बुद्धत्व आप की पहुंच में है और इसे प्राप्त किया जा सकता है क्योंकि यह आपका स्वभाव है। आप पहले से ही बुद्ध हैं। तथागतगभ सूत्र बताता है:- सभी जीवित प्राणी उनकी पवित्रताओं और अनेक जीवनों की यात्रा के बावजूद मूलतः बुद्ध के समान हैं। मैत्रेया के उत्तरतन्त्र के अनुसार: सभी प्राणियों में बुद्धत्व का सार मौजूद है क्योंकि उन में बुद्ध के ज्ञान का वास है। हम बुद्ध स्वभाव को प्राप्त क्यों नहीं कर पाते? हम सभी कर सकते हैं। परंतु हमारा बुद्ध स्वभाव इस प्रकार से ढका हुआ है जैसे हीरा कीचड़ में सना हो। यहाँ हीरा हमारा बुद्ध स्वभाव है और कीचड़ तीन विषों से बनता है। अनंत काल से हम गलत दृष्टिकोण में पड़े हुए हैं। हम सांसारिक तथा भौतिक वस्तुओं की इच्छा रखते हैं और विश्वास करते हैं कि ये वस्तुएँ हमें खुशी प्रदान करेंगी। जो वस्तुएँ हमारे दृष्टिकोण में नहीं समाती हम उन्हें नापसंद करते हैं। जैसे स्थायीत्व, "में" की भावना और डैतवाद। ये सभी कीचड़ हैं जिसने हमारा हीरा या बुद्ध स्वभाव ढका हुआ है। यदि हम दूध का मंथन करते हैं तो हमें मक्खन प्राप्त होता है परन्तु पानी का आप जितना भी मंथन करो आप को कभी मक्खन प्राप्त नहीं होगा। यदि आप तिल का बीज दबाओगे तो आप को तिल का तेल प्राप्त होगा, परन्तु यदि आप रेत को जितना भी दवाओ, आप को कभी तेल प्राप्त नहीं होगा। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि मक्खन और तेल की संभावना दूध और तिल में मौजूद है, पानी व रेत में नहीं। अतः निर्वाण की सम्भावना हम सब के भीतर है। यह हमारा असल स्वभाव है।


हमारा सत्य स्वभाव ढका हुआ है परंतु यह किसी भी तरह कलंकित या दुषित नहीं है। एक बार रुकावटें दूर कर दी जाएं तो हमारा असल सत्य स्वभाव खुद-ब-खुद चमकने लगेगा। जिस प्रकार आकाश में बादलों के छट जाने से सूर्य की रोशनी स्वतः ही दिखाई पड़ती है। मैं जो कहने का प्रयास कर रहा हूँ वह यह है कि निर्वाण प्राप्त करने के लिए हमें किसी बाहरी शक्ति की आवश्यकता नहीं है। यह हमारे भीतर पहले से ही मौजूद है। हम ध्यान के द्वारा अपना असल स्वभाव जानकर मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं।


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