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𝗟𝗮𝗻𝗴𝘂𝗮𝗴𝗲

वेदांत , उपनिषद और गीता प्रचारक

योगवशिष्ठ सार : संक्षेप

इस दिवाली जानिए राम के वास्तविक स्वरूप को : योगवशिष्ठ सार

याद रखो- मै ,तुम ,ये , वो, जगत इत्यादि जो कुछ भी दिखाई देता यह सब कल्पना मात्र है, यह निर्गुण, निराकार, सत्य ,सनातन ब्रह्म की अभिव्यक्ति मात्र है। इस भौतिक आंखों से दिखने वाले दृश्यमान जगत में अदृश्य परमात्मा ही सत्य है, जैसे मोतियों की माला में धागा अदृश्य रहता है किंतु मोतियों के संगठित होने का एकमात्र कारण अदृश्य धागा ही है। यदि मोतियों में पिरोया हुआ अदृश्य धागा ना हो तो मोतियाँ विखर जायेगी, माला टूट जाएगा। हम सभी की हृदय में सत्य विराजमान है। डॉक्टर शरीर का पोस्टमार्टम करते है किंतु उन्हें शरीर में कहीं भी सत्य दिखाई नहीं देता। क्योंकि परमात्मा इंद्रियों का विषय नहीं हैं। मन ,बुद्धि से सत्य को जाना नहीं जा सकता। उन्हीं निर्गुण, निराकार ,अविनाशी, एकमात्र सत्य परमात्मा को ही राम कहते हैं। उस सच्चिदानंद ब्रह्म के सिवाय कुछ भी सत्य नहीं हैं। इस बात को स्मरण रखो कि आकाश की शून्यता आकाश ही है, समुद्र की तरंगे समुद्र ही है, बर्फ की शीतलता बर्फ ही है, ठीक उसी प्रकार ब्रह्म में दिखने वाला दृश्य जगत ब्रह्म ही है। ये संपूर्ण जगत भ्रम के कारण हमें सत्य दिखाई देता है, जब तक भ्रम है तभी तक हमारी दुनिया है, हमारा परिवार है, हमारा संसार है, भ्रम नहीं तो कुछ भी नहीं। सत्य का ज्ञान होने पर मिट जाता है, जैसे मरीचिका के कारण हमें रेगिस्तान में भी पानी दिखाई देता, जबकि रेगिस्तान में दूर दूर तक कहीं पानी नहीं होता।

हमारे आंखों के भ्रम के कारण हमें रेगिस्तान में भी पानी दिखाई देता है, यह मात्र एक भ्रम है। ब्रह्म का ज्ञान होने पर सारा जगत वैसे ही मिट जाता है, जैसे मरीचिका का ज्ञान होते ही पानी का भ्रम मिट जाता है। वास्तव में सच्चिदानंद परमात्मा के सिवाय कुछ है ही नहीं। जैसे सपने से जागते ही सपनों में कल्पित सारा संसार मिट जाता है, भ्रम के दूर होते ही द्वैत खत्म हो जाता है, अद्वैत की उपस्थिति हो जाती है।
जब एक ब्रह्म के अतिरिक्त कोई सत्ता ही नहीं रह जाती, तब भिन्न अहंकार कहाँ रहेगा और अहंकार का अभाव होते ही राग-द्वेष, ममता-मोह, मेरा-तेरा आदि सब मिथ्या विकार मिट जाते हैं, जैसे स्वप्न से जागते ही स्वप्न का सारा संसार सर्वथा मिट जाता है। फिर जगत् में रहता हुआ भी इस ज्ञान को प्राप्त जीवन्मुक्त पुरुष नित्य निरन्तर ब्रह्म में ही स्थित रहता है। वह जगत के आदि, मध्य, अन्त सभी अवस्थाओं में समचित्त रहता है; क्योंकि तब उसका चित्त ही नहीं रह जाता। अतएव वह न तो प्राप्त हुई प्रिय कहलाने वाली वस्तु का अभिनन्दन करता है, न अप्रिय से द्वेष करता है, न नष्ट हुई प्रिय वस्तु के लिये शोक करता है और न अप्राप्त वस्तु की इच्छा ही करता है ।
ऐसा परमतत्त्व को प्राप्त परमात्मा मे अभिन्नभाव से स्थित पुरुष जगत् की क्षणभंगुर अवस्था को अपनी ब्रह्म स्थिति के अंदर हुआ देखता है। उसके लिये न कुछ पाना शेष रह जाता है, न कुछ करना रह जाता है। वह सर्वव्यापी परब्रह्म परमात्मस्वरूप ही बन जाता है। यही योगवासिष्ठ की शिक्षा है।


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