प्रश्न्न - जब शास्त्रों में कहा गया है कि जप ,तप ,ध्यान, साधना इत्यादि से मोक्ष मिल सकती है तब आप क्यों कहते हैं कि ज्ञान के  बिना मोक्ष नहीं मिलता?
श्याम - जप, तप , ज्ञान ,ध्यान, इत्यादि सहायक साधन है, परंतु मुख्य साधन ज्ञान है। जैसे मान लीजिए कि आपको कोई पकवान बनाना है पकवान की सारी सामग्री आपके पास उपलब्ध है,  केवल अग्नि नहीं है तो क्या पकवान तैयार हो जाएगा? तेल, मासाला और अन्य सामग्री उपलब्ध हो लेकिन बिना अग्नि के क्या पकावान तैयार हो जाएगा? पकेगा क्या? नहीं पकेगा ना। ठीक इसी प्रकार तप, जप ,ध्यान ,साधना, इत्यादि साधक के लिए प्रारंभिक रूप से सहायक होती है, परंतु यह सभी साधन अंतःकरण की शुद्धि के लिए है। परंतु मुख्य साधन आत्मज्ञान ही है। जेसीबी ना अग्नि के पकवान पक कर तैयार नहीं होगा भले ही अन्य सामग्रियां उपलब्ध है। ठीक वैसे ही बिना ज्ञान के मुक्ति संभव नहीं है भले ही जप, तप करके अंतःकरण शुद्ध हो गया हो। इसीलिए वेदांत कहता है कि ज्ञान के बिना मुक्ति संभव नहीं है। अध्यात्म में प्रारंभिक स्तर पर जप, तप, साधना, इत्यादि का थोड़ा महत्व है, परंतु यदि आप जीवन भर साधना ही करते रहे,  जप ही करते रह गए तो आप को आत्मबोध हो ना सकेगा। और आत्मबोध के बिना, आत्म साक्षात्कार के बिना मोक्ष संभव ही नहीं है।
प्रश्न्न - जब वेदांत कहता है कि आत्मा असंग है अद्वैत है, तो फिर लोग क्यों कहते हैं कि मैं सन्यासी हूँ, मैं ब्राह्मण हूँ, मैं गृहस्थी हूँ। वर्ण ,आश्रम, आदि भिन्नता क्यों है? यह बातें एक दूसरे की विरोधी लगती हैं। स्पष्ट कीजिए।
श्याम - जैसे जल में कोई रंग डाल देने पर या कोई स्वाद डाल देने पर जल वैसा ही हो जाता है, जबकि जल का वास्तविक स्वरूप यह है कि जल स्वादहीन ,गंधहीन और रंगहीन है। ऐसे ही आत्मा अचल , अद्वैत, असंग है। वर्ण ,आश्रम इत्यादि शरीर और मन के होते हैं , आत्मा का कोई वर्ण नहीं होता , कोई जाति, कोई संप्रदाय ,कोई आश्रम नहीं होता। वर्ण, जाति, आश्रम इत्यादि एक सामाजिक व्यवस्था है , आत्मा का इससे कोई संबंध नहीं है। ये तो केवल एक संयोग था कि तुम्हारा जन्म हिंदू परिवार में हो गया या मुसलमान परिवार में हो गया या अन्य किसी संप्रदाय में हो गया। ये संयोग मात्र है यथार्थ नहीं है। ये विचारधारा गलत है कि तुम स्वयं को संसारी मानते हो या सन्यासी मानते हो। अगर ऐसे ही मान्यताओं पर चलते रहे तो तुम आत्मबोध कभी ना कर सकोगे। यह विचारधारा छोड़ो कि आप सन्यासी हो या गृहस्थी हो? मानो नहीं जानो। निरपेक्ष भाव से अपने भीतर उतरो। ये धारणाएं , मान्यताएं झूठी हैं।  इसीलिए जब मान्यताएं और धारणाएं छोड़कर तुम अपने भीतर उतरोगे तो तुम्हें पता चलेगा कि जिसको तुम साधु , असाधु , गृहस्थ , मान बैठे थे। वो स्वयं परमात्मा होगा। इसीलिए कबीर साहब कहते हैं कि तू कहता कागज की लेखी मैं कहता आंखों की देखी। स्वयं के प्रति निरपेक्ष भावना रखो। और जब निरपेक्ष भाव से स्वयं को जानोगे तो भीतर परमात्मा को विराजमान पाओगे।
जैसे कोई पानी में नीला रंग में मिला दे, काला रंग मिला दे ,सफेद रंग मिला दे, तो पानी रंगीन तो हो जाएगा परंतु यह पानी का स्वभाविक गुण नहीं है। जैसे आकाश हमें नीला दिखाई देता है, किंतु वास्तव में आकाश नीला नहीं है। आकाश में उपस्थित कण ने सूर्य प्रकाश से नीला रंग अवशोषित कर लिया इसलिए हमें नीला रंग दिखाए देता है बाकी आकाश नीला नहीं है। ठीक ऐसे ही आत्मा निर्मल और असंग है किंतु हमारी मान्यताओं और हमारे अज्ञान की वजह से विरोधाभास दिखता है।
प्रश्न्न- जब आत्मा ना तो जन्म लेता है,  ना मरता है, आत्मा आनंद स्वरुप कहा जाता है, तो हम मृत्यु से घबराते क्यों हैं? हम दुख क्यों भोगते हैं?
श्याम - जैसे आदमी अंधेरे में पड़ी हुई रस्सी को साँप समझकर डरने लगता है ,
काँपने लगता है उसे भ्रम हो जाता है, ठीक वैसे ही मनुष्य अज्ञान और मोह के कारण स्वयं को साधारण जीव मानने लगता है, और इसी भ्रम के कारण अनंत दुख भोगता है। यह मात्र उसका भ्रम है यथार्थ नहीं। और इसी भ्रम और अज्ञान के कारण वो स्वयं को स्थूल जीव मान लेता है और निरंतर मृत्यु से भयभीत रहता है। मनुष्य का भ्रम दूर होता है, तभी वह आत्मसाक्षात्कार करता है।
निष्कर्ष - अपनी इस धरना को इस मानता को छोड़ो कि तुम हिंदू हो , मुसलमान हो, सिक्ख हो ,इसाई हो, संसारी हो, संयासी हो, साधु हो ,असाधु हो। निरपेक्ष भावना से स्वयं को जानो, स्वयं के भीतर उतरो, और जब निरपेक्ष भावना से स्वयं को जानोगे तो भीतर परमात्मा को विराजमान पाओगे। इस अहंकार को छोड़ो कि तुम ब्राह्मण हो, कि वेश्य हो? बूँद अगर स्वयं को जानना चाहती है तो उसे सागर में मिलना पड़ेगा। बूँद है अहंकार और सागर है परमात्मा। ऋषियों ने इसी को निर्वाण कहा है। निर्वाण का अर्थ है - लय होना, मिटना। अगर इस अहंकार को जानना है कि मैं कौन हूँ?  तो इस अहंकार को मिटना पड़ेगा, अहंकार मिटता है आत्मा नहीं मिटती है। आत्मा तो शाश्वत, सनातन और अमृतस्वरूप है।
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