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𝗟𝗮𝗻𝗴𝘂𝗮𝗴𝗲

वेदांत , उपनिषद और गीता प्रचारक

श्रीमद्भागवत कथा महापुराण

मरने से पहले ये कर लेना : श्रीमद्भागवत कथा

मनुष्यों के लिये जितनी भी बातें सुनने, स्मरण करने या कीर्तन करने की हैं, उन सब में यह श्रेष्ठ है। आत्मज्ञानी महापुरुष ऐसे प्रश्न का बड़ा आदर करते हैं। जो गृहस्थ घर के काम-धंधों में उलझे हुए हैं, अपने स्वरूप को नहीं जानते, उनके लिये हजारों बातें कहने-सुनने एवं सोचने, करने को रहती हैं।उनकी सारी उम्र यूँ ही बीत जाती है। उनकी रात नींद या स्त्रीभोग से कटती है और दिन धन को हाय-हाय या कुटुम्बियों के भरण-पोषण में समाप्त हो जाता है। संसार में जिन्हें अपना अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्धी कहा जाता है, वे शरीर, पुत्र, स्त्री आदि कुछ नहीं है, असत् हैं; परन्तु जीव उनके मोह में ऐसा पागल सा हो जाता है कि रात-दिन उनको मृत्यु का ग्रास होते देखकर भी चेतता नहीं है। इसलिये हे प्रिय! जो अभय पद को प्राप्त करना चाहता है, उसे तो सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण की ही लीलाओं का श्रवण, कीर्तन और स्मरण करना चाहिये। मनुष्य जन्म का यही इतना ही लाभ है कि चाहे जैसे हो - ज्ञान से, भक्ति से अथवा अपने धर्म की निष्ठा से जीवन को ऐसा बना लिया जाय कि मृत्यु के समय (यहाँ मृत्यु का अर्थ प्रति पल है क्योंकि मनुष्य निरंतर मर ही रहा है अर्थात एक स्थिति से दूसरी स्थिति में जाना ही मृत्यु है) भगवान की स्मृति अवश्य बनी रहे।जो निर्गुण स्वरूप में स्थित है एवं विधि-निषेध को मर्यादा को लाँघ चुके हैं, वे बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी प्रायः भगवान के अनन्त कल्याणमय गणों के वर्णन में रमे रहते हैं। मेरी निर्गुण स्वरूप परमात्मा में पूर्ण निष्ठा है फिर भी भगवान् श्रीकृष्ण की मधुर लीलाओंने बलात् मेरे हृदय को अपनी ओर आकर्षित कर लिया। तुम भगवान्‌ के परमभक्त हो, इसलिये तुम्हें मैं इसे सुनाऊँगा जो इसके प्रति श्रद्धा रखते हैं, उनकी शुद्ध चित्तवृत्ति भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में अनन्य प्रेम के साथ बहुत शीघ्र लग जाती है। जो लोग लोक या परलोक को किसी भी वस्तु की इच्छा रखते हैं, या इसके विपरीत संसार में दुख का अनुभव करके जो उससे विरक्त हो गये हैं और निर्भय मोक्षपद को प्राप्त करना चाहते हैं, उन साधकों के लिये तथा योगसम्पन्न सिद्ध ज्ञानियों के लिये भी समस्त शास्त्रों का यही निर्णय है कि ये भगवान् के नामों का प्रेम से संकीर्तन करें। अपने कल्याण साधन की ओर से असावधान रहने वाले पुरुष की वर्षों लम्बी आयु भी अनजान में ही व्यर्थ बीत जाती है। उससे क्या लाभ ! सावधानी से ज्ञानपूर्वक बितायी हुई घड़ी, दो घड़ी भी श्रेष्ठ है; क्योंकि उसके द्वारा अपने कल्याण को चेष्टा तो की जा सकती है। ऋषि खटवांग अपनी आयु की समाप्ति का समय जानकर दो घड़ी में ही सब कुछ त्यागकर भगवान् के अभय पद को प्राप्त हो गये।अभी तो पाठकगण के जीवन की कुछ ही समय बचा है। साधक को मृत्यु से पहले ही परमात्मा की प्राप्ति हो जाए, इसमें उसका कल्याण होगा। 
मृत्यु का समय आने पर मनुष्य घबराये नहीं। उसे चाहिये कि वह वैराग्य के शस्त्र से शरीर और उससे सम्बन्ध रखनेवालों के प्रति ममता को काट डाले। धैर्य के साथ घर से निकलकर पवित्र तीर्थ के जल में स्नान करे और पवित्र तथा एकान्त स्थान में विधिपूर्वक आसन लगाकर बैठ जाय। अर्थात मन से विषयों का नाश करें और केवल परमात्मा में चित लगाए ) तत्पश्चात् परम पवित्र 'ओम अर्थात अ, उ , म' इन तीन मात्राओं से युक्त ओम का मन-ही-मन जप करें।
प्राणवायु को वश में करके मन का दमन करें और एक क्षण के लिये भी ओम को न भूलें। बुद्धि की सहायता से मन के द्वारा इन्द्रियों को उनके विषयों से हटा ले और कर्म को वासनाओं से चंचल हुए मन को विचार के द्वारा रोककर भगवान के मंगलमय रूप में लगाये। स्थिर चित्त से भगवान्‌ के श्रीविग्रह में से किसी एक अंग का ध्यान करें। इस प्रकार एक-एक अंग का ध्यान करते करते विषय-वासना से रहित मन को पूर्णरूप से भगवान में ऐसा तल्लीन कर दे कि फिर और किसी विषय का चिन्तन ही न हो।
अर्थात विषयों से विरक्ति में ही आनंद है, यही मुक्ति है, यही परमात्मा है, परमात्मा की प्राप्ति वास्तव में कोई प्राप्ति नहीं होती, विषयों से विरक्त होना ही परमात्मा प्राप्ति है, यही धर्म है, यही मोक्ष है। यहीं भगवान् विष्णु का परमपद है, जिसे प्राप्त करके मन भगवत प्रेमरूप आनन्द से भर जाता है। विष्णु का अर्थ है विश्व में अणु रूप में जो व्याप्त ब्रह्म है वही एकमात्र सत्य है, यदि भगवान का ध्यान करते समय मन रजोगुण से विक्षिप्त या तमोगुण से मूढ़ हो जाय तो घबराये नहीं। धैर्य के साथ योगधारणा के द्वारा उसे वश में करना चाहिये क्योंकि धारणा उक्त दोनों गुणों के दोषों को मिटा देती है। धारणा स्थिर हो जाने पर ध्यान में जब योगी अपने परम मंगलमय आश्रय (भगवान्) को देखता है, तब उसे तुरंत ही भक्तियोग की प्राप्ति हो जाती है।
आसन, श्वास, आसक्ति और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके फिर बुद्धि के द्वारा मन को भगवान के स्थूल रूप में लगाना चाहिये क्योंकि साकार भगवान ही निराकार ,निर्विकार, निर्गुण ब्रह्म तक पहुंचने का माध्यम है । यह कार्यरूप सम्पूर्ण विश्व जो कुछ कभी था, है या होगा सबका सब जिसमें दिख पड़ता है, वही भगवान का स्थूल से स्थूल और विराट् शरीर है।


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