नारद जी द्वारा कलयुग का वर्णन
ज्ञान और वैराग्य से भक्ति सिद्ध होती है। इस कलयुग में न ध्यान है , ना वैराग्य है, इसलिए भक्ति से शिथिल पड़ गई है। अर्थात झुठी भक्ति प्रचलित हो गई है। लोग दिन भर कुकर्म करते हैं और शाम को जाकर आरती गाने लगते हैं। लोग केवल अपना पेट पालने में लगे हुए हैं। लोग असत्यभाषी, आलसी , मंदबुद्धि हो गए हैं। प्रकृति का बाहुल्य है। अध्यात्म की, प्रेम की कमी है। लोग स्वार्थी हो गये हैं। स्त्रियां वेश्यावृत्ति से निर्वाह करती हैं, पंडित पैसा लेकर वेद पढ़ाते हैं। साधु संत कहे जाने वाले लोग पाखंडी हो गए हैं। मृत्यु का पाश देखते हुए भी मनुष्य चेतता नहीं है। कामनाओं द्वारा लोगों का ज्ञान हरा जा चुका है। इसीलिए संत हमें बार बार याद दिलाते कि राम नाम की लूट है लूट सके तो लूट , अंत समय पछताएगा प्राण जाएंगे छूट।
श्री कृष्ण द्रौपदी की रक्षा करते हैं, इसका क्या अर्थ है?
साधक का ध्यान ही द्रोपदी है, साधक का ध्यान ना टूटे इसलिए श्री कृष्ण चैतन्य रूप में साधक के ध्यान की रक्षा करते हैं। द्रोपती कोई बाहरी व्यक्तित्व नहीं है, श्रीकृष्ण जिसकी दुशासन से रक्षा करते हैं, ये बात पूरी तरह से सांकेतिक है। दूषित बुद्धि अर्थात गंदा मन ही साधक के ध्यान में बाधक बनता है। दूषित बुद्धि रूपी दुशासन से ध्यान रुपी द्रोपति को बचाने के लिए चैतन्य रुपी श्रीकृष्ण अवतरित होते हैं।
इसको स्थूल मत मान लेना, यह बात पूरी तरह से सांकेतिक है, हमारी आसुरी और पाश्विक वृत्तियों के लिए हैं। हमारी वृत्तियाँ हमें हमारे शाश्वत स्वरुप की ओर अर्थात परमात्मा की ओर बढ़ने नहीं देती।
यहाँ क्या तेरा? क्या मेरा? यह मेरा धन है, ये मेरी पत्नी है, ये मेरा पुत्र है। यह सब अज्ञान ही तो है। जब शरीर ही नश्वर है तो इसके सुख, भोग, रिश्ते, नाते कहाँ तक साथ देंगे? बाहर कितने रिश्ते बनाए? कितना संबंध जोड़ा? कुछ संतुष्टी मिली? न तो अधिक समय तक विषय भोग साथ देंगे। और ना ही इंद्रियों में क्षमता ही रहेगी उन्हें भोगने की। इसीलिए ऋषियों और गुरुओं ने कहा है कि इसे छोड़ वन में चले जाओ। वन में जाने का अर्थ ये नहीं है कि बाहर जंगल में चले गये। वन में जाने का अर्थ है कि अंतर्मुखी हो गए। आत्मा से नाता जोड़ लिया, स्वयं से नाता जोड़ लिया। ये शरीर, हड्डी ,माँस और रुधिर से बना हुआ भौतिक पदार्थ है, इसलिए अपने आप को शरीर मानना मूढ़ता है। शरीर के रिश्ते अज्ञान से उत्पन्न होते हैं। ये दादा हैं, ये मामा हैं, ये पिता हैं, ये माता हैं, ये पुत्र है, ये सब अज्ञान ही तो है। जब शरीर ही नश्वर और क्षणभंगुर है, तो इन्हें स्थायी समझकर इनसे राग लगाना अज्ञान ही तो है।
सूतजी कहते हैं कि जब मनुष्य पर सात्विक गुण का प्रभाव होता है तो वह आत्म स्वरुप की ओर अर्थात् परमात्मा की ओर बढ़ता है। और जब मनुष्य पर रजोगुणी और तामसिक गुणों का प्रभाव होता है, तब वह संसार में विषय भोग के पीछे पड़ता है। स्त्री ,संतान, धन, इत्यादि के पीछे भागता है। जब अश्वत्थामा द्रोपति के पुत्रों को मारता है , यह बात भी पूरी तरह से सांकेतिक है। आसक्ति से ही ध्यान में विघ्न पड़ता है। अर्थात आशक्ति रुपी अश्वत्थामा ने ध्यान रुपी द्रोपति के पुत्रों का वध किया। मनुष्य का विषयों के प्रति आशक्ति ही ध्यान में विघ्न डालती हैं, बार-बार मोह में डालती है। अनुराग रुपी अर्जुन ही ध्यान में पड़ने वाले आशक्ति का अवरोधक है। परमात्मा के लिए अनुराग ही, प्रेम ही विषयों से आसक्ति का क्षीण करता है।
यह मनुष्य सुख की अभिलाषा से जिस जिस वस्तु का संग्रह करता है, उस उस वस्तु के छिन जाने पर बहुत दुख पाता है। अर्थात मनुष्य अपने इस नाशवान और क्षणभंगुर शरीर को और इससे संबंधित घर, खेत ,धन ,स्त्री, इत्यादि को मोहवश अपना मानता है, और इनके छिन जाने पर दुखी होता है। यह शरीर नश्वर है। वृद्धावस्था आने पर ये शरीर कमजोर हो जाता है और चेहरे पर झुर्रियां पड़ जाती हैं, यह शरीर रोगी हो जाता है, और पौरुष भी क्षीण हो जाता है। इससे आशक्ति को त्याग देना चाहिए।
परीक्षित की निरपेक्षता
कहानी कहती है कि राजा परीक्षित को श्राप मिला था कि वे 7 दिन में वे देहावसान को प्राप्त करेंगे। तो परीक्षित मुक्ति की इच्छा से शुकदेव जी के पास गए तब शुकदेव जी ने उन्हें वेद वेदांत का जो ज्ञान दिया वही श्रीमद भागवत नाम से प्रसिद्ध है। परीक्षित को अपने से अलग मत मानिए। सौभाग्य से परीक्षित को तो पता तो था कि उनकी 7 दिन में मृत्यु होने वाली है। परंतु हमारी मृत्यु का कोई समय है ही नहीं , कब मृत्यु हमारे दरवाजे पर दस्तक दे? हम लोग तो पल (क्षण) में जीते हैं। हमारे जीवन में अगले पल का भी ठिकाना नहीं कि अगले पल तक जीवित रहेंगे भी या नहीं? परिचित मुमुक्षु थे अर्थात मुक्ति की इच्छा वाले साधक थे। इस नाशवान संसार में एक पल का भी ठिकाना नहीं इसलिए हमें भी मुक्ति ही चाहिए। अज्ञान और मोह में फँस कर व्यक्ति विषयों के पीछे भागता है। स्त्री, धन, पुत्र आदि में सुख ढूंढता है, मृत्यु का पाश जानते हुए भी नाशवान विषयों के पीछे लगा रहता है। और ऐसे जीता है जैसे मृत्यु कभी आएगी ही नहीं। प्रिय वस्तुओं के छिन जाने पर सर पीटकर रोता है और घोर दुख पाता है। इसीलिए इस दुख रुपी संसार से मुक्ति आवश्यक है। इसीलिए इस संसार में जो मुक्ति की पथ पर अग्रसर है वही सनातन धर्मी है।
श्रीकृष्ण की लीला
लीलाकार श्रीकृष्ण ने जितने भी राक्षसों का संघार किया वास्तव में हमारी वृत्तियों के लिए है। जब हम सद्गुणों के सहयोग से आत्मस्वरूप की ओर अर्थात परमात्मा की ओर बढ़ते हैं तो हमारी आसुरी वृतियाँ हमें अपने शाश्वत स्वरुप की ओर अर्थात परमात्मा की ओर बढ़ने नहीं देती, इन वृत्तियों का संघार करने के लिए श्रीकृष्ण हमारे हृदय में अवतरित होते हैं, बाहर श्रीकृष्ण का अवतार नहीं होता। श्रीकृष्ण को इन भौतिक आंखों से नहीं देखा जा सकता । मन , बुद्धि से नापा नहीं जा सकता। महाभारत के युद्घ में जब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना विराट रूप दिखाया, तब अर्जुन आंखें मलता रह गया, उसे कुछ दिखाई नहीं दिया। तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि अर्जुन तू इन भौतिक आंखों से मुझे नहीं देख सकेगा। तुझे मैं दिव्य दृष्टि देता हूँ। दिव्य दृष्टि का अर्थ हुआ आतंरिक, आत्मिक दृष्टि। विराट हमारे भौतिक नेत्रों में समाए कैसे? असीमित हमारी बुद्धि में आए कैसे? अर्थात श्रीकृष्ण की पूजा और दर्शन इंद्रियों से नहीं हो सकता। लेकिन लोग अज्ञान और मोहवश बाहर श्री कृष्ण की मूर्ति पूजा करने लगते हैं, इंद्रियों का विषय बना लेते हैं। हमने राम को भी काम बना लिया है। कृष्ण माने आत्मा (परमात्मा)। आत्मा परमात्मा अलग नहीं हैं। बिना आत्मसाक्षात्कार के मनुष्य पशु तुल्य है।
रमण महर्षि का आत्मज्ञान बहुत सरल तुम विधि से हुआ है। अंहकार को जानना हो तो अहंकार को मिटना पड़ेगा। बूँद अगर अपने रूप को जानना चाहती है तो उसे सागर में मिलना पड़ेगा, मिटना पड़ेगा। इसी को ऋषियों ने निर्वाण कहा है। निर्वाण का अर्थ है - मिटना या लय होना। अहंकार को जान लेने पर अहंकार का लय हो जाना ही मोक्ष है। अहंकार का मिटना, परमात्मा की प्राप्ति, मोक्ष, निर्वाण एक ही बात है।
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