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𝗟𝗮𝗻𝗴𝘂𝗮𝗴𝗲

वेदांत , उपनिषद और गीता प्रचारक

ये धर्म है ?

पूजा-पाठ, कर्मकांड, यज्ञ, तप , दान, इत्यादि ये धर्म नहीं हैं : श्रीमद्भागवद गीता

यह कौन सा धर्म है कि जिस प्रतिमा को दूध चढ़ाया जाता है और वो दूध पशुओं पर क्रूरता करके आ रहा है। जिस खीर और पूड़ी को प्रसाद में खा रहे हो ,पहले देख तो लो किस उस प्रसाद में उपयोग किया जाने वाला दूध और घी किस प्रकार पशुओं पर कितनी क्रुरता करने के बाद आ रहा है?
 और तथाकथित पंडित लोग पूरे रुतबे के साथ कहते हैं कि यदि आप चाहती हैं कि आपकी मनोकामना पूरी हो तो भगवान को 10 किलो घी के लड्डू चढ़ा दो। जितना मूर्ख पंडित उतना ही मुर्ख यजमान। पहले देख तो लो कि अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए जिस घी, दूध , दही, इत्यादि का उपयोग करते हो वह किस प्रकार पशुओं पर क्रूरता करके आ रहा है। लेकिन देखोगे कैसे ? पंडित एक नंबर का भोगी और पंडित के यजमान भी एक नंबर के भोगी। इन्हें इनके भोग और स्वार्थ के कारण सच्चाई दिखेगी कहाँ से? 

कर्म हमारे और कर्मफल भगवान के! ये कैसे हो गया ? सारी करतूतें तुम्हारी और जब परिणाम आए तो भगवान को दोषी बना देते हो , किस्मत को दोषी ठहरा देते हो।

सारीं करतूतें तुम्हारी, सारा भोग विलास तुम्हारा , सारे कर्म तुम्हारे , सारे निर्णय तुम्हारे, और जब परिणाम सामने आता है तो बिल-बिला उठते हो और कहतो हो भगवान ने किया। भोग भोग कर पूरी पृथ्वी में आग लगा दिया , और जब परिणाम महामारी या किसी अन्य आपदा के रूप में सामने आती है, तो कहते हो कि भगवान ने सब किया , भाग्य में लिखा था।  
तुम्हारी जो समस्याएं हैं , वो समस्याएँ अचानक तुम्हारे पास नहीं आ गयी है, तुमने समस्या को इकट्ठा करा है, भोग भोग कर। 
और जो समस्या उपभोग से आयी है, उसको तुम भोग भोग कर सही करना चाहते हो, किंतु ऐसा होगा नहीं। उपभोग से आई हुई समस्या भोग भोग खत्म नहीं होगी, बल्कि भोग भोग कर भोगी जरुर खत्म हो जाएगा। 
और इस समस्या को हल करने के लिए एक से एक नमूने हैं, जो कहते हैं कि तिल और जौ जलाकर स्वाहा बोलो और घी के लड्डू चढ़ाओ , इससे समस्या दूर होगी। क्योंकि उस मुर्ख को पता ही नहीं है कि भोग कर ही तो यह समस्या आई है। 
आज लाखों प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं। किसकी वजह से? किसकी वजह से? मनुष्य के स्वार्थ और भोग की इच्छा ने पूरी पृथ्वी को चपेट लिया है। उपभोग को कम करो , सारी समस्या दूर हो जाएगी।

आज का धर्म पहचानिए! आज का धर्म यही है कि उपभोग को कम कीजिए। उपभोग पर अंकुश लगाइए और मुक्ति की ओर बढ़िए। ना तप से, न यज्ञ से , न कर्मकांड से , ना पूजा पाठ से, ना दान से, मुक्ति मिलेगी। मुक्ति ज्ञान से मिलेगी। और ज्ञान की ओर तब जाओगे , जब उपभोग से छुट्टी पाओ। उपभोग से छुट्टी कैसे पाओगे? जब धर्म के केंद्र पर ही सबसे ज्यादा भोग विलास पाया जाता है। सबसे ज्यादा संक्रमण तो अस्पताल से ही होता है। तो मंदिर जाने से पहले पूछ लो कि मंदिर से प्रसाद के रूप में क्या मिलेगा? भोग विलासता या ज्ञान? अगर मंदिर में वेदांत , उपनिषदों और गीता का ज्ञान बताया जाता है तो चले जाओ कोई दिक्कत नहीं। लेकिन मंदिर जाने से भोग विलासिता ही बढ़ेगी, मन की बेचैनी और बढ़ेगी, तो क्यों जा रहे हो? अगर मंदिर में भी उपभोग की वस्तुएं मिलती हैं और किसी रेस्टोरेंट या होटल में भी उपभोग की वस्तुएं मिलती हैं , तो दोनों में फर्क क्या है? अगर होटल और मंदिर दोनों ही उपभोग के केंद्र बन गए हैं तो फिर होटल में कोल्ड ड्रिंक पियो या मंदिर में पंचामृत पियो, क्या फर्क पड़ता है? 
मंदिर वही है जो मन को प्रकाशित कर रहा हो, मन को ज्ञानमय कर रहा हो, अन्यथा बाहर कोई मंदिर नहीं होता , बाहर रेस्टोरेंट और होटल होते हैं।
ज्ञान के केंद्र को कहा जाता है- मंदिर। वासना और कामना पूरी करने की जगह को मंदिर नहीं बाजार कहा जाता है। मंदिर तुम क्यों जा रहे हो? मन में कोई वासना है, कोई इच्छा है, उसे पूरी करने के लिए मंदिर जा रहे हो, मन्नत मांगने के लिए जा रहे हो। मंदिरों में ना उपनिषदों का ज्ञान दिया जाता है, ना वेदांत की चर्चा हो रही है, मंदिर तो वासनापूर्ति का केंद्र बन गया है। तुमने मंदिर को बाजार के तल ला दिया। इसको तुम धर्म बता रहे हो। हिंदू हो, 
या मुसलमान हो या सिक्ख हो या इसाई हो , सबका धर्म यही है - मुक्ति की ओर बढ़ना। 
धर्म शरीर या जाति के लिए नहीं चेतना के लिए लागू होता है। और चेतना का एक ही धर्म है- मुक्ति की ओर बढ़ना, आत्मा की ओर बढ़ना। और इसके सिवाय धर्म के नाम पर जो कुछ भी किया जाता है, वो रुढ़ि और कुरिति है।

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1 टिप्पणी

  1. बहुत सुंदर विचार प्रकट किया बहुत-बहुत धन्यवाद आचार्य जी
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