श्वेताश्वतर उपनिषद कृष्णयजुर्वेद के अन्तर्गत है । इसके वक्ता श्वेताश्वतर ऋषि हैं। उन्होंने चतुर्थाश्रमियों को इस विद्या का उपदेश किया था । यह बात इस उपनिषद् के पष्ठ अध्याय के इक्कीसवें मन्त्र से विदित होती है इस उपनिषद् की विवेचनशैली बड़ी ही सुसम्बद्ध और भावपूर्ण है । इसमें साधन, साध्य, साधक और प्रति पाद्य विषय के महत्त्व का बहुत स्पष्ट और मार्मिक भाषा में निरूपण किया है। इसमें प्रसंगानुसार सांख्य, योग, सगुण, निर्गुण, द्वैतः अद्वैत आदि कई प्रकार के सिद्धान्तों का उल्लेख हुआ है
इसका आरम्भ जगत के कारण की मीमांसा से होता है । कुछ ब्रह्मवादी आपस में मिलकर इस विपयमे विचार करते है कि जगत्का कारण क्या है ? हम कहाँसे उत्पन्न हुए ? कौन हमारा आधार है ? और किसकी प्रेरणा से हम दुःख-सुख भोग करते है ? संसार के सम्पूर्ण दार्शनिक इन प्रश्नोंको हल करने में व्यस्त रहे हैं और उन्होंने अपनी-अपनी अनुभूतिके आधारपर जो-जो निर्णय किये है वे ही विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तोके रूप में प्रसिद्ध हुए हैं । वस्तुतः इस प्रकार की जिज्ञासा ही सारे दर्शनशास्त्र का चीज है और यह जितनी तीव्र एवं निरपेक्ष होती है उतनी ही अधिक वास्तविकता के समीप ले जानेवाली होती है। ऋषियों ने जगत् के कारण की मीमांसा करते हुए काल-स्वभावादि लोकप्रसिद्ध कारणों पर विचार किया।
उस परावर (ब्रह्मादि देवताओंसे भी उत्तम ) परमात्मा का साक्षात्कार कर लेने पर इसके हृदय की ग्रन्थि टूट जाती है, सारे सशंय कट जाते है तथा समस्त कर्म क्षीण हो जाते हैं", "जिस प्रकार नदियाँ बहती हुई अपने नाम और रूप को छोडकर समुद्र में लीन हो जाती है उसी प्रकार विद्वान् नाम और रूप से मुक्त होकर परम से भी परम दिव्य पुरुष को प्राप्त हो जाता है", "वह, जो कि उस परब्रह्म को जानता है, ब्रह्म ही हो जाता है", "हे सोम्य ! जो भी उस छायाहीन, अशरीर, अलोहित, शुद्ध अक्षर ब्रह्म को जानता है [ वह सर्वज्ञ हो जाता है ]" "वह सब कुछ जानता है", "उस जानने योग्य पुरुष को जान, जिससे मृत्यु तुझे व्यथित न करे", "उस अवस्था में एकत्व देखने वाले पुरुष को क्या मोह और क्या शोक हो सकता है ?" "ज्ञान से अमरत्व को प्राप्त होता है", "बुद्धिमान् लोग उसे समस्त प्राणियों में
उपलब्ध करके [ मृत्युके पश्चात् ] इस लोक से जाकर अमर हो जाते हैं", " जो परात्मविद्या को जानता है वह पापको त्यागकर विनाशरहित ,सुखमय, स्वयं प्रकाश, परम महान् ब्रह्म में प्रतिष्ठित होता है", "वे ब्रह्मस्वरूप होकर निश्चय ही अमर हो गये", "उस आत्मतत्त्व का साक्षात्कार करके कोई देहधारी जीव कृतकृत्य और शोकरहित हो जाता है", "जो इसे जानते हैं, अमर हो जाते हैं","उस ईश्वर को जानकर अमर हो जाते है", "उसी को प्राप्त होते हैं", "इसे अनुभव करके जीव परमशान्ति प्राप्त करता है", "उसे इस प्रकार जानकर यह मृत्यु के बन्धनों को काट देता है", "पूर्वकाल में जिन देवता और ऋषियों ने उसे जाना [ वे अमर हो गये ]" "[ अपनी बुद्धिमें स्थित उन परमात्मा को जो देखते हैं ], उन्हें ही नित्य शान्ति प्राप्त होती है औरो को नहीं।
पुरुष कर्मजनित फल ( इष्टानिष्ट देह की प्राप्ति ) को त्यागकर ज्ञानी हो जीते जी जन्म-बन्धन से मुक्त होकर समस्त उपद्रवों से रहित मोक्ष नामक परमपद प्राप्त करते हैं", " तू ज्ञानरूप नौका के द्वारा ही सम्पूर्ण पापों के पार हो जायगा ", " उसी प्रकार ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्म ( निर्बीज ) कर देता है", "हे भारत ! इस गुह्यतम शास्त्र को जानकर ही मनुष्य बुद्धिमान् और कृतकृत्य होता है", " फिर मुझे तत्त्वतः जानकर तत्काल मुझ ही में प्रवेश कर जाता है", "इन सब साधनों मे आत्मज्ञान ही उत्कृष्ट माना गया है तथा सम्पूर्ण विद्याओं मे भी वही सबसे बढ़कर है, क्योंकि उससे अमृतत्व की प्राप्ति होती है। इसे प्राप्त कर लेने पर ही द्विज कृतकृत्य होता है, अन्य किसी प्रकार नहीं। इस प्रकार जो मन-ही-मन सम्पूर्ण प्राणियों में आत्मा को ही देखता है।
वह सबमें साम्यबुद्धि को प्राप्त करके सनातन ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है, तथा सम्यग्दृष्टि से सम्पन्न होने के कारण वह कर्मों से बन्धन को प्राप्त नहीं होता। जो पुरुष इस दृष्टि से रहित है वह संसार को प्राप्त होता है", "जीव कर्म से बँधता है और ज्ञान से मुक्त हो जाता है, इसलिये पारदर्शी मुनिजन कर्म नहीं करते। स्थिरबुद्धि प्राचीन आचार्यों ने ज्ञान को ही मोक्ष का साधन बतलाया है, अतः शुद्ध ज्ञान से जीव सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है", "इस प्रकार मृत्यु को अवश्य होने वाली जानकर विद्वान् ज्ञान के द्वारा नित्य तेज स्वरूप ब्रह्म को प्राप्त होता है, इसके सिवा उसके लिये कोई और मार्ग नहीं है, उसे जान लेने पर विद्वान् प्रसन्नचित्त हो जाता है", "परमात्मा के ज्ञान से जीव की आत्यन्तिकी शुद्धि मानी गयी है"।
"योगसाधन के द्वारा आत्मा का साक्षात्कार करना - यही परमधर्म है", "आत्मज्ञानी शोक से पार होकर मृत्यु, मरण अथवा किसी अन्य कारण से होनेवाले भय इनमें से किसी से भी नहीं डरता", " परमात्मा न उत्पन्न होता है, न मरता है, न मारा जाता है और न मारता है, वह न तो बाँधा जानेवाला है और न बाँधनेवाला है तथा न मुक्त है और न मोक्षप्रद ही है, उससे भिन्न जो कुछ है वह असत् ही है ।" इस प्रकार श्रुति स्मृति' और इतिहासादि मे ज्ञान ही मोक्ष का साधन जाना जाता है, अतः इस [ज्ञान-साधक ] उपनिषद् को आरम्भ करना उचित ही है ।