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𝗟𝗮𝗻𝗴𝘂𝗮𝗴𝗲

वेदांत , उपनिषद और गीता प्रचारक

शुभ और अशुभ , पाप और पुण्य

शुभ और अशुभ क्या है? पाप और पुण्य क्या है? : उपनिषद

प्रश्न- शुभ क्या है? अशुभ क्या है? पाप क्या है? पुण्य क्या है? पंडित या ज्योतिषी जिस शुभ तथा अशुभ या पाप तथा पुण्य को बताते हैं? क्या वही सत्य हैं या कुछ और?
समाधान - किसी भी समस्या का उचित समाधान हो सकता है यदि हमें पहले ये पता हो कि हम हैं कौन और हमारी हालत क्या है?  
हमें अपने बारे में कुछ पता नहीं है इसलिए हमें अपने आपको कुछ मान रखा है , कोई स्वयं को बुद्धिजीवी कहता है, तो कोई स्वयं को श्रमजीवी कहता है। 
परंतु वास्तव में हम कौन हैं? हम अतृप्त चेतना हैं, अपूर्ण चेतना हैं, हम शरीर नहीं हैं, शरीर तो आवरण है, शरीर तो हमारे रहने का मकान है। अपने आपको शरीर मानना मूढ़ता है। किंतु खेद की बात है कि दुनिया की 99.99 फीसदी लोग स्वयं को शरीर ही मानते हैं , और जीवन भर शरीर के लिए ही पचते हैं, श्रम करते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने इसी बात का प्रतिपादन करते हुए कहा है कि जो मनुष्य केवल शरीर के लिए पचता है वो मूढ़ बुद्धि वाला पापी पुरुष व्यर्थ ही जीता है। अर्थात केवल शरीर के लिए पचना, श्रम करना ही पाप है। अपनी चेतना उद्धार ना करके उसे अधोगति में ले जाना अर्थात् नाशवान सांसारिक विषय वस्तु के पीछे भागना ही पाप है। और अपनी चेतना का उद्धार करना ही पुण्य है। मुक्ति की ओर बढ़ना ही पुण्य है।

और पाप क्या है? संसार बंधन में फँसना ही पाप है। मुक्ति माने सत्य की ओर ना बढ़ना ही पाप है। सांसारिक विषय में लिप्त रहना ही पाप है। केवल शरीर के लिए श्रम करना ही पाप है। क्योंकि केवल शरीर के लिए तो जानवर भी श्रम करता है, इसीलिए मनुष्य योनि में होते हुए भी स्वयं को पशुओं के स्तर पर ले जाना ही पाप है। 
और अशुभ क्या है? संसार बंधन ही अशुभ है। जो मुक्ति की राह में बाधक हो , वही अशुभ है। संसार में रहते हुए संसार की ओर बढ़ना ही अशुभ है। प्रकृति में रहते हुए प्रकृति की ओर बढ़ना ही अशुम है। संसार बंधन अर्थात विषयों के पीछे भागना ही अशुभ है। 

शुभ क्या है? आत्मा माने मुक्ति की ओर बढ़ना ही शुभ है। अपनी चेतना का उद्धार करना ही शुभ है। संसार बंधन से मुक्ति की ओर बढ़ना ही शुभ है।
और मुक्ति की ओर बढ़ना ही एकमात्र धर्म है। अपनी चेतना का उद्धार करना ही संपूर्ण अध्यात्म है। 

ये है अध्यात्म की मूल बातें। इसके सिवाय संसार में जो कुछ भी अध्यात्म के नाम पर जादू , टोना - टोटका, आदि प्रचलित है, वो सत्य नहीं है। अध्यात्म के नाम पर कर्मकांड, पूजा पद्धतियाँ, जादू, टोना- टोटका आदि सब पाखंड है, अंधविश्वास है , रूढ़ि है , कुरिति है।

धर्म का एक ही अर्थ है - मुक्ति की ओर बढ़ना , आत्मा की ओर बढ़ना। इसके सिवाय जो कुछ भी धर्म के नाम पर प्रचलित हैं वो धर्म नहीं हैं बल्कि धर्म के नाम पर कुरीति है , रूढ़ि है , अंधविश्वास है। 
यजुर्वेद का मंत्र है - असतो मा सद्गमय" इसमें "असत्" शब्द का अर्थ मृत्यु है और "सत्" शब्द का अर्थ अमृत है। तब इस मन्त्र का यह अर्थ हुआ कि "मृत्यु रूप संसार से मुझको अमृत की ओर ले चलो अर्थात् मुझ को मरणरहित अमर तुम करो" इस प्रकार से निश्चय करके प्रथम वाक्य कहता है। और "तमसो मा ज्योतिर्गमय" इस मन्त्र में "तमस्" शब्द का अर्थ मृत्यु है "ज्योतिष्" शब्द का अर्थ अमृत है तब इस मन्त्र का यह अर्थ हुआ कि "मृत्यु रूप संसार से मुझको अमृत की ओर ले चलो अर्थात् मुझको मरण रहित अमर तुम करो" इस प्रकार निश्चय करके द्वितीय वाक्य कहता है। 
आत्मा ही अमृतस्वरूप है। अर्थात मुझे संसार बंधन से आत्मा की ओर ले चलो। संपूर्ण धर्म और अध्यात्य का इतना ही अर्थ है कि मुझे बंधन से मुक्ति की ओर ले चलो, अनात्मा से अर्थात मृत्यु रूपी संसार बंधन से आत्मा रुपी अमृत की ओर ले चलो।

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1 टिप्पणी

  1. Adbhut gyan ke liye ap sudhi jano ko naman
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