श्रीकृष्ण एक योगेश्वर थे, एक सद्गुरू थे। अविनाशी, अव्यक्त परमात्मा उनमें व्यक्त था, इसीलिए श्रीकृष्ण निर्गुण ,निराकार अविनाशी परमात्मा हैं। श्रीकृष्ण निर्गुण निराकार ब्रह्म हैं। और श्रीकृष्ण अर्थात ब्रह्म ही एक मात्र सत्य है।
महाभारत के सभी पात्र प्रतीकात्मक हैं। हमारे मन का अज्ञान ही धृतराष्ट्र है। धृष्टता का राष्ट्र ही धृतराष्ट्र है। अज्ञान से ही मोह उत्पन्न होता है। अर्थात धृतराष्ट्र(अज्ञान) से उत्पन्न ने होने वाला ही दुर्योधन(मोह) है। द्वैत का आचरण ही द्रोणाचार्य है। प्रभु अलग हैं, हम अलग हैं ,यही द्वैत का भान है। द्वैत माने दो। हमारा मोह ही दुर्योधन है। दुर्योधन का अर्थ है कि जो धन दुषित हो। मोह हमें दूषित रहता है। मोह नहीं तो कुछ भी नहीं। मोह ही सभी व्याधियों का उद्गम है। शाश्वत और अचल परमात्मा में आस्था वाला मन ही धृष्टद्युम्न है। भाव अर्थात श्रद्धा ही भीम है। परमात्मा के लिए अनुराग अर्थात प्रेम ही अर्जुन है। शुभ की मस्ती ही सुभद्रा का पुत्र अभिमन्यु है। ध्यान ही द्रौपदी है। हमारा भ्रम ही भीष्म है। जब तक भ्रम है तभी तक रस्सी साँप की तरह प्रतीत होती है। साधना अवस्था में साधक द्वारा कृपा का आचरण करना ही कृपाचार्य है। कृष्ण के विरुद्ध अर्थात मुक्ति की विरोध में किया जाने वाला कर्म ही कर्ण है। हमारा विषयों में आशक्ति ही अश्वत्थामा है। द्रोणाचार्य से ही आश्वत्थामा उत्पन्न होता है, अर्थात द्वैत के भान से ही आशक्ति उत्पन्न होती है। ब्रह्म विद्या की जानकारी के बाद द्वैत का भान तो समाप्त जाता हो जाता है किंतु आशक्ति तब भी रहती है।
पूर्ण समता दिलाने वाला शास्त्र ही सामवेद है। वैराग्य ही हनुमान हैं। समस्त शंकाओं से परे अर्थात मुक्त अवस्था ही शंकर हैं। शुभों का मेल ही सुमेरु है, यही सबसे ऊंची शिखर है, ना कि कोई पहाड़ी। कर्म का त्याग ही कार्तिक हैं। शीतल, अचल और सम एकमात्र परमात्मा ही है। ऊपर परमात्मा जिसका कारण है, नीचे प्रकृति जिसकी शाखाएं हैं, ऐसा संसार ही एक वृक्ष है, जिसे पीपल की संज्ञा दी है , बाहर कोई पीपल का वृक्ष नहीं। वृत्तियों का परिवर्तन ही जन्म है। परम के लिए प्रेम ही प्रहलाद है। ईश्वर की चिंतन में लगा हुआ सार्थक समय ही वास्तविक समय है। परमात्मा का प्रत्यक्ष ज्ञान ही गरुड़ है। जो सत्ता विश्व में अणु रूप में संचारित है, वही विष्णु हैं। योग के जंगल में रमण करने वाले ही राम हैं। जो ज्ञान आत्मा की ओर बढ़ा दे , आत्मा का आधिपत्य दिला दे, वही विद्या अध्यात्म विद्या है। ये प्रकृति ही एक जुआ है, माया महाठगिनी है, इस माया से बचने के लिए दिखावा छोड़कर गुप्त रूप से एकांत में भजन करना ही छल है। सर्वत्र वास करने वाले देव ही वासुदेव हैं। पुण्य ही पांडू है। पुण्य ही अनुराग(प्रेम) को जन्म देता है। परमतत्व परमात्मा को व्यक्त करने की जिसमें क्षमता हो, ऐसे मुनि ही वेद व्यास हैं। सर्वस्व का हरण करने वाले ही हरि हैं। हनुमान जी वैराग्य के प्रतीक हैं। इस लोक और परलोक में देखी सुनी वस्तुओं से अर्थात विषय भोगो से राग (लगाव) का त्याग ही वैराग्य है। मन जहाँ भी जाये वहाँ सेे मन को हटाकर हृदय में स्थित परमात्मा में लगाना ही योगाभ्यास है। देवीय गुण अर्थात ऐसे गुण जो मुक्ति में सहायक हो, से युक्त मनुष्य ही देवता है। आसुरी वृत्तियों से संयुक्त मनुष्य ही असुर है। वस्तुतः मनुष्य की चित्तवृत्ति ही नारी है। संसार बंधन ही नरक है। मन के पार जाने का अर्थात मुक्त होने का नाम ही मुक्ति है। मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है। आत्मा ही शाश्वत , सनातन , अव्यक्त , अविनाशी , निर्गुण , निराकार , अद्वैत , असंग है। आत्मा, परमात्मा, ब्रह्म मोक्ष, निर्वाण, ईश्वर, भगवान, एक-दूसरे के पर्याय हैं। क्योंकि आत्मा ही शाश्वत, सनातन है, इसीलिए आत्मस्वरूप की ओर बढ़ना ही सनातन धर्म है। सर्वस्व का नाश ही संन्यास है। योग का अर्थ होता है मिलाप। परमात्मा से मिलन कराने वाली वाली क्रिया अर्थात आत्म स्वरूप में स्थिति दिलाने वाली क्रिया ही योग क्रिया है। नकुल नियम का प्रतीक है। सहदेव सत्संग का प्रतीक है। युधिष्ठिर धर्म का प्रतीक है। योगेश्वर श्रीकृष्ण ब्रह्म के प्रतीक हैं अथवा वो ब्रह्म ही हैं।
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