स्वर्गीय सुख भी सीमित ही हैं। अंत में चल कर यह भी दखदायी सिद्ध होते हैं। जब बुरे कामों में भी दुख और अच्छे कामों में भी दुःख, स्वर्ग में भी दुःख और नरक में भी दुख तो फिर सुख कहाँ है? सुख संसार में ही है, इसी लोक में है, इसी जीवन में है और इन ही वस्तुओं में है, और उस सुख को पा लेना बहुत सरल है। उपाय यह हैं कि जो विषय एक दिन छूट कर ही रहेंगे, उन्हें पहले से ही छोड़ देना। स्वर्गीय सुख भी अंत में दुखदायी होते हैं। इसमें बताया है कि नारकीय कष्ट भी सुखदायी हो सकते हैं। कष्ट तब ही होता है जब हम यह समझ लेते हैं कि विषय-वस्तुएं स्थायी हैं। परन्तु उन्हें तो नष्ट होना ही है। किसी भी दशा में वह स्थायी नहीं हो सकते। ऐसी बात नहीं है कि लोग इसे जानते नहीं। सभी जानते हैं कि स्त्री, पुरुष, सन्तान सब ही एक न एक दिन मरेंगे। फिर भी जब कोई मरता है तब सिर पीटते हैं। इस दुख का कारण क्या है ? जो बात होनी ही हो, उसके लिए दुख कभी नहीं हो सकता। दुख तब होता है, जब कोई अनहोनी बात हो जाए। जीना मरना तो अनहोनी है नहीं, फिर भी इनसे सुख-दुख क्यों होता है ? ये बातें अनहोनी तो नहीं हैं, लेकिन हम लोग जाने या अनजाने इन्हें अनहोनी समझते रहते हैं।हमारे दिलों में वह भावना बनी रहती है कि मेरी स्त्री, सन्तान, धन सम्पत्ति आदि सदा बनी रहे और बनी रहेंगी। कम से कम ऐसा तो समझते ही हैं कि अपने जीते जी ये चीजें नहीं छूटेंगी। मनुष्य साधारणतया खुद अपने मरने की कल्पना तो कर ही नहीं सकता। इसलिए हमेशा यही सोचा कि मैं बड़ा आदमी बनूंगा। मेरा बड़ा सम्मान होगा। किंतु जब ये बातें नहीं है पाती और जो प्राप्त वस्तुएं हैं वे भी खिनकने लगती है तब वह दुखी होता है। स्पष्ट है कि कल्पना में कष्ट और वास्तविकता में सुख है। यह सामग्री सदा बनी रहेगी, ऐसा समझना कल्पना हैं। ये वस्तुएँ अस्थायी हैं इसलिए इन्हें त्यागना चाहिए अर्थात् उन में आसक्त नहीं रहना चाहिए, ऐसा सोचना वास्तविकता है। इस लिए जब तक विषयों में लिप्त रहते हैं तब तक कष्ट होता है और जब इन्हें मन से त्यागते हैं तब सुख का अनुभव होता है। यहां पर यह ध्यान रहे कि किसी स्वस्थ योजना की कल्पना करके उसे कार्यान्वित करने की चेष्टा करना और ऊपर के दुराणापूर्ण कल्पना में भारी अंतर है। यदि दिल में विरक्ति न हो तो ऐसा विरक्त पुरुष वास्तव में सांसारिक ही है, बल्कि उससे भी गया बीता है। सांसारिक प्रवृत्ति के भ्रम का स्पष्टीकरण किया गया है। सभी विषय अन्त में चल कर कामुकता ही में समाप्त होते हैं इसलिए स्त्री ही को प्रधान मान कर उसके प्रति होने वाले मोह को मिटाने की चेष्टा की गयी है।
कामिनी और काँचन, यह दोनों आसक्ति के मुख्य कारण हैं। वैराग्य की ओर जाने वाले व्यक्ति की यह दो अवस्थाएँ हो सकती हैं। पहले श्लोक में बाह्य त्याग की बात थी। उस दिखावटी त्याग को सच्चे त्याग में बदल जाने के बाद भी कामिनी के चक्कर में फँस जाने की सम्भावना है। कांचन का त्याग तो कुछ सरल है, पर कामिनी का त्याग अत्यन्त कठिन है। बड़े-बड़े तपोसम्पन्न पुरुष भी इससे बच नहीं पाये इसलिए इन दोनों का यह क्रम रखा गया है। बहरहाल दोनों प्रवृत्तियां हैं, चाहे वह भिन्न भिन्न व्यक्तियों में हों अथवा एक ही व्यक्ति की यह भिन्न भिन्न अवस्थाएं हों। वैराग्य के लिए इन दोनों वासनाओं से विमुक्त होना आवश्यक है।
रागी और वैरागी दोनों के लिए एक ही आदर्श रखा है। वह है महादेव शिवजी का आदर्श इसमें कई बातें है : प्रेम किया तो खुल्लम खुल्ला किया। अपने आधे शरीर को पार्वती का बना दिया। चोरी छुपी नहीं, लज्जा शंका नहीं। बच्चे देखेंगे,बडे़ सुनेंगे, या संसार हंसेगा, इसका विचार एक दम नहीं।
प्रेम में त्याग होना चाहिए। आधा शरीर पार्वती का धारण किया, इसके माने हुए अपना आधा शरीर त्याग दिया, क्योंकि शरीर तो एक ही रहेगा, डेढ़ नहीं केवल अद्धांगिनी कहने से काम न चलेगा।
प्रेम का आधार त्याग है। बिना त्याग के प्रेम नहीं हो सकता। बिना त्याग का प्रेम स्वार्थ से भरा होता है। निरा स्वांग होता है। एक वेश्या या ऐयाश का प्रेम, प्रेम नहीं बल्कि शुद्ध स्वार्थ होता है, क्योंकि इसमें त्याग तो छूकर तक नहीं जाता। इसके विपरीत माता का प्रेम सच्चा प्रेम है, क्योंकि माता का प्रेम त्याग पर अवलम्बित होता है।
पत्नी का प्रेम भी साधारणतया पुरुष की अपेक्षा अधिक शुद्ध होता है। कारण इसका यह है कि भारतीय समाज में पुरुष के लिए स्त्री को त्याग ही त्याग की व्यवस्था है कम से कम व्यवहार में तो यही है। इस प्रकार जो प्रेम है वास्तव में वह त्याग है। जितना अधिक प्रेम होता है उतना ही अधिक उसमें त्याग छिपा होता हैं। कौन किससे कितना प्रेम करता है, इसका अंदाजा इसी से लग सकता है कि कौन किसके लिए कितना त्याग करने को तैयार है।
जो त्याग है वह प्रेम भी है। मनुष्य में त्याग की भावना प्रेम से पैदा होती है। जहां जितनी अधिक मात्रा में त्याग होगा उतनी ही अधिक मात्रा में वहां प्रेम के दर्शन होंगे। साधु, संत आदि को रूखे कहना अन्याय है। मगर शर्त यह है कि वह संत हों, सच्चे विरक्त हों। प्रायः देखने में आता है कि साधु संत सभी बच्चों से प्रेम करते हैं, सभी पशुओं की सेवा करते हैं। जो जितना बड़ा त्यागी होगा, उसके प्रेम का क्षेत्र उतना ही अधिक विस्तृत होगा।क्यों? इसलिए कि त्याग स्वयम् प्रेम है इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रेम और त्याग परस्पर ओत-प्रोत हैं, एक हैं। भगवान शंकर इसके मूर्तिमान प्रमाण हैं। इन सब बातों से हम एक अपूर्व निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, जो सभी के ध्यान देने योग्य है। राग, विराग, भोग, त्याग, गृहस्थी तथा सन्यास प्राय: परस्पर विरोधी वस्तुएं समझी जाती हैं। किंतु ऊपर सिद्ध हो गया कि यह धारणा गलत है। वह परस्पर विरोधी नहीं बल्कि अभिन्न हैं और एक है। तब तो सन्यास और गृहस्थी भी एक ही होने चाहिए। कम से कम यह समझना तो भूल ही है कि सन्यासी घर नाश कर देगा या गृहस्थी से मनुष्य का उद्धार नहीं होगा। सच्चे सन्यासी से किसी का घर बिगड़ नहीं सकता, क्योंकि उसके दिल में सच्चा प्रेम भरा होता है और अगर जरूरत पड़े तो सच्चा सन्यासी बड़ा से बड़ा त्याग करके बिगड़ते घर को बचा लेगा। इसीप्रकार अच्छे गृहस्थ का अंत भी कभी बुरा नहीं हो सकता, क्योंकि उसके घरेलू प्रेम की नींव भी त्याग पर जमी रहती है। सन्यासी में प्रेम छिपा रहता है और त्याग दिखायी देता है। गृहस्थी में प्रेम दिखायी देता है और त्याग छिपा रहता है। फिर भी सन्यासी को प्रेम के कार्य करने पड़ते हैं और गृहस्थी को त्याग के। किंतु अंत में दोनों एक हो जाते हैं, और एक ही परिणाम को प्राप्त होते हैं।
जब गृहस्थी और सन्यास में इतना निकट सम्बन्ध है तब तो उनकी शिक्षा-दीक्षा भी एक ही सी होनी चाहिए। जो शिक्षा-दीक्षा गृहस्थ के लिए लाभदायी होगी वही सन्यासी के लिए आवश्यकीय भी होगी। उदाहरण के लिए भगवद्गीता का उपदेश यदि सन्यासी के लिए श्रेयस्कर है तो वही गीता गृहस्थ के लिए भी मंगलकारी हैं। इसके विपरीत एक प्रकार की शिक्षा-दीक्षा न होने के कारण और परस्पर विरोधी समझे जाने के कारण विरक्त और गृहस्थ दोनों की ही हानि हुई है और हो रही है। यहां पर यह बात मानी हुई है कि अवस्था के अनुसार दोनों के कर्तव्यों और अधिकारों में स्वाभाविक भिन्नता रहेगी ही ।
शंकर भगवान के सिवा बाकी सब लोग, प्रेमी भी और त्यागी भी निकम्मे किस्म के हैं, भोगने त्यागने की शक्ति उनमें नहीं है, विषयों ने सांप बनकर उन्हें डंस रखा है, और वे बेहोश पड़े हैं, " इस प्रकार कहना कहाँतक ठीक है ? इसमें कोई विचित्रता नहीं है। जिस प्रकार बेहोश मनुष्य हिल डुल नहीं सकता, अधिक से अधिक वमन आदि करता है, दूसरे लोग उसे जैसे चाहें उठाते बिठाते हैं, उसी प्रकार विषय इन्हें जिधर चाहें मोड़ा घुमाया करते हैं और यह पराधीन रहते हैं ।
इस प्रकार जब उनकी कर्तृत्व शक्ति ही नष्ट हो जाती हैं तब उनके द्वारा विषयों को स्वयं त्यागने या भोगने का सवाल ही समाप्त हो जाता है। मनुष्य के विषयों में फँसने का कारण मोह है। मोह के माने हैं- हो कुछ और समझें कुछ और। विषयों को सुख मान कर लोग कितनी बडी भूल करते हैं। खाना ,पीना , मैथुन करना प्राणि मात्र के सहज कर्म हैं। यदि सिद्ध हो जाए कि ऐसे सहज कार्य भी वास्तव में रोग ही हैं तो बाकी कामों के सम्बन्ध में विशेष कहने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। यहाँ पर दो बातों पर विचार करने की जरूरत है. एक रोग और दूसरा इलाज | क्या भूख, प्यास और काम-वासना भी सचमुच में रोग हैं ? शरीर में किसी प्रकार की वेदना होने का नाम ही तो रोग है किसी का गला सूखने लगे बोली बन्द होने लगे तो लोग घबड़ा जाते हैं। समझते हैं-कुछ हो गया, मर जाएगा। दवा करते हैं। गला साफ हो जाता है। आँख खुल जाती है। लोग कहते हैं कि दवा से चंगा हो गया। प्यास में क्या होता है ? ठीक यही, पर यहाँ इलाज सरल हैं। पानी के दो घूंट से बीमारी भाग जाती है परन्तु यदि पानी न दिया जाए तो क्या हो ? ठीक वही जो पहले के रोगी का होगा। पीड़ा बढ़ती ही जाएगी। अन्त में एक ऐसी दशा आएगी कि शरीर से हाथ धोना पडेगा। स्पष्ट है कि प्यास भी सचमुच रोग है और पानी उसका इलाज ।
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फिर लोग इस रोग (प्यास) को रोग क्यों नहीं मानते ? कारण इसका भोग नहीं बल्कि उसका इलाज है। इलाज सरल है इसीलिए बीमारी से यह बेपरवाही : श्लोक में प्रत्येक इलाज पानी पानी, भोजन आदि के साथ अधिकाधिक विशेषण (शीतल, मधुर जल, माँसादि कालितम् शत्यन्नम् तथा सुदृढतर मालिंगनम् ) लगा कर रोग तथा चिकित्सा का गुरुत्व सिद्ध किया गया है ।
इसी विषय पर दूसरे प्रकार से विचार करें। रोग की पहचान क्या है ? सिर दुखा, खांसी उठी, पेट में पीड़ा हुई या पैर में फोड़ा फूट निकला, लोग समझते हैं रोग हो गया है।दुख, दर्द, खाँसी, फोड़ा, खुद तो कहते नहीं कि हम रोग हैं । कहते हैं वह अंग जहाँ पर रोग होता है अर्थात् रोग नहीं बल्कि रोगी अंग बोलते हैं। नीरोग अंग कभी नहीं बोलते हम महसूस भी नहीं करने क हमें गला है, सिर है, पैर है या शरीर है। शरीर का महसूस होना ही रोग का चिन्ह है। शरीर का जो अंग महसूम होने लगे, समझ लेना चाहिए कि उसमें कोई रोग हो गया है। रोग बड़ा हो वा छोटा, सबकी यही पहचान हैं। क्या रोग है, और उसका क्या इलाज है, इसकी जानकारी हमें बार बार के अनुभव से ही होती है। हमें प्यास बार-बार लगती है और जब जब प्यास लगे पानी पी लेते हैं । प्यास बुझ जाती हैं । इसे हम बीमारी नहीं समझते, क्योंकि इसका इलाज सरल है। सन्निपात या तपेदिक रोग रोज नहीं होता और इसका इलाज भी सरल नहीं है। इसलिए हमने इन्हें रोग समझा। अस्तु, शरीर के पूर्णतया स्वस्थ होने की पहचान यही है कि वह हमें महसूस हो न हो जहाँ सारा शरीर या उसका कोई अंग महसूस होने लगे तो वहीं रोग है। यह है शारीरिक रोग ।
मनुष्य केवल शरीर ही का नहीं बना है। उसमें मन और आत्मा भी है। मन और आत्मा भी रोगी और स्वस्थ होते हैं। मानसिक तथा आत्मिक रोगों की पहचान क्या है ? अधिक न जा कर इतना ही समझ लें कि काम, क्रोध, मद, मत्सर आदि मानसिक रोग हैं।
जब तक मनुष्य के भीतर इच्छाओं का तूफान उठता रहे, प्राप्त वस्तुओं में आसक्ति हो, अप्राप्त की आकांक्षा हो, बाधाओं से क्रोध उत्पन्न हो, बाचक से द्वेष करने लगे, तब तक समझना चाहिए कि वह मनुष्य मानसिक दृष्टि से स्वस्थ नहीं है और जिस मनुष्य में मन के भीतर भी इस प्रकार की भावनाएँ न हों - यह महसूस भी न हो कि यह मेरा है, वह उसका है, यह दोस्त है, वह दुश्मन है- समझना चाहिए कि उसका मन एकदम स्वस्थ है। आत्मिक स्वास्थ्य उससे भी ऊंची वस्तु है। मनुष्य जब तक आत्मा परमात्मा की चर्चा करता रहे, उसके भीतर इस प्रकार के विचार वर्तमान हों, तब तक उसकी आत्मा अस्वस्थ ही है । जिस मनुष्य में आत्मा परमात्मा, संसार या स्वर्ग की भावना एकदम न हो उसकी आत्मा एकदम स्वस्थ है ।
अन्त में यह शंका रह ही जाती है कि इस शारीरिक मानसिक तथा आत्मिक स्वास्थ्य की प्राप्ति कैसे हो ? यह तो असम्भव सा है, क्योंकि शरीर के साथ भूख प्यास लगी ही रहेगी—उसके लिए आवश्यक वस्तुओं को जुटाना ही होगा - संसार में नित नये गुल खिलेंगे — हमें खुल खेलना ही होगा - यही जीवन है— जीवन को सुखी बनाना मनुष्य का धर्म है मगर सच तो यह है कि इस 'सुख' के चक्कर में फँस जाना ही मोह है। इस मोह से बचने की जरूरत है । और इससे इसके लिए किसी विशेष साधना की जरूरत नहीं है । कोई अड़चन या किसी चीज़ की मनाही भी नहीं है। खूब खायें खूब पी और मौज करें, पर मुख के विचार से नहीं बल्कि केवल शारीरिक व मान कर करते जाएँ। जिस प्रकार साँस लेते छोड़ते हैं उसी प्रकार खावें पीवें भी। यह शरीर का धर्म है और इसी में शारीरिक स्वास्थ्य है। शरीर और आत्मा के स्वास्थ्य को एक और उदाहरण से स्पष्ट कर दें नदी में जल के समान रहना कि पानी आता जाए और निकलता जाय । यह शारीरिक स्वास्थ्य है। जल में मछली के समान रहना कि पानी में तो रहे पर पानी शरीर में लगे ना, यह मानसिक स्वास्थ्य है, और पानी में पानी के समान घुले-मिले रहना आत्मिक स्वास्थ्य है। इस प्रकार मोह से एकदम मुक्त हो जाने पर मनुष्य आप ही मुक्तात्मा हो जाता है। मोह के कारण मनुष्य संसार के जंजाल में फंस जाता है।छले लोक में मुखों को विशेषकर शारीरिक सुखों को रोग बतलाया था। उनी सिलसिले में मानसिक तथा आत्मिक रोगों की अर्चा की गयीं थी। इस लोक में बताया है कि रोग निवारण की अनंत शक्ति उन औषधियों में भी नहीं है। कोई बीमार स्वस्थ हो जाने के बाद भी अस्पताल में पड़े रहकर दाय या नर्स ने सेवा लेने की चाह नहीं करेगा। चाहेगा भी तो कोई रहने नहीं देगा। इस लिए स्वयं ही छोड़ देना अच्छा है।बचना बहुत सरल है।
लोक के अंतिम पद पर थोड़ा सा विचार करना अच्छा है " धन्य t पुरुष घर, स्त्री, पुत्र तथा यौवन को त्याग देते हैं।" यहां पर यह शंका होती है। कि इन वस्तुओं को त्यागने से मनुष्य धन्य होता है, अथवा जो हैं ने इन्हें स्वायते है ? ठीक तो नही जान पड़ता है कि व्याग के बाद ही मनुष्य धन्य कहलाने का अधिकारी है। किंतु व्याग तो केवल बाहरी किया है यह भावना पहले दिल में ही पैदा होती है। वह पहले सब बातों को तौलकर निश्चित रूप से जान लेता है सि संसार वग-भंगुर है और यह सारी चीजे हमें छोड़ जाएंगी। यदि ये हम से अपने आप छूट जाएं तो हमें दुख होगा और यदि हम स्वयं इन्हें छोड़ दें तो मन को प्रमता तथा शान्ति रहेगी। वास्तव में ऐसा मनुष्य उन वस्तुओं का उपयोग करते हुए भी उन्हें त्याग रहता है। यह कहा जा सकता हैं कि धन्यता के अंकुर उसमें पहले से ही विचरान रहते हैं इसके विपरीत यदि मन में चाह रही तो एक बार उन वस्तुओं को स्यागने के बाद भी दिल में उनकी चाह बनी रहने से मानसिक कष्ट होगा, बल्कि अपनी जल्दबाजी पर पश्चात्तात करेगा। इसलिए दिखावटी त्याग के कारण किसी को धन्य मानना गलत होगा। सच तो यह है कि दिखने वाले स्थान का कोई महत्व ही नहीं है। महता दिल की भावना का है। इलोक के सब्दों से भी यही भाग निकलता है । घर, स्त्री, संतान के साथ यौवन का परित्याग कैसे संभव है?
यौवन तो है और जब तक रहना है वह रहेगा कि सन्यास का योगन वो उसके नियमित जीवन तथा ब्रह्मचर्य के कारण और भी अधिक दिनों तक बना रहेगा। इसलिए यहां पर उनके त्यागने के अर्थ हैं— उनमें आसक्त न रहना और उनका दुरुपयोग न करना। अंत में दिल में भी त्याग भरा हो और देखने में भी उनका परित्याग किया जाए तो असली महत्व उसी का है ।