बुढ़ापे में शरीर के समान मन भी शिथिल हो जाता है। जवानी की तरंगें और उमंगें अब मन में नहीं उठतीं । विषयों के भोगने की इच्छा जाती रहती है। उसकी इच्छा रहती ही नहीं । लोगों में मान मर्यादा भी काफी सुख देने वाली वस्तु है, किन्तु बूढ़े होने पर वह भी घट जाती है। यदि कुछ सम्मान होता भी है तो वह केवल दिखा क्टी होता है । लोग दिल में गालियां दिया करते हैं या हँसी उड़ाते हैं। कहा करते हैं- पिंड नहीं छूटता मुए से मान मर्यादा भी छोड़िए । यार दोस्तों से भी दिल बहल जाता है। संगी साथी होते तो उनसे अपनी कष्ट गाथा कहते । इस तरह दिल का गुबार उतार लेने में थोडी सी शान्ति होती । कुछ पुरानी बातें कहते सुनते । थोडी देर के लिए पीछे की बातों में आज की बातें भूल जाते। पर यार दोस्त, संगी, साथी होंगे भी तो अपनी ही उम्र के, सो वह भी बूढे हो गये या मर गये। जो कोई होगा वह भी कहीं कब्र में पैर लटकाये पड़ा होगा। मान लीजिए भोग नहीं चाहिए, मान मर्यादा नहीं चाहिए और दिल को तसल्ली भी नहीं चाहिए, पर इतना तो कम से कम हो कि अपना काम आप कर ले सकें । सो वह भी नहीं होता। उठना बैठना दूभर हो जाता है। आखों को सुझाता नहीं। ऐसी दशा में पाखाने पेशाब के लिए आदमी दूसरों का मोहताज हो जाता है । जब शरीर को सुख नहीं, और मन को शान्ति नहीं तब जीने में क्या रखा है। इस जीने से तो मर जाना कहीं अच्छा है।
माना कि आत्महत्या करके मरना नहीं है। इतना तो है ही कि सबके समान हमें भी मरना है, यह समझकर शान्त चित्त रहें । परन्तु मनुष्य मरने की बात सुनकर घबरा उठता है। तृष्णा के मारे वह यह इच्छा करता है कि वह बराबर जीता ही रहे। कोई मरने की बात कहे तो वह झल्ला उठता है—मैं क्यों मरूं ? तू मरे, तेरे फला मरें मूर्खता की हद हो गयी।
आशा को एक नदी कहा गया है। नदी और आशा में क्या समानता हैं? नदी सदा की प्रदेश से शुरू होती है फिर निरन्तर नीचे की ओर गिरती हुई जिपर डाल मिले बहती जाती है। अन्त में उसका जल समुद्र में जाकर लय हो जाता है। किन्तु नदी का रूप तब भी नहीं मिटता । वह ज्यों का त्यों बना रहता है। एक बार जहां नदी शुरू हुई फिर वह कहीं समाप्त होने का नाम नहीं लेती। जहां समाप्त भी होती है वहाँ वह उससे भी बडी नदी या समुद्र में जाकर मिल जाती है। हाँ, नदी भी समाप्त होती है। कहाँ ? केवल मरु भूमि में, जहां पानी बालू में सूख जाता है। वहाँ पर भी धीरे-धीरे छोटी होकर, पतली होकर सूख जाती है। वास्तव में पानी ही नदी का कारण है। तरह-तरह की इच्छाओं को इस पानी से उपमा दी गयी है। शुरू में नदी में पानी कम होता है। ज्यों ज्यों नदी आगे बढ़ती है त्यों त्यों छोटे बड़े नदी नाले उसमें आकर मिलते जाते हैं।ठीक उसी प्रकार मनुष्य के मन में आरम्भ में कोई साधारण इच्छा होती है। उसके बाद दूसरी इच्छा। फिर एक दूसरे से बडी इच्छा। नदी के जल के समान इच्छाओं का समूह बढ़ता ही जाता है। इच्छाओं का समुद्र बन जाता है। तब पता भी नहीं लगता कि इन इच्छाओं का आदि अंत कहां है। समुद्र का पानी खारा ही खारा होता है। नदी के जल के समान इच्छाओं की मिठास भी वहां जाकर मिट जाती हैं। इच्छाओं के सम्बन्ध में एक और बात भी है। कभी कभी नदियों में पानी बहुत बढ़ जाता है। वह बाढ़ कहलाती है। तब नदी स्वयं एक ममुद्र बन जाती है। उसका असली रूप तो बदलता ही है। साथ ही आस-पास के सैकड़ों घर-गांव भी बरबाद कर डालती है इच्छाओं की बाढ़ भी उस अकेले व्यक्ति को ही नहीं बल्कि दूसरों के लिए भी बवाल बन जाती है। महाबुद्ध इन ही इच्छाओं की बाढ़ के परिणाम हैं। हाँ, पानी से लाभ भी उठाया जा सकता है। बांध बांधकर, पानी को रोककर सिंचाई का काम लिया जा सकता है पानी के बार में भी नाव पर बैठकर लोग जहाँ जी चाहे जा सकते हैं। 1 परन्तु यह काम इच्छाओं को रोकने तथा उनपर काबू पाने का है। या मरुभूमि की नदी के समान इच्छाएँ कम होती जाएँ, मिट जायें तो नदी का नाम भी रहे।अब आगे चलिए पानी के बाद तरंगों की बात कही है। तूफान के समय पानी में ऐसी बडी बडी लहरें उठती हैं कि नदी में कोलाहल मच जाता है। इसी प्रकार जब मनुष्य अप्राप्य वस्तुओं के लिए ललचाने लगता है तब उसकी शान्ति नष्ट हो जाती है। किसी प्रकार यदि वस्तु प्राप्त हुई तो उसमें मनुष्य आसक्त हो जाता है। इस आसक्ति को मगर कहा गया है। मगर के मुंह में ऊपर नीचे के दांत इस प्रकार बने होते हैं कि जब वह दबते हैं तो एक दूसरे के बीच भिच जाते हैं । इसी लिए यदि कोई जानवर नगर के मुंह में फंस जाय तो फिर छुटकारा नही पा सकता। मगर उसे निगल जाता है। आसक्ति भी मनुष्य को मानो मगर के मुँह में पहुंचाकर उसका सर्वनाश कर देती है। आसक्ति के साथ सदा यह शंका बनी रहती है कि उसकी वस्तु को कोई छीन न ले जाए। शंकाओं को पानी के पंछी मे उपमा दी गयी है। पंछी ऊंचे आकाश में उड़ते हैं। पर पानी के भीतर के जीव पर झपट्टा मारते हैं। मन के अन्दर शंकाओं का भी यही हाल है। हमारी शंकाएं भी सदा हवाई होती हैं और वही बाद में असली बनकर दोचती हैं। यात्रुओं का साहस ने सामना करना पड़ता साहस की उपमा पेड़ से दी गयी है। नदी की राह में जो पेड़ पड़ जाएँ यह ज्यादा देर तक नहीं टिके रह सकते । नदी का पानी उनकी जड़ों से मिट्टी काट-काट कर बहा ले जाता है। अंत में पेड़ की जड़ें उखड़ जाती हैं और वह पानी में बहने लगता है।इसी प्रकार आशा के प्रवाह में मनुष्य का साहस टूक-टूक हो जाता है। और मनुष्य इच्छाओं के पीछे बहने लगता है। मोह यानी अज्ञान भंवर है। जो वस्तु भंवर में पड़ती है वह चक्कर काटकर तह में बैठ जाती है। इसी प्रकार मनुष्य भी अज्ञान वश बार-बार वही काम करता है। परिणाम यह होता है कि लज्ञान उसे ले बैठता है। नदी के तट को चिन्ता कहा गया है। तट भी ऊंचे-ऊंचे जिन पर चढ़ पाना असम्भव है। केवल निहारते ही रहना पड़ता है। नदी की धार में आदमी एक जगह तो रह नहीं सकता। देखते ही देखते कोसों दूर वह जाता है । किनारे उसे सदा पास ही दीखते हैं, किन्तु वह घाट लगने नहीं पाता । बहते पानी का किनारा एक नहीं होता, हर सेकंड में एक नया ही तट उसकी आंखों के सामने होता है। आशा में फंसे हुए मनुष्य को भी अनगिनत चिन्ताएँ मेरे रहती हैं जो कभी दूर नहीं होतीं । उसका ध्येय एक नहीं रहता । बहते पानी के तट की तरह बराबर बदलता रहता है। जीवन उद्देशहीन बन जाता है । इस प्रकार एक आशा से कितनी ही आफतें खडी हो जाती हैं। तरह-तरह की इच्छाएँ, अप्राप्त वस्तुओं के लिए तृष्णा प्राप्त वस्तुओं में आसक्ति, उन्हें कोई छीन न ले, उसकी आशंका, कठिनाइयों से घबरा कर खो बैठना, अज्ञान में पड़ कर चक्कर काटना, अपार चिन्ताओं के बात में फंस जाना, इतनी भयंकर वस्तु है आशा।आशा के इतने वीभत्स वर्णन के बाद अन्त में आनन्द के किरणों की थोडी आभा दिखला दी गयी है। इतने भयंकर नदी को भी सरलता से पार कर सकते और उस पार आनन्द ही आनन्द है । यह काम विशुद्ध मन वाले योगियों को ही सुलभ हो सकता है । किसका पल्ला भारी है, योगीराज का कि विशुद्ध मन का ? इस प्रकार की शंका की आवश्यकता नहीं है। दोनों एक ही वस्तु हैं । जो योगी है उसका मन विशुद्ध है, और जिसका मन विशुद्ध है वह योगी है । भक्ति योग या ज्ञान योग, इस चक्कर में पड़ने की भी जरूरत नहीं है। विशुद्ध मन ही प्रधान है। जो सब में समान है।
जिस मन के भीतर विषयों की वासना नहीं वही मन शुद्ध होता है। जिस मन में स्वार्थ भरा न हो वही माया मोह से ऊपर उठ सकता है। शुद्ध स्वार्थ के दूर होने पर ही यह संभव है स्वार्थ छूटे, सब कुछ सधे।