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𝗟𝗮𝗻𝗴𝘂𝗮𝗴𝗲

वेदांत , उपनिषद और गीता प्रचारक

काम क्रोध मोह लोभ 1.0

घोर नरक ले जाए : ऋषि भृतहरि

शंकर भगवान वैराग्य के साक्षात् अवतार हैं। इसीलिए भर्तृहरि ने वैराग्य के लिए शंकर भगवान को आदर्श माना है। शंकर की उपमा ज्योति से दी गयी है। शंकर भगवान के मस्तक पर जो चन्द्रमा है वही उस ज्योति की लौ है। भर्तृहरि ने वैराग्य शतक से पहले श्रृंगार शतक लिखी है। इसलिए इस श्लोक में चन्द्रमा की सुन्दरता का वर्णन है पर यहाँ तो शृंगार से निकल कर वैराग्य में प्रवेश करना है। विचार एकदम बदलते हैं। चन्द्रमा को विचारों का उद्गम माना गया है। विचारों के परिष्कृत होने पर ही मनुष्य वैराग्य के जटिल मार्ग पर अग्रसर हो सकता है और तभी उसका उत्थान हो सकता है। इसलिए शंकर के मस्तक पर चन्द्रमा अब श्रृंगार के लिए नहीं बल्कि विचार के लिए है।
अब ज्योति को लीजिए। ज्योति अथवा ज्वाला का काम जलाना है। उसे निगल जाने की नीयत से पतिंगे उस पर टूट पड़ते हैं । ज्वाला उन्हें जला कर भस्म कर देती है। शंकर भगवान ने तो कामदेव को भस्म कर डाला थ । इसमें दो बातें हैं। एक ओर पतियों का दल है, दूसरी ओर अग्नि की ज्वाला या दीपक जलाने वाली वस्तु है। उसे पतिंगे खाने की वस्तु समझते हैं और जलकर मर जाते हैं। दीपक को भी पतियों की ओर से खतरा है पतियों के झपेट मैं कभी-कभी दीपक बुझ भी जाता है।
मानव के मन में दोनों गुण हैं। उसमें विषय-वासना का अंधकार भी है और वासनाओं को भस्मीभूत करने की ज्वाला भी है।मनुष्य आग के समान पवित्र बन जाने पर ही कामनाओं पर काबू पा सकता है, नहीं तो वह स्वयं नष्ट हो जाएगा। वैराग्य की ओर बढ़ने वाले व्यक्ति को सबसे पहले कामनाओं पर काबू पा लेना होता है तब ही उसमें वह ज्योति जग उठेगी जहाँ ज्योति जयी वहाँ अंधकार आप ही मिटने लगेगा। यही प्रकाश धीरे-धीरे सारे अन्तःकरण के भीतर व्यापने लगेगा और अज्ञान रूपी अंधकार को जड़मूल से नष्ट कर देगा। ज्योति या दिया तो मकान या मन्दिर के भीतर जला करता है। यह ज्ञान की ज्योति योगियों के मन में प्रकाशमान रहती है। इस तरह योगी का मन मन्दिर बन गया, क्योंकि अब वह भगवान का स्थान बना। इस प्रकार शंकर भगवान् सदा योगियों के मन में विराजमान रहते हैं।
यहाँ पर 'योगी' तथा 'हर' दोनों शब्द ध्यान देने योग्य हैं श्रृंगार शतक के भोगी को अब वैराग्य शतक का योगी बनना होगा- ज्ञान योगी अन्य किसी योग की चर्चा शतक भर में कहीं नहीं है। चाहे कोई योगी हो, उस योगी के हृदय में 'हर' महादेव वास करते है । 'हर' का अर्थ है—समस्त पापों को हरनेवाला और सब प्रकार की बाधाओं से मुक्त करनेवाला । साधक अपनी साधना के द्वारा उस स्थिति को प्राप्त होने पर स्वयं उसके भीतर ऐसी शक्ति पैदा हो जाती है। तब साधक सिद्ध बन जाता है, मानव महादेव हो जाता है, इन्सान ईश्वर हो जाता है।तृष्णा अथवा लालच यह वैराग्य को साधना में सबसे बडा बाधक है। जिसकी तृष्णा न मिटे वह वैराग्य को प्राप्त नहीं हो सकता। उल्टै तृष्णा के कारण मनुष्य क्या-क्या बुरे कार्य कर डालते हैं।
लालच के मारे कोई इस चेष्टा में रहता है कि कहीं पड़ा-पड़ाया धन हाथ लग जाए । इस उद्देश्य से वह पहाड़, नदी, समुद्र तथा देश-विदेश की खाक छानता है। इतने कठिन परिश्रम के बाद धन की प्राप्ति नहीं होती, सो मतलब नहीं है। अभिप्राय यह है कि इस प्रकार धन मिल भी जाए तब भी उसका कोई अच्छा फल नहीं होता। उसकी प्यास घटती नहीं बल्कि बड़ी ही जाती है। जीवन भर तरह-तरह के शारीरिक कष्ट उठाने पर भी मानसिक शान्ति प्राप्त नही होती। साधारण लोग इस प्रकार जोखिम का काम न लेकर नौकरी जैसा सुगम पेशा अपनाते हैं। नौकरी में जोखिम कम होता है और शरीरिक कष्ट भी कम ही होता है। काम भी और वेतन भी निश्चित होता है। पर इसमें स्वाभिमान को अधिक धक्का लगता है मालिक की मान-मर्यादा के लिए अपने स्वाभिमान और सिद्धान्तों को तिलांजलि देनी पड़ती है। इससे पहले की अपेक्षा अधिक मानसिक होता है। तीसरी श्रेणी के वे लोग हैं जो शरीर को तनिक भी कट देना नहीं चाहने वे भीख से पेट भरते हैं। उनकी दशा तो ममे गयी बीती है। उन्हें अपनी ला खोकर दूसरों का मुंह ताकना पडता है। फिर भी बैठ कर निश्चितता से खा नहीं पाते।उनके हाथ से टुकड़ा कोई छोन ले जाएगा, इसका डर तो नहीं है। किन्तु कंगाल भिखारी की आत्मा इतनी पवित्र हो जाती है कि वह दूसरों के फेंके फिका टुकडों को भी चोर नज़र कब्वे की भांति डरते-डरते खाता है। किसी विशेष उद्देश्य को लेकर पर्यटन तथा परिश्रम करनेवालों, स्वाभिमान की रक्षा करते हुए योग्य नौकरी करने वालों, या सन्त-महात्माओं या अतिथि अभ्यागतों का तिरस्कार नहीं किया गया है, बल्कि केवल कंगलेपन और नीच सेवा तथा लालचियों की निन्दा की गयी है। दूसरी बात यह है कि जिन कामों में शारीरिक कष्ट अधिक होता है उनमें स्वाभिमान की रक्षा अधिक होती है। कमाने खाने का मार्ग जितना सरल होता है उतना ही अपमान अधिक सहना पड़ता है। इसलिए सांसारिक सुख के साथ साथ मानसिक शान्ति की इच्छा रखने वालों को चाहिए कि शारीरिक कष्ट से भागने की चेष्टा न करें ओर सबमें ध्यान देने योग्य यह है कि चाहे जितना 1 शारीरिक कष्ट उठावे या मानसिक वेदना सहें, जब तक मनमें तृष्णा है तब तक कष्ट ही कष्ट रहता है। तृष्णा स्वयं पाप कर्मों में फंसाने वाली वस्तु है । तृष्णा तथा पाप में चोली दामन का नाता है। सारांश यह है कि जब तक तृष्णा है तब तक तृप्ति नहीं और जब तक तृप्ति नहीं तब तक सुख या शान्ति नहीं।
हम विषयों का सुख भोगते हैं, इस प्रकार समझना ही भूल है। विषयों से प्राप्त होने वाले क्षणिक सुख से शरीर का हास होता है। दुःख होता है, सुख नहीं। भोजन, विलास, और संभोगआदि से मनुष्य स्थायी आनंद प्राप्त नहीं कर सकता । जितनी देर तक उनका भोग करते रहते हैं तब तक के लिए हमें सुख जान पड़ता है। वास्तव में उस वस्तु के प्राप्त करने में और बाद में उसे स्थायी बनाए रखने में अमन होने के कारण दुख ही दुःख होता है। हम विषयों को नहीं भोगने बल्कि विषय भी हमें भोग लेते हैं। क्योंकि जिस वस्तु का निरंतर भोग होता जाए उसे समाप्त हो जाना चाहिए और भोगने वाले की भोग- शक्ति बड़ी हो जानी चाहिए पर ऐसा नहीं होता किसी भी विषय का भोग करते हुए थोड़ी ही देर में हम अपने को अधिक भोगने के अयोग्य पाते हैं और दिन पर दिन वह शक्ति और भी कम होती जाती है। खाने पीने में और संभोग में सबका अनुभव यही है स्पष्ट है कि विषय ही हमें भोग डालते हैं। इस प्रकार विपी मनुष्य सदा मानसिक और शारीरिक क्लेशों का अनुभव करता रहता है | स्वार्थ के लिए कष्ट उठाना तपस्या नहीं है। वह तो जलना है जैसे सोने को उपों के दीन में रख कर आग लगा दें तो सोना तप कर स्वच्छ होगा और उपली जलकर राख होगी।
मनुष्य तपस्या करता है तो वह सोने के समान तपता है और कुंदन दन कर निकलता है। किन्तु विषयी मनुष्य उपली के समान जलकर राख हो जाता है। इसी प्रकार हमारे समय का कटना भी झूठ है। यदि समय कटता तो हमें ज्यों का त्यों बना रहना चाहिए था, अजर, अमर हो जाना चाहिए था, और समय को ही कटकर शिविल और शीर्ण हो जाना चाहिए था । पर ऐसा नहीं होता। वही दिन रात और महीने और मौसम लौट लौट कर आते हैं और उसी रूप में आते हैं। किन्तु हम दिन पर दिन कमजोर पड़ते जाते हैं । अन्त में एक दिन वूढे हो कर मर जाते हैं। इस में सन्देह नहीं कि दिन तो सभी के ढल जाते हैं, भोगी के भी और योगी के भी, परन्तु ढलने ढलने में अंतर है तपस्या करते-करते बूढ़ा होने पर या मरते समय उसे तनिक भी सन्ताप नहीं होता। परन्तु विषयी बीती बातों के लिए हाथ मलता है, आगे के लिए हाय हाय करता है और मृत्यु को याद करके सिर धुनता है। इसके विपरीत साधारण गृहस्थ भी स्वभावतया जिन कामों को करता है यदि उन्हीं को वह स्वेच्छा से करे और जो कुछ आपडे उसे चुप चाप सहा करे तो उसे गृहस्थी में भी वही सुख मिलेगा जो तपस्वी को घोर तपस्या में मिलता है।

शेष भाग 2 में 


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