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𝗟𝗮𝗻𝗴𝘂𝗮𝗴𝗲

वेदांत , उपनिषद और गीता प्रचारक

हरि नाम है सहारा

सर्वस्व का हरण करने वाला हरि : वेदांत

जिसे भूख लगती है, वह अन्न खुद ढूँढ लेता है, प्यासे को पानी की याद नहीं दिलाई जाती, क्या धूप से मारे हुए पथिक के लिए छाया दिखलानी पड़ती है? हरगिज़ नहीं। वैसे ही वैराग्याग्नि से संतप्त इस पागल ने संतों तथा सच्छात्रों के द्वारा विश्राम का मार्ग खुद हूँढ निकाला है, वह मार्ग है 'हरिनाम ।' इसने 'हरिनाम' का आश्रय लिया है, विषय सर्प से डंसा हुआ इसने अपने लिये 'हरिनाम' को ही संजीवन बूटी समझ रखी है, यह अविद्या-मृत्यु से मरा हुआ अब 'हरिनाम' की सुधा पीना चाहता है ! देखिये न, यह तो एक 'हरिनाम' को छोड़कर दुनिया की सारी विषयों को मृगतृष्णा का ही पानी बतलाता है। विषय समूह को विष का प्याला समझता है। इसके लिये वे मिट्टी के समान निरस दिखाई देते हैं, क्योंकि इसने सांसारिक भोगों की असलियत को अच्छी प्रकार समझ लिया है। यह संसार-सागर में डूबते-डूबते थक गया है, चौरासी लाख योनियों में लुढ़कते लुढ़कते उकता गया है। इसलिए यह अब आराम तथा विश्राम लेना चाहता है। यह तो एक 'हरिनाम' के अवलम्बन से ही बड़भागी बनना चाहता है ।
अब आप लोग यह सोचते होंगे कि अरे ! वेदान्त के अनुसार तो नामरूप मिथ्या हैं, तो भला, नाम के आश्रय से आराम या विश्राम कैसे मिल सकता है?इससे अमरता भी क्यों मिलने लगी? मिथ्या नाम को सुधा या संजीवन बूटी कहना तो निहायत पागलपन है । प्यारे आत्मन् ! आप घबड़ाइये नहीं, तनिक मेरी बातों पर ध्यान दीजिये । नाम, नामी से भिन्न नहीं होता, क्या 'देवदत्त' कहने से देवदन्त के रूप का बोध नहीं होता? 'देवदत्त' इस नाम के पुकारने से क्या रूपवान् देवदत्त नहीं बोलता? या नहीं चला आता? तब रूप से नाम अलग हो ही कैसे सकता है? इस रीति से हरि का अर्थ होता है, 'हरण करनेवाला'। अजी ! यह हरि तो पाप का हरण करता है, नाश करता है; तो फिर अविद्या या अज्ञान से बढ़कर और दूसरा पाप ही क्या हो सकता है? इस अविद्या ही ने तो जीव को अपने वास्तविक स्वरूप से वंचित कर रखा है। इसने ही तो जगत् में सत्य तथा सुख की वृद्धि करा डाली है, इसके ही कारण से नाना कर्म-रूप भेड़िये जीव को कुचल -कुचलकर खा रहे हैं। इस अज्ञान रूपी अविद्या- पाप के नाश होते ही कामना, कर्म एवं कर्म-फल के सम्पूर्ण दुःख-जाल नष्ट हो जाते हैं; इनके नष्ट होते ही जीव अपने असली अविनाशी स्वरूप का अनुभव करने लगता है ।
इस अविद्या रूपी पाप का नाश तो एकमात्र विद्या (ज्ञान) ही कर सकती है। जब हृदय में सत्य ज्ञान- हरि का उदय होता है, साक्षात्कार हो जाता है, तब तो आज्ञान के पाप का एकदम प्रभाव हो जाता है ।
अज्ञान के दूर होते ही इस जीव के सभी क्लेश छूट जाते हैं। यह अपने मृत्यु भाव को छोड़कर अमर हो जाता है, आनन्द-स्वरूप ही बन बैठता है। जब नदियाँ अपने स्वामी समुद्र की शरण में जाती हैं, तब क्या उनके नाम-रूप रह जाते हैं ? क्या सब 'गंगा' और 'कर्मनाशा' में कुछ भेद रह जाता है ।
अजी ! उन्हें तो यह याद ही नहीं रहता कि हम अमुक स्थान से निकलकर अमुक रास्ते से टेढ़ी-मेढ़ी बहती हुई आ रही हैं तथा यह भी ध्यान नहीं रहता कि हमारे अमुक नाम तथा वर्ण थे और हमारे जल के स्वाद ऐसे थे; वरन् वे तो समुद्र में पहुँचते ही उसमें बिल्कुल घुल-मिलकर उसके ही रूप की हो जाती हैं। वैसे ही इस वैराग्यवान् की वैराग्य वृत्ति ने अब 'हरिनाम' का शरण ले ली है । यह वृत्ति सब ओर से हटकर व केवल उस नामी की, ज्ञान स्वरूप परमात्मा की बार-बार आवृत्ति या उसका अभ्यास करते-करते ज्ञान कार, परमात्मामय, हो जायगी। वह तो बोध की मूर्ति बन बैठेगी। बोध स्वरूप होते ही वह अपना पहला स्वरूप छोड़ देगी अर्थात् तब वह वृत्ति, वृत्ति ही न रह जायगी । आपने हरि नाम का मतलब अब समझा ? देखी न हरि-नाम की महिमा ! बस इसी प्रकार हरि नाम के आश्रय से अमरता मिल जाती है।
भाई ! यद्यपि नाम-रूप मिथ्या हैं, तथापि इनका असत्य तो लक्ष्य हो ही नहीं सकता ।
जिस चैतन्यदेव में ये कल्पित हैं, वह तो सद्रूप है, कूटस्थ है, भूमा है, जिस प्रकार घर में रखी हुई मणि का प्रकाश किसी झरोखे के द्वारा निकलकर ज़मीन पर पड़े और उस ज़मीन पर पड़े हुए प्रकाश को ही कोई दूर से मणि समझकर दौड़े, तो वह उस नकली मणि ( प्रकाश ) के ही ज़रिये असली मणि को पा जायेगा, क्योंकि उस प्रकाश के पास पहुँचने पर वह उस प्रकाश को झरोखे से निकलता हुआ देखकर, उस झरोखे के अन्दर देखेगा, तो उसे सच्ची मखि दिखलायी देगी। उसी प्रकार यह अंतःकरण की वृत्ति कल्पित नाम-रूप के द्वारा अधिष्ठान ब्रह्म का पता लगा ही लेती है ।
प्रिय पाठकगण ! अब तो आप यह भली भाँति समझ गये होंगे कि वृत्ति क्या है ? और वह क्या-क्या तमाशा करती रहती है? तथा उसके द्वारा जीव का बन्ध और मोक्ष किस प्रकार होता है। यह अखिल द्वैत प्रपञ्च-वृत्ति से ही बना हुआ है, अतएव यह वृत्ति रूप ही है और वृत्ति तो आत्मानन्द की एक लहर (तरंग) है, इसलिये वह वृत्ति आत्मानन्द से भिन्न नहीं हो सकती, तथा आत्मानन्द अनन्त है, अखण्ड है, वह आपका सच्चा स्वरूप हैं, वही आप हैं । ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः !!!



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