सनकादि ने पूछा- ब्रह्मन्! आपका मुख उदास क्यों हो रहा है? आप चिन्तातुर कैसे हैं? इतनी जल्दी-जल्दी आप कहाँ जा रहे हैं? और आप किधर से आ रहे हो? इस समय तो आप उस पुरुष के समान व्याकुल जान पड़ते हैं जिसका सारा धन लुट गया हो; आप जैसे आसक्तिरहित पुरुषोंके लिये यह उचित नहीं है। इसका कारण बताइये।
नारदजी ने कहा- मैं सर्वोत्तम लोक समझकर पृथ्वी में आया था। यहाँ पुष्कर, प्रयाग, काशी, गोदावरी (नासिक), हरिद्वार, कुरुक्षेत्र, श्रीरंग और सेतुबन्ध आदि कई तीर्थो में मैं इधर-उधर विचरता रहा; किन्तु मुझे कहीं भी मनक्षको संतोष देने वाली शान्ति नहीं मिली। इस कथन से नारद जी ने तीर्थ का असली अर्थ बता दिया कि जब मन को शांति, तृप्ति और पूर्णता मिले, वहीं असली तीर्थ है। लोग आजकल तीरँथ तो करके आ जाते हैं किंतु उनके मन का मैल नहीं जाता। कबीर साहब भी इसी को कहते हैं कि शरीर को अच्छे से धो लिया किंतु जिस मन को धोना चाहिए उसमें तो अभी भी मैल भरा है।
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यदि मन को नहीं धोया तो तीर्थ का क्या लाभ? तीर्थ का असली अर्थ ही यही होता है कि जब मन विषयों से हटकर एक परमात्मा में लग जाए, अर्थात शांत, तृप्त और संतुष्ट हो जाए।
आगे नारदजी कहते हैं कि इस समय अधर्म के सहायक कलियुग ने सारी पृथ्वी को पीड़ित कर रखा है। अब यहाँ सत्य, तप, शौच (बाहर-भीतर की पवित्रता), दया, दान आदि कुछ भी नहीं है। बेचारे जीव केवल अपना पेट पालने में लगे हुए हैं; वे असत्यभाषी, आलसी, मन्दबुद्धि, भाग्यहीन, उपद्रवग्रस्त हो गये हैं। जो साधु-संत कहे जाते हैं, वे पूरे पाखण्डी हो गये हैं; देखने में तो वे विरक्त हैं, किन्तु स्त्रीधन आदि सभी का परिग्रह करते हैं। घरों में स्त्रियों का राज्य है, साले सलाहकार बने हुए हैं, लोभ से लोग कन्या विक्रय करते हैं और स्त्री-पुरुषों में कलह मचा रहता है। महात्माओं के आश्रम, तीर्थ और नदियों पर विधर्मियों का अधिकार हो गया है; उन दुष्टों ने बहुत से देवालय भी नष्ट कर दिये हैं। इस समय यहाँ न कोई योगी है न सिद्ध है; न ज्ञानी है और न सत्कर्म करनेवाला ही है। सारे साधन इस समय कलिरूप दावानल से जलकर भस्म हो गये हैं। इस कलियुग में सभी देशवासी बाजारों में अन्न बेचने लगे हैं, ब्राह्मणलोग पैसा लेकर वेद पढ़ाते हैं और स्त्रियाँ वेश्यावृत्ति से निर्वाह करने लगी है।
इस तरह कलियुग के दोष देखता और पृथ्वी पर विचरता हुआ मैं यमुनाजी के तट पर पहुँचा, जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण की अनेकों लीलाएँ हो चुकी हैं।
नारद जी ने कहा कि मुनिवरो ! सुनिये, वहाँ मैंने एक बड़ा आश्चर्य देखा। वहाँ एक युवती स्त्री खिन्न मन से बैठी थी। उसके पास दो वृद्ध पुरुष अचेत अवस्था में पड़े जोर-जोर से साँस ले रहे थे। वह तरुणी उनकी सेवा करती हुई कभी उन्हें चेत कराने का प्रयत्न करती और कभी उनके आगे रोने लगती थी। वह अपने शरीर के रक्षक परमात्मा को दसों दिशाओं में देख रही थी। उसके चारों ओर सैकड़ों स्त्रियाँ उसे पंखा झल रही थीं और बार-बार समझाती जाती थी। दूर से यह सब चरित देखकर मैं 'कुतूहलवश उसके निकट पहुँचा और वह स्त्री दुख से व्याकुल हुई और मुझसे कहा।
युवती ने कहा- अजी महात्माजी ! क्षण भर ठहर जाइये और मेरी चिन्ता को भी नष्ट कर दीजिये। आपका दर्शन तो संसा रके सभी पापों को सर्वथा नष्ट कर देनेवाला है।आपके वचनों से मेरे दुःख को भी बहुत कुछ शान्ति हो जायगी। मनुष्य का जब बड़ा भाग्य होता है, तभी आपके दर्शन हुआ करते हैं। अर्थात बिना हरि की कृपा से सच्चे संत(गुरु) किसी को नहीं मिलते।
नारदजी कहते हैं— तब मैंने उस स्त्री से पूछा- देवि! तुम कौन हो? ये दोनों पुरुष तुम्हारे क्या होते हैं? और तुम्हारी सेवा करती हुई ये स्त्रियाँ कौन है? तुम हमें विस्तार से अपने दुःख का कारण बताओ।
युवती ने कहा- मेरा नाम भक्ति है, ये ज्ञान और वैराग्य नामक मेरे पुत्र है। अर्थात उन्हीं साधकों की भक्ति सिद्ध होती है जिनके पास ज्ञान है और वैराग्य है। बिना ज्ञान और वैराग्य की भगवद् प्राप्ति नहीं होती।
उस युवती (भक्ति) आगे कहा कि समय के फेर से ही ये ऐसे जर्जर हो गये हैं। ये देवियाँ गंगाजी आदि नदियाँ हैं। ये सब मेरी सेवा करने के लिये ही आयी हैं। इस प्रकार साक्षात् देवियों के द्वारा सेवित होने पर भी मुझे सुख-शान्ति नहीं है। तपोधन! अब ध्यान देकर मेरा वृत्तान्त सुनिये। मेरी कथा वैसे तो प्रसिद्ध है, फिर भी उसे सुनकर आप मुझे शान्ति प्रदान करें। मैं द्रविड़ देश में उत्पन्न हुई, कर्णाटक में बढ़ी, कहीं-कहीं महाराष्ट्र में सम्मानित हुई: किन्तु गुजरात में मुझको बुढ़ापे ने आ घेरा। वहाँ घोर कलियुग के प्रभाव से पाखण्डियों ने मुझे अंग भंग कर दिया। चिरकाल तक यह अवस्था रहने के कारण मैं अपने पुत्रों के साथ दुर्बल और निस्तेज हो गयी। अब जब से मैं वृन्दावन आयी, तब से पुनः परम सुन्दरी सुरूपवती नवयुवती हो गयी हूँ, किन्तु सामने पड़े हुए ये दोनों मेरे पुत्र थके-माँदै दुखी हो रहे है। अर्थात वृंदावन जो साधु संत हैं उनके पास अधूरी भक्ति है किंतु ज्ञान और वैराग्य नहीं है। भक्ति है तो किंतु बिना ज्ञान और वैराग्य के भक्ति भी अधूरी है।
अब मैं यह स्थान छोड़कर अन्यत्र जाना चाहती हूँ ॥ ये दोनों बूढ़े हो गये है अर्थात ज्ञान और वैराग्य लोगों में खत्म हो गया है - इसी दुःख से मैं दुःखी हूँ। मैं तरुणी क्यों और ये दोनों मेरे पुत्र बूढ़े क्यों?
अर्थात अंधी भक्ति तो है किंतु ज्ञान और वैराग्य नहीं है। हम तीनों साथ-साथ रहने वाले हैं। अर्थात बिना वैराग्य और ज्ञान के भक्ति संभव ही नहीं है। फिर यह विपरीताता क्यों ? होना तो यह चाहिये कि माता बूढ़ी हो और पुत्र तरुण। इसी से मैं आश्चर्यचकित चित्त से अपनी इस अवस्था पर शोक करती रहती हूँ। आप परम बुद्धिमान् एवं योगनिधि हैं; इसका क्या कारण हो सकता है, बताइये ?
नारदजी ने कहा— साध्वि मैं अपने हृदय में ज्ञानदृष्टि से तुम्हारे सम्पूर्ण दुःखका कारण देखता हूँ, तुम्हें विषाद नहीं करना चाहिये। श्रीहरि तुम्हारा कल्याण करेंगे।
सूतजी कहते हैं— मुनिवर नारदजी ने एक क्षण में ही उसका कारण जानकर नारदजी ने कहा-देवि ! सावधान होकर सुनो। यह दारुण कलियुग है। इसी से इस समय सदाचार, योगमार्ग और तप आदि सभी लुप्त हो गये हैं। लोग शठता और दुष्कर्म में लगकर अघासुर बन रहे हैं। संसार में जहाँ देखो, वहीं सत्पुरुष दुःख से म्लान हैं और दुष्ट सुखी हो रहे हैं। इस समय जिस बुद्धिमान् पुरुष का धैर्य बना रहे, वही बड़ा ज्ञानी या पण्डित है। पृथ्वी क्रमशः प्रतिवर्ष शेषजी के लिये भार रूप होती जा रही है।अब यह छूने योग्य तो क्या देखनेयोग्य भी नहीं रह गयी है और न इसमें कहीं मंगल ही दिखायी देता है। अब किसी को पुत्रों के साथ तुम्हारा दर्शन भी नहीं होता। अर्थात कलयुग की युवा में भक्ति का भाव है और विषय वासना का बाहुल्य है।विषयानुराग के कारण अंधे बने हुए जीवों से उपेक्षित होकर तुम जर्जर हो रही थी अर्थात भक्ति क्षीण हो रही है। वृन्दावन के संयोग से तुम फिर नवीन तरुणी हो गयी हो। अतः यह वृन्दावन धाम धन्य है, जहाँ भक्ति सर्वत्र नृत्य कर रही है। परंतु तुम्हारे इन दोनों पुत्रों का यहाँ कोई ग्राहक नहीं है, इसलिये इनका बुढ़ापा नहीं छूट रहा है। अर्थात वृंदावन में भक्ति तो है किंतु ज्ञान और वैराग्य किसी के पास नहीं है। यहीं इनको कुछ आत्मसुख (भगवत्स्पर्श जनित आनन्द) की प्राप्ति होने के कारण ये सोते से जान पड़ते हैं।
जिस दिन भगवान् श्रीकृष्ण इस भूलोक को छोड़कर अपने परमधाम को पधारे। उसी दिन से यहाँ सम्पूर्ण साधनों में बाधा डालने वाला कलियुग आ गया। दिग्विजय के समय राजा परीक्षित की दृष्टि पड़नेप र कलियुग दीन के समान उनकी शरण में आया। भ्रमर के समान सारग्राही राजा ने यह निश्चय किया कि इसका वध मुझे नहीं करना चाहिये। क्योंकि जो फल तपस्या, योग एवं समाधि से भी नहीं मिलता, कलियुग में वही फल श्रीहरि कीर्तन से ही भलीभाँति मिल जाता है। इस प्रकार सारहीन हो नेपर भी उसे इस एक ही दृष्टि से सारयुक्त देखकर उन्होंने कलियुग में उत्पन्न होनेवाले जीवों के सुख के लिये ही इसे रहने दिया था। इस समय लोगों के कुकर्म में प्रवृत्त होने के कारण सभी वस्तुओं का सार निकल गया है और पृथ्वी के सारे पदार्थ बीजहीन भूसीके समान हो गये हैं। ब्राह्मण केवल अन्न-धनादिके लोभवश घर-घर एवं जन-जन को भागवत की कथा सुनाने लगे हैं, इसलिये कथा का सार चला गया। तीर्थों में नाना प्रकार के अत्यन्त घोर कर्म करनेवाले, नास्तिक और नारकी पुरुष भी रहने लगे हैं; इसलिये तोथका भी प्रभाव जाता रहा। जिनका चित्त निरन्तर काम, क्रोध, महान् लोभ और तृष्णा से तपता रहता है, वे भी तपस्या का ढोंग करने लगे हैं, इसलिये तप का भी सार निकल गया। मन पर काबू न होने के कारण तथा लोभ, दम्भ और पाखण्ड का आश्रय लेने के कारण एवं शास्त्र का अभ्यास न करने से ध्यान योग का फल मिट गया।
पण्डितों की यह दशा है कि वे अपनी स्त्रियों के साथ भैंसों की तरह रमण करते हैं; उनमें संतान पैदा करने की ही कुशलता पायी जाती है, मुक्तिसाधन में वे सर्वथा अकुशल हैं। सम्प्रदायानुसार प्राप्त हुई वैष्णवता भी कहीं देखने में नहीं आती। इस प्रकार जगह-जगह सभी वस्तुओं का सार लुप्त हो गया है। यह तो इस युग का स्वभाव ही है इसमें किसी का दोष नहीं है। इसी से पुण्डरीकाक्ष भगवान् बहुत समीप रहते हुए भी यह सब सह रहे हैं।
भक्ति ने कहा- देवर्षे ! आप धन्य हैं! मेरा बड़ा सौभाग्य था, जो आपका समागम हुआ। संसार में साधुओं का दर्शन ही समस्त सिद्धियों का परम कारण है। आपका केवल एक बार का उपदेश धारण करके प्रह्लाद ने माया पर विजय प्राप्त कर ली थी। ध्रुव ने भी आपकी कृपा से ही ध्रुवपद प्राप्त किया था। आप सर्वमंगलमय और साक्षात् श्री ब्रह्माजी के पुत्र हैं, मैं आपको नमस्कार करती हूँ।
मुनि नारद और देवी भक्ति के बीच इस आध्यात्मिक संवाद का सार यही है कि इस कलयुग में व्याप्त बुराइयों का विरोध करना है।
लेकिन जो आजकल के कथा वाचक हैं अथवा पंडित है ये इसका विरोध नहीं करते इसलिए ये सब पाखंडी और दुराचारी हुए। क्योंकि अगर इन ढोंगियों ने लोगों का विरोध किया तो इनका धंधा बंद हो जाएगा , ये कथावाचक धंधा कर रहे हैं, झूठी कथा लोगों को सुना करके धन अर्जित कर रहे हैं, यह व्यापार चला रहे हैं, इन ढोंगियों ने धर्म को कमाई का जरिया बना लिया है। इनकी कमाई आहत ना हो जाए इसलिए ये लोगों को झूठी कथा सुनाते हैं। धर्म की नाम पर ये लोगों से तरह तरह से कर्मकांड करवा करके लोगों को बेवकूफ बनाते हैं, ताकि इनकी जेबें भरती रहें और इनका जीवन निर्वाह होता रहे। आप इन ढोंगियों के जाल में मत फँसिए। या तो आप स्वयं भागवत महापुराण पढ़ डालिए या फिर आप स्वयं वेदांत , उपनिषद और गीता को पढ़िए और दूसरो तक भी पहुंचाइए। इस साइट से माध्यम से हम लोगों तक वेदांत, उपनिषद और गीता की वाणी को पहुंचाने का प्रयास कर रहे हैं। इस महान और शुभ कार्य में आप भी हमारे साथ खड़े हो जाएँ, सच के प्रचार के लिए इस लेख को अपने सगे, संबंधियों के साथ साझा करें।