जब आपका हृदय अनुराग से भर जाता है। जब आप अपने प्रति प्रेम पूर्ण हो जाते हैं। तब आपको अपनी खराब हालत साफ साफ दिखाई देने लगी हे कि आपकी हालत ठीक नहीं है। तब आप अपने स्वरुप की ओर अग्रसर होते हैं अर्थात आप परमात्मा की खोज में निकलते हैं। परमात्मा आनंद स्वरुप है। वह परमात्मा आपके भीतर भी है किंतु आपने मोह का, अज्ञान का आवरण डाल रखा है इसीलिए आपको परमात्मा दिखाई नहीं देता। फिर आपको भ्रम हो जाता है कि परमात्मा हमसे अलग कहीं दूर आकाश में बैठा है, या किसी मंदिर में बैठा है, या किसी तीर्थ में बैठा है, हालाँकि परमात्मा सर्वत्र है, किंतु जब तक हमारा मन मोह , अज्ञान , आशक्ति से घिरा हुआ है, तब तक वह हमारे दर्शन के लिए नहीं है। जैसे भीतर प्रकाश जल रहा है लेकिन हमने उस पर बाहर से बहुत सारा कचरा लाद दिया हो अज्ञान का , आशक्ति का, अंहकार का। बात आ रही है समझ में? जब तक मोह है, आशक्ति है , अज्ञान है, अहंकार है , तभी तक हम परमात्मा से अलग है। अज्ञान माने अधुरा ज्ञान। अज्ञान का अर्थ है कि हमें दुनिया की लगभग सभी पदार्थों की जानकारी है, केवल हमें यह नहीं पता है कि हम वास्तव में कौन हैं ? और जब हम हमारे बारे में पता नहीं होता है, तब हम अपने आप को कुछ न कुछ मान लेते हैं।
कोई कहता है हम स्त्री हैं , कोई कहता हम पुरुष हैं, कोई कहता है हम ज्ञानी हैं। कोई कहता है हम बुद्धिजीवी हैं। कोई कहता है हम श्रमजीवी है। और जब हमें इस स्थूल शरीर का देहाभिमान हो जाता है, तब यही हमारे दुख का और अवसाद का कारण बनता है और यही अहंकार है। जो हमारा अधूरा अहंकार है कि हमने अपने बारे में कुछ कल्पना कर रखा है और उसी का हमें झूठा अंहकार हो गया है , यह कहलाता है अहंकार। हमने अपने आप को शरीर मान रखा है लेकिन हम शरीर हैं नहीं शरीर तो आवरण है, रहने का मकान है लेकिन फिर भी हम अज्ञान वश स्वयं को शरीर मानते हैं , ये हुआ शरीर का झूठा अहंकार। हमारा वास्तविक स्वरूप यह है कि हम अतृप्त चेतना है, अपूर्ण चेतना है, हमारी हालत ठीक नहीं है। हमें अपना हालत ठीक करना है, हमें पूर्णता प्राप्त करनी है। हमारी हालत ठीक नहीं हैं , हम मोह से, आशक्ति से, लगाव से, देह की झूठे अभिमान से बँधे हुए हैं। चूँकि हमारी हालत अभी ठीक नहीं है, इसलिए हमें अपनी हालत ठीक करनी है, हमें पूर्णता प्राप्त करनी है, हम सत्य प्राप्त करना है। हमारा मन सदैव सत्य के लिए बेचैन रहता है। वैसे तो परमात्मा सर्वत्र है। लेकिन उसकी प्राप्ति के लिए अंत: करण का स्वच्छ होना, शुद्ध होना जरुरी है।
जब तक मन की शुद्धि होगी नहीं तब तक हमारे भीतर मोह , अज्ञान, आशक्ति बनी रहेगी। अगर हमारे भीतर प्रेम नहीं है, अनुराग नहीं है, तब तक हमें कृष्ण मिलने वाले नहीं है। रामचरितमानस में भी कहा गया है कि मिलहिं ना रघुपति बिनु अनुरागा, कीए जोग तप ज्ञान विरागा।
कबीर साहब भी इसी बात को प्रतिपादित करते हैं कि जप माला छापा तिलक , सरय ना एकौ काम ,मन काँचे नाचे व्यृथा , साँचे राचे राम।
परमात्मा तो कण कण में है ही लेकिन हमें निभाना है तो हमें अपने अंतः करण की शुद्धि करनी पड़ेगी और उसके दर्शन के लिए प्रेम चाहिए। रामचरितमानस में भी यही कहा गया है कि हरि व्यापक सर्वत्र समाना, प्रेम ते प्रगट होहिं मैं जाना। यदि हमारा मन विषय भोग में फँसा है, हमारे भीतर प्रेम नहीं है तो श्रीकृष्ण होते हुए भी नहीं दिखेंगे और मिलना तो दूर की बात है। कृष्ण तो उपलब्ध थे दुर्योधन और शकुनि के लिए भी। किंतु मिले केवल अर्जुन को क्योंकि अर्जुन ने निर्णय लिया था उसको पाने का। आप लोग ये शिकायत मत करा करो कृष्ण मिल नहीं रहे। कृष्ण तो सदा उपलब्ध है। समस्या ये नहीं है कि कृष्ण मिल नहीं रहे, समस्या यह है कि तुम कृष्ण को चाहते ही नहीं। कृष्ण माने मुक्ति, कृष्ण माने सत्य , कृष्ण माने आत्मा।
इन दो बातों को ध्यान से समझ लीजिए - श्रेय और प्रेय। प्रेय वह सब चीजें हैं जिससे आप को तत्काल सुख मिल जाता है, जैसे गाड़ी , घर ,रुपया पैसा, पद परतिष्ठा, सम्मान इत्यादि। श्रेय यह है कि कुछ ऐसा मिल जाए जो कभी न बदले, जिसे सत्य , मोक्ष ,परमात्मा, कह लो। आ रही है बात समझ में?
जितना भी उपनिषद और गीता है यह सब श्रेय हैं। श्रेय को यदि पाना है प्रेय को त्यागना पड़ेगा। ठीक? चाहे हम अर्जुन की बात करेंगे तो अर्जुन ने भी कहा था कि हे मधुसूदन! मुझे राज्य तथा सुख नहीं चाहिए, हे गोविंद! मैं आपका शिष्य हूँ। आपकी शरण हूँ। मुझे सँभालिए। हे केशव ! मुझे वह उपदेश दीजिए जिससे मैं परम श्रेय को प्राप्त हो जाऊंगा।
ध्यान दीजिए कि अर्जुन ने कोई प्रेय वस्तु नहीं मांगा कि मुझे राज्य चाहिए , सुख चाहिए, विजय चाहिए, रुपया पैसा चाहिए , स्वर्ग चाहिए। बल्कि उसने कहा कि हे गोविन्द! मुझे ऐसा उपदेश दीजिए जिससे मैं परम श्रेय को प्राप्त हो जाऊं। यदि अर्जुन श्रीकृष्ण से राज्य तथा सुख माँगता, तो गीता अस्तित्व में ही नहीं आती। उसने कहा कि मुझे श्रेय चाहिए। अर्थात चुनाव आपका है। यदि आप कृष्ण को चुनोगे तो कृष्ण मिल जाएंगे और यदि दुनिया की 50 चीजों को चुनोगे तो दुनिया की 50 चीजें मिल जाएगी। दुनिया की 50 चीजें थोड़े समय के लिए सुख दे सकती हैं। लेकिन जब शरीर ही नश्वर है, तब इसके सुख भोग कहाँ तक टिकेंगे? आत्मा ही शाश्वत, सनातन है, यही एक मात्र सत्य है।
यदि आप भगवान गीता को और गहराई से समझना चाहते हैं तो कमेंट में भाग 3 लिखें। तथा हमारे काम को सहयोग देने के लिए बेवसाइट पर दिख रही विज्ञापनों (advertisement) पर क्लिक कीजिए ताकि विज्ञापन से प्राप्त हुई राशि को इस शुभ कार्य में लगा जा सके। जन जन तक वेदांत ,उपनिषद और गीता पहँचाया जा सके।