तपस्या करते करते अर्थात् अनेक प्रकार के कठिन व्रतादि करने से जिनके अन्तःकरण से - रागद्वेषादि दूर हो गये हैं, और पापों का नाश हो गया है, जिनकी चित्त की वृत्तियाँ शान्त हो गई हैं, भोग वासनाओं का भी नाश हो गया है, जो 'जन्म ,मरणादि बन्धनों से मुक्त होकर मोक्ष चाहते हैं। ऐसे पुरुषों के लिये ही यह आत्मबोध नामक ग्रन्थ बनाया गया है।
जो जप ,तप ,कर्म, योगादि मोक्ष के साधन हैं उसमें मोक्ष का मुख्य साधन रूप बोध अर्थात् आत्मज्ञान ही है, जैसे चावन पकाने में बर्तन, लकड़ी, जल इत्यादि की आवश्यकता पड़ती है, किन्तु पकाने में मुख्य कारण अग्नि ही है और जो अन्य कारण हैं, वे सहकारी कारण हैं, इसप्रकार ज्ञान के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। यहाँ श्रुति प्रमाण है जैसे " ज्ञानादेव तु कैवल्यम्" " ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः” अर्थात् ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं होती है। और अन्य जो उपासना आदि कर्म हैं, वे केवल अंतः करण(मन) की शुद्धि के लिये हैं 'जैसा स्मृति में लिखा है कि - " तमसा कल्मषं हन्ति विद्ययाऽमृतमश्नुते ।" अर्थात् तप से अंतःकरण का कल्मष दूर होता है और विद्या से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
कर्म और अविद्या परस्पर एक दूसरे के विरोधी नहीं है इसलिये कर्म अविद्या को दूर करने में किसी तरह समर्थ नहीं है, किन्तु विद्या और अविद्या आपस में एक दूसरे के विरोधी हैं, सुबह जब प्रकाश का उदय होता है तब अंधकार का नाश हो जाता है। उसी तरह विद्या अविद्या को दूर करने में समर्थ है। विद्या जैसे शुद्ध मुक्ति स्वरूप हूँ, यह शुद्ध ज्ञान में सुखी हूँ, मैं दुखी हूँ, इत्यादि विद्या को नष्ट कर देता है।
अखंड सूर्य मंडल मेघमाला अर्थात् बादलों के समूह से अच्छादित हो जाता है तब उसकी 'ज्योति जिस तरह जगह जगह बादलों के छिद्रों में से प्रकाशित होती है और जब धीरे धीरे हट जाता है तब सूर्य मंडल का पूर्ण प्रकाश हो जाता है। इसी तरह जीव इस विद्या रूप देह में घिरा रहता है, तब तक अखंड आत्मतत्व का ज्ञान नहीं होता और जब अविद्या दूर हो जाती है तत्र स्वयं ही प्रकाशवान् ब्रह्मरूप प्रतीत होने लगता है।
जैसे निर्मली बूटी गदले जल कों शुद्ध करके आपभी नष्ट हो जाती है वैसेही ? में कर्ता नहीं हूँ में भोक्ता नहीं हूं में सच्चिदानन्द ब्रह्म हूँ, इस प्रकार का ज्ञान मैं कर्त्ता हूँ, मैं भोक्ता हूँ इस अज्ञान से मलिन जो जीवात्मा है उसको निर्मल करके पाप भी नष्ट हो जाता है।
राग,द्वेष आदि से व्याप्त यह संसार स्वप्न के तुल्य हैं क्योंकि स्पप्न के समय की जो अवस्था है वह स्वप्नकाल में ही सत्य सी दिखती है , किन्तु जब प्रबोध होता है अर्थात् जाग्रत अवस्था का प्रारंभ होता है ,तब आत्मा और ब्रह्म की एकता के ज्ञान के पीछे एक क्षण में असत्य दीखने लगता है। अतएव मिथ्या जगत से आत्मा की अद्वैतता में हानि नहीं हो सकती है।
जैसे जब तक यह ज्ञान नहीं होता है। कि यह नील पृष्ठवा ली त्रिकोणाकार सीपी है तभी तक सीपी का रजत (चांदी) सत्य सा दिखता है, उसी प्रकार जब तक सबके अधिष्ठान से अद्वैत ब्रह्मज्ञान नहीं होता है तभी तक यह संसार सत्य दिखता और उसके पीछे तो मिथ्या ही प्रतीत होने लगती है।
अब दृष्टान्त से इस बात को दृढ करते हैं कि
सम्पूर्ण जगत ब्रह्म में कल्पित है।
सच्चिदानन्द आत्मा अनस्यूत अर्थात् जैसे मणियों में सूत्रं पुहा रहता है और मणि सूत्र में अनुगत है, इस प्रकार सब में नित्य और व्यापक है और जगत की अनेक प्रकार की व्यक्तियां अर्थात देव ,मनुष्य , कीटादि उसमें ऐसे कल्पित हैं जैसे सुवर्ण में कटक कुंडलादि परंतु यथार्थ में सुवर्ण ही सत्य है, इस लिये नाम रूपात्मक मिथ्या है और आत्मा शुद्धस्वरूप है।
जैसे आकाश तो व्यापक रूप है किंतु घट आदि उपाधियों में प्राप्त होने से उसी उपाधि के भेद से घटाकाश इत्यादि प्रतीत होता है। और घटादि पदार्थों के नष्ट होने पर केवल आकाश मात्र शेष रह जाता है उसी प्रकार हृषी केश अर्थात संपूर्ण इंद्रियों का परमात्मा अनेक प्रकार की देहादि उपाधियों में प्राप्त होने से भिन्न भिन्न प्रतीत होता है
किन्तु उपाधियों के नष्ट होने पर केवल एक अद्वितीय असंग ब्रह्म ही रह जाता है।
ऊपर कही हुई अनेक प्रकार की उपाधियों के वश से जाति, नाम , आश्रम आदि आत्मा में रख लिये गये हैं , यथार्थ में नहीं है जैसे जल में कड़वा, मीठा, बिषैला, इत्यादि रस घोल देने से उस जल का स्वाद वैसा ही लगने लगता है और नीला , पीला आदि रंग घोल देने से नीला पीला दिखने लगता है। अतः यह बात केवल दूसरी वस्तु के मिला देने से होती है , परन्तु जल में कोई विकार नहीं है इसका गुण तो यथार्थ में श्वेत और मीठ है , उसी प्रकार अनेक उपाधिगत होने से आत्मा में भी अनेक जाति नाम और आश्रम आदि आरोपित कर लिये गये हैं; वास्तव में जैसे जल निर्मल और शुद्ध हैं वैसे ही आत्मा भी शुद्ध और निर्मल है।
जैसे स्फटिक नीले, पीले, आदि वस्त्रों के संयोग से नीला, पीला आदि रंगों से युक्त प्रतीत होता है,
वास्तव में स्फटिक स्वच्छ सफेद है , इसी तरह आत्मा भी निर्मल और शुद्ध है, वह पंचकोशादि के योग से कोशरूप प्रतीत होता है। पंच कोश ये हैं, यथा:- अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, और आनन्दमय। इन्हीं पांचों कोशों के योग से आत्मा भी ततन्मय तुल्य दिखाई देता है।
(1) अन्नमयकोष - पिता माता के द्वारा भोजन किये हुए अन्न के विकार से समुत्पन्न और अन्न ही के द्वारा परिबर्द्धित जो स्थूल देह है उसी का नाम अन्नमय कोष है। इसी अन्नमय कोष के अभ्यास से मैं स्थूल हूँ, मैं कृप हूँ, आदि शरीर धर्म जीवात्मा में समारोपित जिये जाते हैं।
(2) प्राणमयकोष - देहेन्द्रिय द्वारा चेष्टा साधन प्राण अपानादि पंच वायु तथा पंच कर्म में पंचेन्द्रिय के साथ हस्त पदादि प्राणमय कोष कहलाता है । प्राणमय कोष धर्म के अभ्यास से मैं यह काम करता हूं, मैं इस काम को नहीं करता हूँ, मैं भूखा हूँ, मैं प्यासा हूँ, इत्यादि प्राणधर्म जीवात्मा में समारोपित होते हैं।
(3) मनोमयकोप - आँख, कान, आदि पंच "ज्ञानेन्द्रिय सहित मन को मनोमय कोष कहते हैं इसके द्वारा सन्देह शून्य आत्मा की संशय पूर्णता अध्यास होती है।
(4) विज्ञानमय कोष-पांच ज्ञानेन्द्रियों के साथ बुद्धि को विज्ञानमय कोष कहते हैं, मैं कर्ता हूं, मैं भोक्ता हूं, मैं ज्ञानी हूं मैं मुर्ख हूं, इत्यादि विज्ञानमय प्रतीत होता है।
(5) आनन्दमय कोष – कारण देह अथवा विद्या का दूसरा नाम आनन्दमय कोष है, इस आनन्दमय कोष के कारण ही आमोद शून्य आत्मा के अनेक प्रकार के आमोद आरोपित होते हैं, जैसे मैं सुखी हूँ।
कूटने से जिस तरह धान(चावल निकालने से पहले) के छिलके से दूर होकर भीतर से शुद्ध और निर्मल दाने (चावल)निकल कर ग्रहण किये जाते हैं , उसी तरह विचारयुक्ति के अवघात द्वारा कोष रूप छिलकों से ढकी हुई आत्मा को अलग करके विमल आत्मतत्व की विवेचना की जाती है। यह देह आत्मा नहीं है, यह देह जड़ पदार्थ है अतएव जन्म से पहिले और मरने के पीछे इसका अभाव होता है। ये "प्राण भी आत्मा नहीं है, ये वायु है इसलिये जड़ पदार्थ अवधि है यह मन भी आत्मा नहीं है काम क्रोध आदि वृत्तियों द्वारा इसका विकार घटित है। बुद्धि भी आत्मा नहीं है। क्योंकि सुषुप्ति काल में अपनी कारणगत अविद्या में यह लीनता को प्राप्त हुए देखा जाता है, एवं आनन्दमयकोष रूप यह कारण शरीर भी आत्मा नहीं है। क्योंकि यह समाधि प्राप्त हो जाता है , इसलिये क्षणस्थायी इस पंचकोप से अलग और तद्विपरीत लक्षण विशिष्ट पूर्ण चिदानन्द ही आत्मपद वाच्य है।
आत्मा सर्वदा सब जगह व्याप्त तो है किन्तु सर्वत्र प्रतीत नहीं होता उसका भास केवल निर्मल बुद्धि में ही पड़ता है जैसे घटपटादिको छोड़ 'दुख का प्रतिबिम्ब केवल दर्पण में ही पड़ता है और देखो सूर्य का प्रकाश सर्वत्र है किन्तु उसका प्रतिबिम्ब केवल निर्मल जल में ही पड़ता है, जलरहित चटपटादि में नहीं पड़ता है। इससे यह बात सिद्ध है कि देह आदि रजोगुण के मलीन कार्य ही उनमें आत्मा प्रतीत होता नहीं केवल स्वच्छ बुद्धि में दिखलाई देता है।
अब इस बात को उदाहरण द्वारा वर्णन करते हैं कि देह , इंद्रियाँ , आदि में आत्मा वर्तमान होने पर भी उनसे भिन्नहहै -
जैसे राजा सभा में स्थित होकर संपूर्ण मनुष्यों का साक्षी और प्रेरक है और उनसे भिन्न है, उसी प्रकार आत्मा को भी सर्वदा देह, इन्द्रिय, मन ,बुद्धि और प्रकृति कहिये माया इनसे भिन्न और इन्द्रियादि के तो दर्शन स्पर्शनादि व्यवहार है, उनका साक्षी जानना चाहिये।
ज्ञानी पुरुष इन्दियों के जो धर्म अर्थात अंधत्व बधिरत्व और गमन आदि कर्म है उनको निर्मल (अर्थात् अज्ञानता के कार्य देह, इंद्रिय, नाम, रूप संसार आदिरूपी मलसे रहित ) ऐसे सच्चिदानंदस्वरूप आत्मा में इस प्रकार अज्ञान से आरोपण कर लेते हैं, जैसे निर्मल प्रकाश में नीला, पीला आदि रंगों को मानते हैं, सो यह केवल अज्ञान मात्र है बाकी आत्मा में जन्म, मरण आदि कोई धर्म नहीं है ,ये धर्म तो देह आदि में होते हैं।
जल के जो चलने यादि धर्म हैं, उनको जैसे जल में पड़ा हुआ जो चन्द्रमा का प्रतिबिंब है उसमें कल्पना करते हैं और यथार्थ में चन्द्रमा के विषय में नहीं है।उसी प्रकार अज्ञान से मन की उपाधि अर्थात् अंतः करण के, 'मैं कर्ता हूँ, मैं भोक्ता हूँ" आदि धर्म आत्मा में कल्पना किये जाते हैं परन्तु वास्तव में आत्मा के विषय में कोई कर्तुत्य आदि धर्म नहीं है।
राग ,इच्छा ,सुख,दुख आदि ये संपूर्ण धर्म बुद्धि के हैं , सो जब जाग्रत और स्वप्नावस्था में बुद्धि रहती है, तब ये उत्पन्न होते है और सुषुप्ति अवस्था में बुद्धि का नाश होने पर कोई धर्म प्रवृत्त नहीं होता है इसलिये सब धर्म बुद्धि के ही हैं आत्मा नहीं हैं। कार्य के होने पर कार्य के होने को अन्वय कहते हैं और कार्य के न होने पर कार्य का भी न होना इसको व्यतिरेकी कहते हैं, यहाँ जाग्रत् और स्वप्नावस्था में जब कारणरूप बुद्धि रहती है तब कार्यरूप राग,द्वेष आदि भी होते हैं और सुषुप्ति अवस्था में कारणरूप बुद्धि रहती नहीं हैं क्योंकि अज्ञान में लय हो जाती है इसलिये कार्य रूप राग, द्वेष आदि नहीं होते हैं ,यही व्यतिरेकता है अत एव आत्मा निर्विकार सचिदानन्दस्वरूप है।
जैसे सूर्य का स्वभाव प्रकाश है , जल का स्वभाव शीत है, अग्नि का स्वभाव उष्ण है ,वैसे ही आत्मा का स्वभाव सच्चिदानन्द और नित्य निर्मल है।
~ वेदांत , उपनिषद और गीता प्रचारक - Blissful Folks