यथार्थ प्रेम  
प्रेम का अर्थ यह नहीं है पति पत्नी को खुश रखे और पत्नी पति को खुश रखे। प्रेम का अर्थ बिल्कुल भी यह नहीं है। तुम्हारी भाषा में प्रेम का अर्थ यही होगा कि पत्नी पति को रोटी बनाकर दे और पति रुपए कमा कर पत्नी को साड़ी दे, बाप बेटे को पाल पोषकर बड़ा कर दे और बेटा बाप को बुढ़ापे में दो रोटी दे दे। हम अक्सर इसीको तो प्रेम कहते हैं। लेकिन वास्तव में प्रेम का अर्थ ये बिल्कुल भी नहीं है। प्रेम का अर्थ है कि तुम्हें ऊँचे से ऊँचा कैसे दूँ, तुम्हें आसमान कैसे दूँ ? लकिन जिसको तुम आसमान देना चाहोगे वो तुमको गाली बहुत देगा क्योंकि उसको चाहिए जमीन का छोटा सा टुकड़ा और तुमसे दे रहे हो पूरा आसमान। प्रेम का पार्थिव अर्थ है कि किसी ऐसे कि संगति कर रहे हो जो तुम्हें परमात्मा से मिला दे।
लेकिन हमारा प्रेम ऐसा नहीं होता है क्योंकि हम सब ने प्रेम फिल्मों से सीखा। लड़का लड़की की ओर आकर्षित हो रहा है तुम इसको प्रेम बोल दोगे। माता पिता को पुत्र से मोह है इसको तुम प्रेम बोल दोगे। ये प्रेम नहीं, वासना है, मोह है , अज्ञान है आकर्षण है, आशक्ति है। 
मन जब परमात्मा की ओर माने सत्य की ओर आकर्षित होने लगे तभी समझना कि यही यथार्थ प्रेम है। तुम किसी दूसरे से प्रेम तब करोगे ना जब तुम्हें पहले स्वयं से प्रेम हो। हम स्वयं से प्रेम करते कहाँ हैं?जिससे प्रेम किया जाता है उसको ऊँचा उपहार दिया जाता है। क्योंकि हमें स्वयं से प्रेम नहीं है इसलिए हम अपने आप को ऊंचा उपहार नहीं दे रहे हैं। ऊंचा उपहार माने सत्य, आत्मा, मोक्ष, मुक्ति। हमने स्वयं को दे क्या रखा है? झूठ, आडंबर ,अहंकार, कपट, छल ,माया अपने को दे रखा है। जो स्वयं गड्ढे में गिरा हुआ हो वह क्या दूसरों को गड्ढे से बाहर निकालेगा?  दूसरों को गड्ढे से बाहर निकालने के लिए सबसे पहले स्वयं को गड्ढे से बाहर निकालना होगा। जब हमें स्वयं से ही प्रेम नहीं है तो हम दूसरों से क्या प्रेम करेंगे? प्रेम करना तो दूर की बात है हम सब प्रेम का अर्थ भी नहीं जानते। 
यह जीने का कोई तरीका ही नहीं हुआ कि तुम हमारी इच्छाएं पूरी करो और हम तुम्हारी इच्छाएं पूरी करें। हमारे संबंध में यही तो होता है। यह प्रेम नहीं, यह एक दूसरे की गुलामी है। और दुर्भाग्य की बात है कि जब हमें प्रेम के बारे में नहीं पता होता है तो हम इसी तरह के संबंध को प्रेम का झूठा नाम दे देते हैं। हम इसी को तो प्रेम कहते हैं कि तू मेरा घर चला दे और मैं तेरा खर्चा चला देता हूं। यह कौन सा प्रेम है कि कह रहे हो कि तू मेरे लिए रोटी ला, मैं तेरे लिए साड़ी लाऊंगा। पिता बेटे से कहता है देख मैंने तुझे पाल पोष कर बड़ा किया है ,बुढ़ापे में मेरी सेवा कर। यह प्रेम नहीं, यह तो पारस्परिक समझौता होता है।
अभी एक इंजेक्शन लगा दिया जाए तुम्हें, तुम्हारे हार्मोन शिथिल हो जाएं, तुम तुरंत छोड़ दोगे लड़की के पीछे भागना, यह दिल वगैरह कुछ नहीं है। ये नीचे वाला मामला है। लड़का लड़की की ओर आकर्षित हो रहा है, ये प्रेम नहीं है, पशुता है। नर खरगोश मादा खरगोश की और क्यों जाता है ? ताकि नन्हे-मुन्ने खरगोश आएँ।  यह पूरी बात देह की हैं ,प्रेम की नहीं। प्रेम तो बहुत ऊंची बात है।
एक साफ शब्दों में प्रेम का अर्थ है मुक्ति, परमात्मा। और जो परमात्मा को नहीं जानता, वह प्रेम कैसे जान लेगा? प्रेम मत मांगो, पात्रता पैदा करो।
