मैं चैतन्य हूँ, मैं चैतन्य हूँ, मैं चैतन्य हूँ; जिसे ऐसा निश्चय हो गया है वह जीवनमुक्त कहलाता है ।
इस आत्मा अर्थात् ब्रह्म में लोक, लोक स्वरूप में नहीं हैं । माता, माता रूप में नहीं हैं, पत्नी पत्नी रूप में नहीं हैं, चाण्डाल, चाण्डाल रूप में नहीं है, भील, भील रूप में नहीं हैं, संन्यासी,संन्यासी रूप में नहीं है। आत्म चिन्तन को ही उपनिषदकारों ने ईश्वर की पूजा माना है। आत्म चिन्तन की प्रत्येक क्रिया, उपासना के कर्मकाण्ड का स्थान स्वयमेव ग्रहण कर लेती है। आत्म चिन्तन के आधार पर अपने शुद्ध स्वरूप में अवस्थित होने वाले व्यक्ति की आत्मा दिन-दिन परमात्मा के निकट पहुँचती जाती है। यह स्थिति जब परिपक्क होने लगती है तो शरीर को तुच्छ मानने की अपेक्षा फिर उसे यज्ञ रूप समझना होता है और देह में ही सारे देवताओं अवस्थित देखते हुए उसे देव मन्दिर स्वीकार करना होता है। उपनिषदों की ब्रह्मविद्या के अनुसार उच्च स्थिति का ब्रह्म परायण साधक इसी स्थिति को प्राप्त करता है। उस आत्मा का निरन्तर चिन्तन ही ध्यान है। सभी कर्मों का त्याग वाहन है। निश्चल ज्ञान ही आसन है। उन्मनता पाद्य है। मन का लगाना अर्ध्य है । आत्माराम की दीप्ति आचमन है। अन्त: ज्ञान ही अक्षत है, चित्त का प्रकाश ही पुष्प है। स्थिरता ही प्रदक्षिणा है। सोहम् भाव नमस्कार है। सन्तोष विसर्जन है। यही भाव मोक्ष के इच्छुकों को सिद्धिप्रद है।जब तक जीव का देहाभिमान नष्ट नहीं होता तब तक जैसे अपनी तुच्छता को ही अनुभव करना चाहिए और अहंकार से निरन्तर बचना चाहिए। देह की, बुद्धि की, धन की अपनी विशेषता मानने से व्यक्ति को अहंकार आता है और वही पतन का कारण बनता है। ऐसे अहंकार से बचने और अपने को नम्र, विनयी एवं तुच्छ मानते रहने का भक्ति ग्रन्थो में सर्वत्र वर्णन मिलता है। अपने को देह मानने वाले सामान्य श्रेणी के लोगों के लिए वही मान्यता उचित भी है। किन्तु ब्रह्मविद्या का विद्यार्थी जब आत्म चिन्तन करता और अपने शुद्ध स्वरूप को समझना आरम्भ करता है तब उसका द्वैत विनिष्ट होता है और अद्वैत भाव का प्रकाश मिलता है। उस स्थिति मे उसे आत्मा और परमात्मा की अभिन्नता का बोध होता है और अपने को अपने में ओत-प्रोत देखता है। यह स्थिति जब उपलब्ध होने लगे तो आत्म चिन्तन के समय अपने आत्मा को ब्रह्म की स्थिति मे रखकर तदनुसार भावनाएँ करने एवं मान्यताएं जगाने की आवश्यकता है। ईश्वर के साथ तदात्म्य होने की पूर्ण स्थिति भी यही है। वेदान्त शास्त्रों में इसी स्थिति का मार्गदर्शन है। उपनिषदो में प्रस्तुत ब्रह्मविद्या में ऊँची स्थिति के साधको के लिए आत्म-स्वरूप के चिन्तन का यही मार्ग बताया गया है। "मैं ब्रह्म हूँ" यह मंत्र दृश्य पापों का नाश करता है।साधक के दोषों का नाश करता है। मृत्यु पाश का नाश करता है। द्वैत दुख का नाश करता है, भेद बुद्धि का नाश करता है, चिन्ता के दुखों का नाश करता है, सब व्याधियो का नाश करता है, सब शोको का नाश करता है, काम, क्रोध, चंचलता, कामना और अज्ञानता का नाश करता है। “मै ब्रह्म हॅू” यही मंत्र ज्ञान और आनन्द प्रदान कराता हुआ संसार से छुड़ा देता है; इसमें सन्देह नहीं। मैं अच्युत हूँ, अनित्य हूँ, अजन्मा हूँ, काया से रहित हूँ, अति सूक्ष्म हूँ, अविकारी हूँ, आनन्द अमृत रूप हूँ, उत्तम पुरुष हूँ, अन्धकार से परे हूँ, दिव्यदेव स्वरूप हूँ, बुद्ध हूँ, महीश्वर हूँ, विमुक्त हूँ, विभु हूँ, बैश्वानर हूँ, सब प्राणी मुझ मैं ही निवास करते हैं। मैं केवल परब्रह्म स्वरूप हूँ, परम आनन्द स्वरूप हूँ, केवल ज्ञान रूप हूँ, केवल सत्य रूप हूँ। सदा शुद्ध स्वरूप हूँ। केवल प्रिय स्वरूप हूँ। इच्छाओं से रहित हूँ, निर्दोष हूँ, ज्योति स्वरूप है, चिन्ता रहित है, स्वयं परमगति रूप हूँ। सदा रहूँ मुक्त है, मैं क्या नहीं हूँ? मैं स्वयं स्वयं को ही खाता हूँ, स्वयं, स्वयं के साथ ही खेलता हूँ, स्वयं ही अपना प्रकाश हूँ। मैं मन नहीं हैं। बुद्धि नहीं हूँ, देह नहीं हूँ, कामना नहीं हूँ, मेरा कोई सजातीय नहीं; कोई विजातीय नहीं; संसार में जो कुछ उत्पन्न हुआ है झूठा है, केवल मैं ही सत्य हूँ ।
हृदय को निर्मल करके और अनामय ब्रह्म का चिन्तन करके यह जान लेना चाहिए कि मैं ही सर्वरूप ब्रह्म हूँ; मैं ही परम सुखरूप हूँ।जल में जल डालने से दूध में दूध मिला देने से , घी में घी मिला देने से वे एक रूप हो जाते हैं; उसी प्रकार जीवात्मा और परमात्मा के मिल जाने पर उनमें भी कोई अन्तर नहीं रहता। जब ज्ञान द्वारा देहाभिमान नष्ट हो जाता है और बुद्धि अखण्डाकार हो जाती है तब बुद्धिमान पुरुष ज्ञान रूपी अग्नि में कर्म बन्धनों को भस्मसात कर देता है फिर वह विमल वस्त्र के समान होकर पवित्र और अद्वैत ब्रह्म को प्राप्त करके उसी प्रकार अपने स्वरूप में स्थिति हो जाता है, जैसे जल दूसरे जल में मिल कर अभिन्न हो जाता है। उपनिषदों में जीव को उसका वास्तविक स्वरूप समझाते हुए बार-बार यही कहा गया है कि तू ब्रह्म है, ब्रह्म से अभिन्न है। अपने वास्तविक स्वरूप को समझ और ब्रह्म भावना में निरन्तर निमग्न रह। ऐसे अनेक प्रवचनों में से कुछ इस प्रकार हैं:
" यह शरीर रहित, मरण न कर सकने योग्य और बताये न जा सकने योग्य है। जिसको पाये बिना वाणी मन के साथ पीछे लौट जाती है, जो केवल ज्ञान से प्राप्त किया जा सकता है, जो एक ओर अद्वितीय है, आकारा के समान सर्वव्यापीयन्त सूक्ष्म, निरञ्जन, निष्क्रिय, मात्र सत्य स्वरूप, चैतन्य और आनन्द रूप, एकरस बाला, मङ्गलमय अति शांत और अमर है। वह परब्रह्म है। वही तू है।"भोजन को औषधि की दृष्टि से अर्थात् केवल प्राण रक्षा के लिए लेवे आहार ऐसा लें जिससे चर्बी न बढ़े शरीर दुबला ही रहे। "एक ही स्थान से भिक्षा न करें चाहे वह बृहस्पति के समान ही पूज्य क्यों न हो सन्यासी के लिए घी।" कुत्ते के मूत्र के समान है, शहद शराब के तुल्य है। तेल शूकर के मूत्र के समान है। दूध नर मूत्र के समान है। इसलिए उसे सदैव घृत आदि रहित भोजन ही प्रयत्नपूर्वक ग्रहण करना चाहिए। घी आदि के पकवान कभी न खाय। घी को रुधिर के समान, एकत्र किये हुए अन्न को मांस के समान त्याग दे। गंधलेपन को गंदी वस्तु के समान, हंसी मजाक और घमंड को गोमांस के समान, परिचित घर की भिक्षा को चाण्डाल के समान, श्री को सर्पिणी के समान, धन को कालकूट के समान और सभा आदि को श्मशान के तुल्य त्याग दे।
"भोजन को औषधि समान करें। जैसे औषधि अल्प मात्रा में ली जाती है वैसे ही अल्पाहार करें, जो कुछ प्राप्त हो। आप उसी को पाकर सन्तोष करे।
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