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𝗟𝗮𝗻𝗴𝘂𝗮𝗴𝗲

वेदांत , उपनिषद और गीता प्रचारक

कहत कबीर सुनो भई साधो 2.0

गुरु कबीर की वाणी का गहरा अर्थ

कबीर साहब गुरु का बखान करते हुए कहते हैं कि मेरे गुरु ने मुझे राम नाम का अनमोल हीरा दे दिया है, मेरे पास इस राम नाम रूपी अनमोल हीरे के सिवाय दूसरा कुछ अनमोल चीज नहीं है जो मैं गुरु को दक्षिणा के रूप में दूँ। आगे कहते हैं सद्गुरु की महिमा का वर्णन नहीं हो सकता, सद्गुरु ने जितना हम पर उपकार किया है वो शब्दों में कहा नहीं जा सकता। जिस सद्गुरु के सानिध्य में मैं आनंदित हो गया, उस सद्गुरु पर मैं अपने आप को बार-बार न्यौछावर करता हूँ। कबीर साहब आगे कहते हैं कि जो मनुष्य विषयों में विचरता है, केवल शरीर के लिए पचता है, वह भले ही थोड़े समय के लिए प्रसन्नचित हो सकता है, लेकिन अंत में सब कुछ नष्ट हो जायेगा, जब शरीर ही नश्वर है तो इसके सुख भोग कहाँ तक साथ देंगे? आगे कबीर साहब कलयुग के ढोंगी गुरुओं के बारे में बताते हैं कि जैसे पीतल के बर्तन में खटाई रखने से वह दूषित हो जाता है, ठीक उसी प्रकार कलयुग के गुरुओं में लोभ बढ़ने के कारण उनमें विकार आ गया है। कलयुग के साधु केवल समाज से सम्मान पाने के लिए घूमते रहते हैं। कबीर साहब बोलते है कि आज के कलयुग में सच्चा गुरु मिलना बहुत ही कठिन है। आज समाज में उन्हीं ढोंगी, लालची और पाखंडी गुरुओं का सम्मान हो रहा है।
जिस प्रकार तोता चतुराई रटते रटते तोता चतुर हो जाता है, लेकिन फिर भी पिजड़ें में कैद रहता है, ठीक उसी प्रकार आज का लालची गुरु दूसरों को तो बहुत उपदेश देता है किंतु स्वयं कभी उपदेशों को अपने जीवन में नहीं उतारता है। राम राम तो मुँह रट रहा है, किंतु राम के चरित्र का अपने जीवन में कभी आचरण नहीं किया। राम जैसा जीवन कभी नहीं जिया पर राम-राम रटता रह गया। धर्म का वास्तविक अर्थ है कि जीवन में जितना बोझ और बंधन है उनसे मुक्ति मिल जाए, मन तृप्त हो जाये, मन शांत हो जाए। मन कभी इधर भागता है, कभी उधर भागता है, मन जहाँ भी जाता है, ठोकेरें ही पाता है। मन तृप्त नहीं रहता इसलिए बेचेन रहता है। कबीर साहब कहते हैं कि इस मन को मैंने हरि के प्रेम का रस छक कर पिला दिया है , अब कोई भी रस पीना बाकी नहीं है। जिस परमात्मा की हमें चाह है, जब वह अविनाशी ,निर्गुण, निराकार परमात्मा प्राप्त हो जाए तो कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता। क्योंकि निर्गुण निराकार परमात्मा के आगे कोई सत्ता ही नहीं है जिसकी हमें चाह हो। परमात्मा प्राप्ति के साथ ही सारी इच्छाएँ ही नष्ट हो जाती है। जैसे पके हुए घड़े को कुंभार दोबारा नहीं बना सकता। ठीक इसी प्रकार एकमात्र सत्य परमात्मा की प्राप्ति के पश्चात सारी इच्छाएं नष्ट हो जाती हैं, मन संतुष्ट हो जाता है ,मन हो जाता है, मन शांत हो जाता है। परमात्मा प्राप्ति के साथ ही संसार बंधन अर्थात जन्म मरण से मुक्ति मिल जाती है।



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