गुरु कबीर जी कहते हैं - हरि नाम का स्मरण ही भक्ति है। अर्थात जो सर्वस्व का हरण करने वाला हरि है उसका निरंतर स्मरण ही वास्तविक भक्ति है। यह स्मरण मन से, वचन से और कर्म से होना चाहिए। प्रारंभिक साधक को वाणी से निरंतर हरि नाम का स्मरण करना चाहिए, वाणी से जपते जपते थोड़ी परिपक्व अवस्था आ जाने पर मन से हरि नाम का स्मरण करना चाहिए। मन से भजते भजते जब सुरत लग जाएगी तब स्वास ढल जाएगा। बाहरी कर्मकांड बढ़ा लेने से केवल दिखावा होता है भक्ति नहीं। बाहरी माला जप करने से तिलक लगाने से कुछ नहीं होगा, क्योंकि जिस मन को भजन में बैठना चाहिए वह तो हवा से बातें कर रहा है। मन बड़ा चंचल है, यह सब कुछ चाहता केवल भजन नहीं चाहता। जहां भी मन जाए उसको विषयों से घसीटकर आराधना और चिंतन में लगाएं। क्योंकि यदि हम राम को नहीं भजेंगे तुम काम को भजना शुरू कर देगा, बार-बार विषय भोगों की तरफ जाएगा। विषयों से विरक्ति में ही आनंद है, मन विषय में ना जाए, इसलिए जरुरी है कि हम निरंतर राम का स्मरण करते रहें। मन से राम को निरंतर जपते जपते ऐसी स्थिति आ जानी चाहिए कि रोम रोम में राम रम जाएँ। राम जपते जपते जीवन ही राममय हो जाए कि कहीं भी देखें तो राम ही नजर आएँ।गुरु कबीर कहते हैं कि हे भोले जीव! कब तक अज्ञान की निद्रा में सोते रहोगे? ज्ञान द्वारा जागो और जिस अविनाशी राम से बिछुड़ गए हो उसी अविनाशी राम की ओर भागो। जिसकी हृदय में उस अविनाशी निराकार राम के लिए प्रेम न हो ,अनुराग ना हो, उसका जीवन ही बेकार है। गुरु कबीर समस्त मानव समाज को धिक्कारते हुए कहते हैं कि जिसके हृदय में परम के लिए प्रेम नहीं वह इस दुनिया में जैसे रोते हुए आया था वैसे ही चला जाएगा। अर्थात उसका जीवन निरर्थक है। जो मनुष्य प्रियतम राम (निर्गुण निराकार ब्रह्म अथवा परमात्मा) को छोड़कर अन्य देवी देवताओं की पूजा करता है वह मूढ़ बुद्धि है और पापायु है, वह व्यर्थ रही जीता है। कबीर साहब कहते हैं कि साधक को चाहिए कि शरीर रहते ही वह उस अविनाशी ,निर्गुण, निराकार, ब्रह्म की उपासना करके उसमें स्थित हो जाए, यही साधक का धर्म है। क्योंकि यह शरीर उसे कुछ सीमित समय के लिए ही दिया गया है। अतः शरीर का उपयोग करके वह उस अविनाशी, निराकार, ब्रह्म की उपासना करके उसमें स्थित हो जाए। साधक को चाहिए कि वह मन में काम को ना भजकर , विषय भोगों को ना भजकर उस निर्गुण निराकार राम को भजना चाहिए, इससे साधक का कल्याण होगा। ये मन अविनाशी राम से बिछुड़ चुका है, इसीलिए हम मन हमेशा भागता रहता है, पगलाया रहता है, स्थिर नहीं रहता है।अविनाशी राम का वियोग मन को काले नाग की तरह बार-बार डस रहा है।
कबीर साहब जी निराकार राम के वियोग का वर्णन करते हुए कहते हैं कि जैसे मछली बिना पानी के तड़पती रहती है ठीक वैसे ही यह मेरा मन बिना अविनाशी राम के तड़पता रहता है। आगे कहते हैं कि सारा संसार भी बेहोशी में खाता है और सोता है और सुखी सा प्रतीत होता है लेकिन वास्तव में सुखी है नहीं अपितु बेहोश है। और मैं होश में आ कर उस अविनाशी राम के वियोग में रोता रहता हूं। साधक द्वारा अविनाशी राम का निरंतर जप करते-करते धीरे-धीरे उस अविनाशी राम अर्थात ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाता है। लेकिन कैसे पता करें कि अविनाशी राम का साक्षात्कार हो गया है इस पर गुरु कबीर जी कहते हैं कि जब मेरे अंदर अहंकार था कि ' मैं हूं' तब तक हरि सर्वत्र होते हुए भी मुझे नहीं दिख रहे थे, और मेरे अहंकार की मिटते ही वह हरि मुझे सर्वत्र दिखने लगा। जब तक मेरे भीतर अज्ञान रुपी अंधकार था तब तक प्रकाश रुपी राम नहीं दिख रहा था क्योंकि अंधकार और प्रकाश एक दूसरे के विरोधी है, ज्ञान और अज्ञान एक दूसरे के विरोधी हैं। अज्ञान रुपी अंधकार मिटते ही प्रकाश रुपी ज्ञान हृदय में प्रकाशित हो गया। अर्थात पूजा बाहर नहीं होती। आजकल बाहरी पूजा और कर्मकांड धर्म के नाम पर प्रचलित है, किंतु गुरु कबीर ने इसका खंडन करते हुए कहा कि पूजा बाहर नहीं होती, भीतर ही पूजा होती है।अविनाशी राम की अनुभूति करने पर कबीर साहब जी कहते हैं कि मैं उस अविनाशी राम के बारे में शब्दों में कुछ कहने में असमर्थ हूँ। अर्थात वह अविनाशी राम अनिर्वचनिय है अर्थात उसे वाणी से नहीं कहा जा सकता। यहां पर जितनी धारवी अविनाशी राम का प्रयोग किया गया है उसका आशय परमात्मा, ब्रह्म ,निर्गुण, निराकार , एकमात्र सत्य, सनातन ब्रह्म से है। सर्वस्व का हरण करने वाले हरि का वर्णन असंभव है। इसी को तुलसी दास जी कहते हैं हरि अनंत हरि कथा अनंता। अब कबीर साहब सच्चे साधु के लक्षण बताते हुए कहते हैं कि उसको साधु मत मान लेना जो माथे पर भभूती रमाये और तन पर भगवा वस्त्र चढ़ाये घूमता हो। सज्जनों को पाखंडी गुरुओं की मीठी बातों में ना फँस कर पहले उसकी जांच पड़ताल करनी चाहिए, नहीं तो वह अपने साथ साधक को भी ले डूबेगा। कबीर साहब कहते हैं कि सच्चे साधु की संगति कभी असफल नहीं होती, इसीलिए सच्चे साधु की संगति जल्दी से जल्दी कर लेना चाहिए, क्योंकि समय बहुत कम है। कबीर साहब जी कहते हैं की चाहे जितना तीर्थ यात्रा कर लो, बिना सच्चे गुरु के ज्ञान के ना तो मुक्ति संभव है और ना ही भगवद प्राप्ति।
कबीर साहब की इसी बोध वाणी के साथ आपसे विदा लेते हैं। आपसे मुलाकात अगले भाग में होगी। ओम शांति शांति शांति