तुम अपने आप को देह कहना चाहते हो, देह में तो मल, मूत्र, मवाद , पित्त ,रज, और गंदगी भरी हुई है। देह को वाहन और साधन न समझ कर उसे ही अपना आपा मान लेने के कारण मनुष्य देह को सुखी और सम्पन्न बनाने में इतना तन्मय हो जाता है कि वह अपने वास्तिक लक्ष्य को भूल जाता है, कि वह कौन है? और उसे क्या करना है? और मानव जीवन जैसे अमूल्य अवसर को यूँ ही गवाँ देता है। ब्रह्मविद्या के शिक्षण से देह और आत्मा का भेद समझना चाहिए और इस भावना को पुष्ट करना है कि देह के लाभ एवं सुखों को, चेतना के लाभ एवं सुखों से अधिक महत्व न दिया जाय। इस सम्बन्ध में उपनिषदों में जो महत्वपूर्ण चर्चा की गई, है उसकी एक झांकी नीचे के कुछ उदाहरणों से की जा सकती।
"ये शरीर व्याधियों का घर है, कान से खुरेद निकलता है, आँख से कीचड़ निकलता है, शरीर से बदबूदार पसीना निकलता है। इस शरीर को क्या महत्व देना जिसके ठीक पीछे मल , मूत्र , मवाद भरे हैं। घृणित वीर्य और रज से इसकी उत्पत्ति हुई है। किसी दिन यूँ ही नष्ट हो जाने वाला है। ऐसी घृणित देह में भी यदि कोई मूर्ख मनुष्य प्रेम करता है तो वह नरक से प्रेम करने वाला ही होगा।"
अरे इस तुच्छ शरीर से क्या चुम्मा चाटी करना? , इसके ठीक पीछे मल,मवाद,माँस, मूत्र, रज और गंदगी भरी हुई है।
बाहर से केवल पतली सी चमड़ी की चादर भर चढ़ी है। जिन्होंने शरीर के दम पर ही प्रसिद्धि पाई है। उन फिल्मी सितारों की जवानी की और बुढ़ापे की तस्वीर एक देख साथ देख लो, देह से मुक्त होने का अच्छा उपाय है। 2 दिन नहाओ नहीं तो शरीर से बदबू आने लगती है, मर जाओगे तो उसके दो घंटे बाद शरीर सड़ने लगती है, ज्यादा देर तक मृत शरीर को फूंका नहीं गया, तो बदबू और बीमारी फैल जाएगी, दो दिन पुराना मुर्दा देखा है ? कैसा हो जाता है? कीड़े पड़ जाते हैं, बदबू उठने लगती है। ये है इस देह की औकात। मैं गंदा रहने को नहीं बोल रहा हूं, मैं सिर्फ पूछ रहा हूं कि जितना समय इस शरीर को सजाने में लगाते हो वो इस पर जाना चाहिए या जीवन का कोई और ऊंचा उद्देश होना चाहिए? जवानी में तो गाल भरा हुआ था। थोड़ा बुढ़ापा आया ही कि गाल पर झुर्रियां पड़नी शुरू हो गई। शरीर अनित्य है, क्षणभंगुर है, नाशवान है, ये तो यूँ ही संयोगवस मिल गया था, यूँ हीं छिन भी जाएगा। बारिश की समय में जब केचुए के शरीर पर तुम्हारा पैर पड़ता है, तो केचुए का क्या हाल होता है? यह हाल होना है इस शरीर का। शरीर मिला है तो एक दिन छूट भी जाएगा परंतु उससे पहले हमें शरीर का सदुपयोग कर लेना है।
माता पिता के मल, मूत्र से बना हुआ, जन्म मरण वाली, सुख-दुख का स्थान रूप और अपवित्र ऐसे इस शरीर को छू शकर स्नान करना चाहिए।
सात धातुओं से बने, महारोग वाले, पाप के घर के सदृश, अस्थिर, विकारों की खानों से भरे हुए ऐसे इस शरीर को छूकर स्नान करना चाहिए। आँख कान आदि नौ दरवाजों द्वारा जिसमें से हमेशा मल निकलता रहता है और इस मल की दुर्गन्ध से जो भरा रहता है ऐसे इस दुष्ट मलिन शरीर को छूकर स्नान करना चाहिए। बड़े-बड़े समुद्र सूख जाते हैं, पर्वत टूट-फूट जाते हैं, पृथ्वी डूब जाती है, देवता भी स्थिर नहीं रहते, ऐसे नाशवान संसार में विषय भोगों को लेकर क्या किया जाय? अन्धेरे कुएं में मेंढक की तरह पड़े हुए मेरे जीव का उद्धार कीजिए। हे भगवन् ! घृणित मैथुन से उत्पन्न हुआ यह अपवित्र शरीर यदि आत्मज्ञान से रहित हो तो इसे नरक ही समझना चाहिए। यह देह मूत्र द्वार से निकला है, हड्डियों से चिना है, मांस से लिपा है, चमड़े से है और विष्ठा मूत्र, वात, पित्त, कफ, मज्जा, मेद आदि मलों से भरा है। ऐसे शरीर में रहने वाले मुझ जीव को कल्याण मार्ग बताइए और शरण दीजिए।
उपरोक्त अभिवचनों में शरीर की नश्वरता और तुच्छता का प्रतिपादन किया गया है ताकि मनुष्यों की देह-सुख की 'ओर अत्यधिक झुकी हुई प्रवृत्ति पर अंकुश लगे और वह इसकी तुच्छता और चेतना की महत्ता की तुलना करके आत्मलाभ के लिए प्रयत्नशील हो।
कुटुम्बियों के मोह संबंध, स्त्रियों के प्रति काम दृष्टि होने के कारण भी मनुष्य अनेक दुष्कर्म करते देखे गये है। इस आकर्षण एवं मोह में व्यक्ति अनुचित रूप से ग्रसित न हो, इसलिए उपनिषदकारो ने स्त्रियों में काम बुद्धि, रखने और कुटुम्बियों के लिए कर्तव्य बुद्धि तक ही सीमित न रहने की मोहग्रस्तता का निषेध किया है। इस संबध मे कुछ अभिवचन इस प्रकार मिलते है।
माँस की बनी हुई इस 'चलती-फिरती पिटारी रूपी स्त्री के शरीर मे नस हड्डिया और ग्रन्थिया ही भरी है। भला उसमे भी क्या सुन्दरता है? जरा इसकी चमड़ी, माँस, खून, आँख आदि को अलग करके तो देखो इनमे से क्या सुन्दर है?, ये काढे़ हुए बाल, ये कजराली आँखे भयानक अग्नि शिखा की तरह है, वे मनुष्य को तिनके के समान जला देती है। देखने में सुन्दर होते हुए भी वे नरक रूपी अग्नि की लकड़िया है। कामदेव रूपी बहेलिये ने मनुष्य रूपी पक्षियों को फंसाने के लिए यह स्त्री रूपी जाल पाश फैलाया है। इन दुखों की श्रृंखला रूप नारियों से तो भगवान ही बचावे।
शरीर संबंध सम्पत्ति कीर्ति आदि की चिन्ता जितनी मात्रा में की जाती है उससे अधिक चेतना की चिन्ता की जानी चाहिए, क्योंकि उसका महत्व इन सब से अधिक है। उपनिषदों में आत्म चिन्तन के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण मार्ग दर्शन हुआ है ।
आत्मा के आनन्द को जानकर ज्ञानी पुरुष मुक्त बन जाते हैं। दूध में घी के समान सर्वत्र व्याप्त आत्मा, ज्ञान और तप द्वारा प्राप्त किया जाता है। यह आत्मा ही ब्रह्म है - यही परमपद है।
"मैं देह हूँ," ऐसा संकल्प ही संसार कहलाता है, ऐसा संकल्प ही बन्धन है, यही दुख है, यही नरक है, इसी को हृदयं की गांठ कहते हैं, यही अज्ञान है। यही पाप है। यही तृष्णा है।