आँख, कान यादि नौ दर्शानों द्वारा जिसमें से हमेशा मल निकलता रहता है और इस मल की दुर्गन्ध से जो भरा रहता है, ऐसे इस दुष्ट मनिन शरीर को छू कर स्नान करना चाहिये ।। ५ ।। माता के सूतक से सम्बन्धित होने के कारण मनुष्य के साथ ही सुतक भी जन्म लेता है और मरण का सूतक भी इसके साथ लगा रहता है, इस लिये इस शरीर को छू कर स्नान करना चाहिये।मल, मूत्र, दुर्गन्ध आदि को शुद्धि तो मिट्टी, जल यादि से होती है, परन्तु यह तो लोकिक शुद्धि है। वास्तविक पवित्रता तो "मैं मोर मेरा" को त्याग करने से ही होती है।पवित्रता चित्त को शुद्ध बनाती है और वासनाओं का नाश करता है। पर ज्ञान रूप मिट्टी और वैराग्य रूप जल से धोने के द्वारा जो पवित्रता होती है, वही वास्तविक पवित्रता है ॥ ६ ॥ अत की भावना, यही सभी भिक्षावृति है और मत की भावना, यही प्रभध्य वस्तु है, भिक्षु को गुरु और शास्त्र के आदेशनुसार भिक्षा मांगनी
जैसे चोर कैदखाने से छूट कर दूर जाकर बसता है, वैसे ही ज्ञानी पुरुष को संन्यास लेकर अपने देश से दूर निवास करना चाहिये ।। ११ ।। अहङ्कार रूप पुत्र को धन रूप भाई को मोह रूप घर को और आशा रूप पत्नी को छोड़ देने वाला तुरन्त ही मुक्त हो जाता है, इसमें सन्देह नहीं ।। १२ ।। मोह रूप मां मर गई है और ज्ञान रूप पुत्र उत्पन्न हुआ है, इस लिये मरण और जन्म के दो सूतक लगे हुये हैं, तो फिर संन्ध्या वन्दन आदि कर्म किस प्रकार किये जा सकते हैं? हृदय रूप प्रकाश में चैतन्य रूप सूर्य हमेशा प्रकाशित रहता है और वह अस्त भी नहीं होता और उदय भी नही होता, तो फिर सन्ध्या किस प्रकार करनी? यहाँ सब कुछ एक ही है, दूसरा कुछ भी नहीं है, ऐसा गुरु के उपदेश द्वारा निश्चय हो गया है, यही भावना एकान्त स्वरूप है, मठ या वन का मध्य भाग एकान्त नहीं है।
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