जब ईश्वर पूर्व कल्प के जीवों के कर्मानुसार अपनी मायावृत्ति के द्वारा नाम-रूपात्मक जगत् को रचकर तैयार कर देता है, तब उस जगत् की वस्तुओं में जीव सत्य तथा आनन्द की बुद्धि करने लगता है । कूटस्थ चेतन में पहले-पहल बुद्धि की कल्पना होती है, फिर उस बुद्धि में कूटस्थ का प्रतिबिम्ब पड़ता है, प्रतिबिम्ब के पड़ते ही उसमें प्राण-शक्ति प्रकट हो जाती है; बस, यही जीव कहलाने लगता है यही कारण है कि जिनमें अन्तःकरण नहीं रहता, ऐसे मिट्टी, पाषाणादि पदार्थों में चेतन तो रहता है, परन्तु उनमें जीव नहीं रहता। पूर्वोक्त प्रतिबिम्बित बुद्धि और प्राणादि से कूटस्थ इस तरह ढक जाता है, जैसे जल बर्फ से या सूत्र कपड़े से अथवा जैसे अध्यस्त रजत से सीपी छिप जाती है। इस प्रकार ढका हुआ कूटस्थ आत्मा अपने को वैसे ही भूल जाता है, जैसे कोई ब्राह्मण मदिरा पीकर भ्रान्त होकर अपने को शूद्र मानने लगता है, अथवा जैसे कोई चक्रवर्ती राजा अपने को स्वप्न में भिक्षा माँगते हुए देखने लगता है। फिर तो कहना ही क्या है, वह कूटस्थ मोह तथा भ्रम से ग्रसित होकर अपने को दुखी और अल्पज्ञ जीव मानने लगता है, तथा सांसारिक पदार्थों में सुख को टटोलने लगता है; फिर उन पदार्थों में अनुकूल तथा प्रतिकूल बुद्धि करके राग-द्वेष की सृष्टि करने लगता है। जब किसी पदार्थ को अनुकूल मानकर वह उसकी प्राप्ति के निमित्त प्रयत्न करता है और उसमें जब कोई बाधा डाल देता है, तब तो उसके हृदय में क्रोध अग्नि भड़क उठती है, वह जल-भुनकर राख हो जाता है।
आह! उस क्रोध अग्नि से उसकी छाती कैसी जलती होगी? बेचारा बड़ा कष्ट सहता होगा। किन्तु यदि उसे उसकी इच्छित वस्तु मिल जाती है, तब तो वह प्रसन्न हो जाता है। पाठकगण! आप जानते हैं कि वह क्यों प्रसन्न हो जाता है ? उस वस्तु से थोड़ी देर के लिये उसे क्यों सुख मिल जाता है? क्या उस वस्तु में आनन्द रखा रहता है? क्या उसे उस चीज़ से आनन्द मिलता है ? नहीं, नहीं, कदापि नहीं | सच बात तो यह है कि वह जिस पदार्थ का इच्छुक था, जिसके लिये वह प्रयत्न में लगा था, उस प्रिय वस्तु के पाते ही उसकी चित्तवृत्ति थोड़ी देर के लिये अन्तर्मुख हो गयी, एकाग्र हो गयी या ये कहिये कि उस काल में उसकी चित्त वृत्ति बाहरी पदार्थो को बिलकुल भूल गयी, यहाँ तक कि उसे अपने स्थूल शरीर का भी भान न रह गया; बस इस प्रकार की अन्तर्मुखी वृत्ति में हो उस पुरुष के आनन्द-स्वरूप कूटस्थ का प्रतिबिम्ब आभास पड़ा, उस आनन्द आभास के पड़ते ही उसकी चित्त वृत्ति सुखाकार हो गयी, तब वह जीव सुख का अनुभव या उपभोग करने लगा। अज्ञान तथा भ्रम के कीचड़ में फँसे हुये बेचारे जीव को यह खबर ही कहाँ कि यह सुख मेरे ही स्वरूप से आ रहा है। वह जानता है कि यह आनन्द मुझे इस चीज़ से ही मिल रहा है। उस समय उसकी दशा ठीक वैसी ही हो जाती है, जैसी उस मृग की होती है; जो अपनी ही नाभि की कस्तूरी के गंध का पा-पाकर जगंल की घासों में उसकी खोज करता फिरता है।
जब अन्तर्मुखी वृत्ति बहिर्मुखी हो जाती है अर्थात् अन्तःकरण से बाहर निकल कर किसी दूसरे पदार्थ में सुख ढूँढने लगती है, तब वह आभ्यन्तरिक सुख हाथ से निकल जाता है और जीव दुःखी हो जाता है। नींद से उठा हुआ पुरुष भी थोड़ी देर तक सुख का अनुभव कर ही लेता है, यह क्यों? इसीलिये कि वह सुषुप्ति से उठा है; उस सुषुप्ति में सृष्टि लय हो जाने से अत्यन्त अन्तर्मुखी वृत्ति के द्वारा उसने निजानन्द-रस का पान किया था, वही सुख-संस्कार अब भी (सोकर उठने पर) बना है। क्या यह सुषुप्ति सुख पदार्थ -जनित है? कभी नहीं, वहाँ सांसारिक पदार्थों की गंध भी नहीं है ।
यह सभी जानते हैं कि जिस समय किसी को कोई चिंता नहीं रहती और कुछ काम भी नहीं रहता है, उस समय वह सुखपूर्वक बैठा हुआ प्रसन्नता से सुशोभित होता है वह सुख या वह प्रसन्नता क्या उसे किसी पदार्थ से है? जी नहीं, उस समय तो तृष्णा तथा चिंता के अभाव के हो जाने से चित्तवृत्ति अन्तर्मुख होकर आत्मानन्द का भोग कर रही है। इसीलिये भाइयो ! ईश्वर-रचित संसार या सांसारिक पदार्थ तुम्हें सुख नहीं दे सकते, सुख तो अपने आप में ही है, तुम्हारे अन्तस्थल में सुख का सागर उमड़ रहा है, आनन्द लहरा रहा है, परन्तु वह कामना की यवनिका (काई) से ढका हुआ है, अज्ञान की ओट में छिपा हुआ है, अतएव अपनी सारी कामनाओं का अंतः करण से निकाल कर फेंक दो, उन्हें हटा दो, तृष्णाओं का दूर कर दो, आवश्यकताओं को फूंक दो और अपने को पहचान लो तब देखो तुम सुखमय हो जाते हो या नहीं।हे जीव! तेरी ही सृष्टि तुझे दुःख भी दे रही है, अर्थात् जब तेरी चित्तवृत्ति किसी वस्तु का प्रतिकूल मान कर उससे द्वेष कर लेती है, तब तो वह वस्तु तेरे चित्त में निवास करने लगती है; वह तो नहीं, अपितु तू ही अपने मन में एक वैसी ही चीज़ रच लेता है, और उससे रात-दिन जला करता है। जब वह प्रतिकूल पदार्थ कभी बाहर मिल जाता है, तब तो तू अपने हृदय की रची हुई वस्तु को नेत्रों के द्वारा उस पर छोड़ता है अर्थात् उस बाहर के पदार्थ में प्रतिकूलता या द्वेष की दृष्टि करता है। परिणाम में उस पदार्थ से संतापित होता है, दुखी होता है, तुझे जलन पैदा होती है। प्यारे ! तनिक विचारों तो सही, वह ईश्वर की बनायी हुई चीज़ क्या सत्य ही तुझे मारती है? या वह तुझसे द्वेष करने आती है? थोड़ा ध्यान तो दो, उसका दोष ही क्या है? क्या उस ईश्वर या ईश्वर - रचित पदार्थं ने तुझसे यह कहा है कि तू मुझसे द्वेष कर ? यदि नहीं करता, तो तुझे बाँध रखूँगा या मारूँगा ? अथवा कोई और ही दण्ड दूँगा। भाई ! जब यही बात नहीं है तो बेवजह अपने-आप क्यों दु:ख का काम करता है? आप ही अपने ही लिये क्यों बन्धन तैयार करता है ? जब से तू संसार में सुख-दुःख मानने लगा, राग-द्वेष की सृष्टि करने लगा, तभी से तू अपने आप को भूलकर शान्ति, आराम तथा विश्राम को खो बैठा।
मेरे आत्मन् ! तुम संसार को देखकर दुःखी मत हो।इसने न तो तुम्हारा कुछ बिगाड़ा है और न बिगाड़ने का ही है यदि इसके त्याग से, अभाव से या द्वेष से अथवा दर्शन से तेरा कल्याण हो जाता, तो तू आज तक दुःखी ही न रहता, तेरा दुःख दारिद्रय कभी सात समुद्र टापू-पार चला गया होता; क्योंकि ठिकाना नहीं कि इस संसार का कितने बार प्रलय हो चुका है। प्रलय हैं क्या ? जगत् का अभाव या दर्शन न हो तो है ? और तो जाने दो, इस संसार के अभाव का अनुभव तो तू नित्यप्रति सुषुप्ति में करता ही है तो क्या तू सर्वदा के लिए क्लेष से मुक्त हो जाता है ? या तेरा सच्चा कल्याण हो जाता है ? यदि संसार के प्रदर्शन से ही मुक्ति मिल जाती, तब तो वृक्ष, पहाड़ादि भी मुक्त हो जाते। इसलिये भाई, यह संसार तेरा शत्रु कदापि नहीं हो सकता। यह न तो तुझे बन्धन में ही डालता है, और न मुक्ति से ही रोकता है; बल्कि इससे तो तुझे सहायता मिलेगी, मोक्ष मार्ग में बढ़ी भारी मदद मिलेगी। यदि पूछो कि यह कैसे, तो सुनो। इस संसार को देखकर इसके निर्माता का पता लगाया जा सकता है, इसके अधिष्ठान-आधार की खोज की जा सकती है। अजी' ! वेद, शास्त्र तथा आचार्य भी तो संसार के ही अन्तर्गत हैं ? इनसे ही तो तुझे सदुपदेश मिलेगा, आत्म-प्राप्ति का साधन (मार्ग) प्राप्त होगा; और उसके द्वारा तेरे हृदय में आत्म साक्षात्कार होगा, अपने खण्ड स्वरूप की झाँकी मिलेगी, ब्रह्म-तत्व तेरी वृत्ति में कूट-कूट कर भर जायगा , तू शोक-सागर से पार हो जायगा, तेरी दीनता मिट जायेगी, और अविद्या रात्रि का अन्त हो जायेगा। अजी ! जब संसार के मिथ्यातत्व का बोध भली भाँति हो जायगा, तब तो संसार के प्रति तेरे राग-द्वेष रह ही न जायेंगे, तब तो संसार को देख-देखकर तू उसी प्रकार हँसेगा, जिस प्रकार अपनी मारी हुईं शत्रु सेना को देख - कर कोई वीर पुरुष हँसता है।
ओम शांतिः शांतिः शांतिः