कर्म करने में लाभ-हानि, जीवन-मरण, विजय-पराजय, सुख-दुःख कुछ भी प्राप्त हो, परन्तु किसी भी प्राप्ति में ध्येय से विचलित होना अथवा अधीर और भयभीत होकर कर्म का गाण्डीव छोड़ देना महान् पाप है। इस पाप आत्मज्ञानी मप बचे ही रहते है। आत्मा पापों में लिप्त नहीं होता, आत्मा मरता नहीं, जन्मता नहीं, शरीर का वध हो जाने से भी उस र कोई प्रभाव नहीं पड़ता । आत्मा नित्य है, सर्वगत है, अचल है और सनातन है, ऐसा जानकर आत्मवान् पुरुप निर्भय, निर्द्वन्द्व और निर्विकारी रहते है।
आत्मवान पुरुष स्वधर्म से विमुख नहीं होते, साहम नहीं छोड़ते, कर्तव्य युद्ध में कभी पीठ नहीं दिखाते। वे जीवित रहते हैं तो प्रतिभाशाली, गौरव सम्पन्न जीवन जीते हैं और कर्म युद्ध में अपनी बलि देते हैं तो स्वर्ग का सिंहासन प्राप्त करते हैं। आत्मवान् होने के लिये कर्म का प्रभाव रहिन, एकनिष्ठ
आचरण अनिवार्य है। जिसकी बुद्धि मे निश्चय के मेरुदण्ड का अभाव है, वह सब साधनों को प्राप्त करके भी कर्म क्षेत्र मे डिग जाता है। निश्चलबुद्धि से किये हुए कमे का थोड़ा-सा आचरण भी भय और विघ्नों के भारी पर्वतों को तोड़ देता है। कर्म
कर्म करने के अधिकार का लाभ उठाने के लिये योग मे स्थित होना आवश्यक है। चित्त वृत्तियों को एकाग्र करके, जीव और आत्मा का सम्बन्ध जोड़कर अन्तर और बाह्य को एक करके, बुद्धि से कर्म करने का नाम ही योग है।
योग में द्वन्द्वों और विकारों का स्थान नहीं है। अनासक्त कर्मयोग की सिद्धि द्वन्द्व और विकारहीन बुद्धि-योग से होती है।
गीता में कर्म की सिद्धि का प्रधान साधन बुद्धि-योग है । बुद्धि-योग के लिये ही गीता में स्थितप्रज्ञ का वर्णन है । स्थितप्रज्ञ गीता का जीवन्मुक्त लोहपुरुप है। उसका मन, आत्मा के अखण्ड आनन्द की तरंगों पर खेलता है। कामना के खिलौने उसे मोहित नहीं कर पाते। सुख मे वह अधिक सुख की चाह नहीं करना, दुःख मे दुःखी नहीं होता; राग, भय और क्रोध उसके संकेतों पर नाचते हैं। प्रसन्नता स्थितप्रज्ञ के समस्त दुःखों को ढक लेती है। समुद्र मे जैसे नदियाँ समा जाती है, उसी प्रकार स्थितप्रज्ञ में संसार के सारे विपय समाजाते है। वह अखंड शान्ति, परमानन्द और ब्राह्मीस्थिति में निवास करता है।
आनन्द, शान्ति, सुख और बुद्धि-योग की प्राप्ति के लिये भी भ्रम मिथ्याचार और आत्म-वंचना से जीव कर्म से पीछे हट जाता है। कर्म-पथ से विचलित होते ही वह एक संकट - संग्राम में घिर जाता है। ऐसी अवस्था में सरकारी पुरुष अशान्त और संतप्त हो जाने पर अपने परमात्मा से निश्चित और कल्याणकारी मार्ग दर्शन की मांग करता है ।
सांसारिक सुख और ब्रह्मज्ञान दोनों का व्यावहारिक समन्वय यज्ञ में होता है। यज्ञ, गीता में निष्काम कर्मयोग की व्याख्या है। यज्ञ के प्रभाव से किसी की कोई कामना अपूर्ण नहीं रहती।
देव पूजन, अर्पण, संगठन, दान और लोक-संग्रह द्वारा जब एक-दूसरे का घाटा पूरा किया जाता है, तब यज्ञ सम्पूर्ण होता है। यज्ञ देवता और मानवों का परस्पर आदान-प्रदान है। निरन्तर भगवान् में टिके रहना और भगवत्-चेतना से युक्त होकर सदाचार-पूर्ण कर्म करना सर्वश्रेष्ठ यज्ञ है यज्ञ-कर्म में भीति और मिथ्याचार होने से मानव की दैवीशक्ति क्षी हो जाती है और देव-भाव का लोप हो जाता है।
तीन महान् शत्रु है-काम, क्रोध और लोभ । इन तीनों ने ज्ञान और विज्ञान को नष्ट करने का संकल्प किया हुआ है। अतः इन शत्रुओं पर विजय प्राप्त किये बिना ज्ञान की आंख नही खुलती ज्ञान की दृष्टि के बिना कर्म और अकर्म का यथार्थ बोध नही होता।
समदर्शन सम्पूर्ण साधनों की सफलता समदर्शन में है। सबका सुख और दुःख अपना ही सुख-दुःख है। सब प्राणियो मे समान रूप से देवाधिदेव परमात्मा का निवास है-ऐसा जानकर जो योगी कर्म मे प्रवृत्त होता है वह सबसे श्रेष्ठ है।
तपस्वी, ज्ञानी, कर्म-परायण सबसे ऐसे योगी का अधिक महत्व है । उसी योगी को गीता में 'भक्त' कहा गया है।
भक्त चराचर मे अपने प्रियतम का मधुर दर्शन करता है। और अपना सर्वस्व उसके अर्पण कर देता है। महाभारत का युद्ध केवल १८ दिन मे समाप्त हो गया, परन्तु संसार का युद्ध नित्य-निरन्तर चलता रहता है। इस युद्ध मे लड़ते हुए जो भगवान् को नही भूलता, प्राणिमात्र के लिये प्रेम और सद्भाव वितरण करता है, वही सर्वश्रेष्ठ भक्त है।